नक्सली हिंसा का प्रतिकार विकास से हो
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नक्सली हिंसा का प्रतिकार विकास से हो

by
Jun 1, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Jun 2013 16:15:53

 

अमरीकी मार्क्सवादी नेता बाब अवेकिन के शब्दों में किसी भी प्रकार की क्रांति न तो बदले की कार्रवाई है और न ही मौजूदा तंत्र की कुछ स्थितियों को बदलने की प्रक्रिया है अपितु यह मानवता की मुक्ति का एक उपक्रम है। परंतु मानवाधिकार को ढाल बनाकर भारत की धरा को मानवरक्तिमा से रंगने वाले 'बन्दूकधारी-कारोबारियों' को बाब अवेकिन की यह बात समझ नहीं आयेगी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के प्रवक्ता गुड्सा उसेंडी ने दरभा हमले की जिम्मेदारी लेते हुए बताया कि 25 मई को कांग्रेस की परिवर्तन रैली पर हमला इसलिये किया था क्योंकि इन्हें सलवा जुडूम के प्रणेता महेन्द्र कर्मा को मारकर बदला लेना था। केन्द्र-सरकार जब नेताओं की सुरक्षा नहीं कर सकती और उसकी नाक के नीचे से इन नक्सलियों के पास अत्याधुनिक हथियार और पैसे पहुँचते हैं तो आम जनता की सुरक्षा तो भगवान भरोसे ही है। सरकार व नक्सलियों के बीच आम वनवासी मात्र शरणार्थी बनकर रह गया है। न कोई प्राकृतिक आपदा आई, न कोई महामारी फैली परन्तु फिर भी आम वनवासी को सरकार के राहत शिविरों में रहना पड़ रहा है। जंगल मे राजा की भाँति विचरण करने वाला वनवासी राहत शिविरों मे रहकर सरकारी दिनचर्या के हिसाब से जीने को मजबूर हो गया। उसके लिये इधर कुआं उधर खाई वाली हालत बन गई है। सरकार की बात करेगा तो नक्सली की गोली खानी पड़ेगी और अगर राहत शिविर छोड़कर जायेगा तो 'नक्सली का जासूस' कहलाकर सरकार की गोली खानी पड़ेगी।

देश की विकास-धारा को गति देने वाला छत्तीसगढ़ देश का 20 प्रतिशत स्टील और 18 प्रतिशत सीमेंट का उत्पादन करता है। परंतु यह देश का दुर्भाग्य ही है कि नक्सलवाद के चलते छत्तीसगढ़ में उथल-पुथल मची हुई है। शायद नक्सली समर्थक अपने कुतकर्ों के आधार पर आम वनवासी को बरगलाने में सफल हो गये हैं कि सरकार के विकास का अर्थ है उनको उनकी संपदा से बेदखल कर देना। केन्द्र सरकार को छत्तीसगढ़ को विशेष तौर पर अलग से आर्थिक मदद उड़ीसा के कालाहांडी की तर्ज पर देनी चाहिये क्योंकि अकेले छत्तीसगढ़ में 32 प्रतिशत वनवासी हैं और जब तक उन्हें सड़क या रेल तंत्र से जोड़ा नहीं जायेगा विकास का असली अर्थ ये भटके हुए वनवासी नही समझ पायेंगे। जल्दी से जल्दी जयराम रमेश द्वारा 50 करोड़ रुपये की परियोजना 'गवर्नेंस एंड एसिलरेटिड लाईवली हुड्स सिक्योरिटी प्रोजेक्ट्स स्कीम (गोल्स)' को लागू किया जाय ताकि इस परियोजना के द्वारा असमानता की खाई को पाटा जा सके, अन्यथा नक्सली समर्थक नेताओं व गैर सरकारी संगठनों के चंगुल मे फँसकर ये भटके हुए वनवासी यूँ ही बन्दूक उठाते रहेंगे।

यह एक शाश्वत सत्य है कि किसी भी विचार से शत-प्रतिशत सहमत व असहमत नहीं हुआ जा सकता। इसके लिये लोकतंत्र में तकर्ाधारित संवाद किया जा सकता है और अपने वैचारिक प्रकटीकरण के लिये संविधान ने हमें यह व्यवस्था दी है। नीतियों में न्यूनता हो सकती है, जिसे समयानुसार संशोधित किया जा सकता है परंतु संविधान प्रदत्त लोक-कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को ही धराशायी करने का अधिकार किसी को कैसे दिया जा सकता है। हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि लोकतंत्र में संवाद वह हथियार है जिसकी मदद से कोई भी जंग न केवल जीती जा सकती है अपितु जिससे संपूर्ण मानवता की भी रक्षा की जाती है। कोई भी देश वहाँ के निर्मित संविधान से चलता है, परंतु स्थिति ज्यादा खतरनाक तब हो जाती है जब आम जनता को संविधान के खिलाफ ही भड़काकर उसे हथियार उठाने के लिये विवश कर दिया जाता हो।

इस सच्चाई को नकारा नही जा सकता कि आजादी के बाद से लेकर आज तक वनवासियों के विकास के लिये जो भी कदम उठाया गया वह उस वनवासी के शरीर की सभी 206 हड्डियों को मज्जा से ढकने के लिये नाकाफी रहा। आज भी उन्हें दो जून की रोटी व पीने के लिये पानी नसीब नहीं है। ऐसे में उनके लिये विकास की बात करना मात्र एक छलावा है और शहरों की चमचामाती सड़कें और गगनचुम्बी इमारतें उनके लिये अकल्पनीय हैं। जिसका लाभ लेकर अरुन्धती राय सरीखे लोगों द्वारा वनवासियों को सत्ता के खिलाफ बन्दूक उठाने के लिये प्रेरित व विवश किया जाता है। यही वे लोग हैं जो आम वनवासी को यह समझाते हैं कि सत्ता द्वारा तुम्हें तुम्हारी संपत्ति से बेदखल कर तुम्हें विस्थापित कर दिया जायेगा। सरकार को वनवासियों का भरोसा जीतकर वहाँ विकास मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। इन क्षेत्रों में यदि कोई वनवासी विस्थापित होता है तो उसकी संपूर्ण जिम्मेदारी सरकार की हो। उन आम वनवासियों को यह भी समझना होगा कि जो सड़क उनके जंगल-खेत-खलिहानों से होकर गुजरेगी वही सड़क उनकी इस असमानता को दूर करेगी क्योंकि वर्तमान समय में सड़कें ही विकास का पर्याय हैं। यदि उनके बच्चे स्कूलों में शिक्षा लेंगे, देश-समाज को समझेंगे, संचार माध्यमों से जुड़ेंगे तभी तो वे भी भविष्य में देश के विकास में भागीदार होंगे। सत्ता से सशस्त्र टकराव करना कोई बुद्धिमानी नहीं है। पंजाब के आतंकवाद का दमन इस बात का एक जीता-जागता उदाहरण है। देर-सवेर इन भटके हुए लोगों को विकास की इस धारा में आना ही ½þÉäMÉÉ* ®úÉVÉÒ´É गुप्ता

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