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काकी और सुग्गा (तोता) का कुछ अनूठा ही संबंध था। मैंने बचपन में काकी के पिंजरे में ही तोता देखा था। काकी के पास एक बिल्ली और एक कुत्ता (मिन्टा) भी था। ये सब उनके दरवाजे पर बने दालान में रहते थे। काकी को अपने इस वृहत्तर परिवार के सदस्यों के बीच जन्मजात दुश्मनी को संभालने में कितनी मशक्कत करनी पड़ती होगी, यह सोचने की बात है। मिन्टा बिल्ली को देख नहीं सकता था। बिल्ली छप्पर पर टंगे पिंजरे में चारों ओर घूमता 'काकी' 'काकी' पुकारते तोते को झपटना चाहती थी। काकी का दो-तिहाई समय इन तीनों के समझाने-बुझाने, एक-दूसरे से बचाने में ही समाप्त हो जाता। नहाने-खाने या थोड़ा आराम करने जाते समय काकी किसी और सदस्य को कह जाती-'जरा देखते रहना, मैं अभी आई।' उन तीनों को भी हिदायत कर जाती।
एक दिन काकी दूसरे आंगन में गीत गाने चली गई थी। पता नहीं किसने पिंजरे का दरवाजा खोला, तोता उड़ गया था। उनके पास मिन्टा (कुत्ता) दौड़ता-हांफता गया था। उनके आंचल का कोर मुंह में दबाए काकी को घर लाया था। ऐसा वह तभी करता था जब घर में कुछ गड़बड़ हो जाए। किसी बहू ने अपने बच्चे को मारा-पीटा हो, पति-पत्नी में झगड़ा हो रहा हो, ऐसी घटनाओं के घटने पर ही वह काकी को इस तरह लाया करता था। उस दिन भी काकी आशंकाओं से ग्रसित अपने घर पहुंची। उसकी बैठकी (दालान) में ही परिवार के आठ दस लोग इकट्ठे थे। जैसे ही काकी पहुंची, कई बच्चों ने एक साथ कहा-'काकी! सुग्गा उड़ गया।'
काकी सिर थाम कर बैठ गई। वहां उपस्थित परिवार के स्त्री-पुरुष तोते के भाग जाने का कारण ढूंढने लगे। व्यथित काकी कुत्ते-बिल्ली के द्वारा तोते को मार डालने की सोचकर सशंकित हो गई। उन्हें स्मरण हो आया कि उस तोते ने उड़ना सीखा ही नहीं। वे अपनी इस भूल पर पछताने लगीं। उनकी एक बहू हुक्का भर कर ले आईं। काकी ने हुक्का पीने से इंकार कर दिया। उपस्थित लोग समझ गए। काकी बहुत दु:खी और नाराज थी। ऐसे अवसरों पर वे अन्न-जल क्या हुक्का पीना भी त्याग देती थीं। ऐसी स्थिति तभी आती थी जब उनके कुत्ते, बिल्ली या तोता कोई कष्ट पहुंचाए। अव्वल तो उनकी बिल्ली, कुत्ते से अपनी सुरक्षा करने में स्वयं माहिर थी। पर कभी-कभी उसकी सावधानियां विफल हो जातीं। मिन्टा उस पर झपटता। वह तो भाग जाती पर मिन्टा को काकी से पिटाई लगती। यह बात दीगर थी कि मिन्टा काकी से मार खाकर उनसे ही चिपक कर बैठता। काकी स्वयं रोती-रोती उसे समझाती जाती।
काकी की ये गतिविधियां घर और गांव वालों के बीच भी चर्चा का विषय होतीं। उस दिन जब पिंजरा खाली पड़ गया, काकी ने मौन धारण कर लिया। घर वाले बहुत परेशान। काकी उठीं और पिंजरे को नीचे उतारकर ऊपर छप्पर पर रख उसका दरवाजा खुला छोड़ दिया। पिंजरे में पानी और पके अमरूद के टुकड़े रख दिए। लाल मिर्च भी। स्वयं मिन्टा को कुछ समझाकर अंदर आंगन में चली गईं। दो-तीन घंटे तो बीते थे। मिन्टा अंदर जाकर उनकी साड़ी का छोर पकड़कर उन्हें खींचने लगा। काकी झल्लाई- 'अब क्या हुआ?'
बिना जवाब पाए मिन्टा के पीछे-पीछे उन्हें चलना ही था। दालान में जाकर मिन्टा थम गया। वह छप्पर पर रखे पिंजरे की ओर मुंह करके भौंकने लगा। काकी ने उधर देखा तो अचम्भित रह गई। तोता पिंजरे में दुबक कर एक किनारे बैठा था। काकी की खुशी गुस्से में उतरी। काकी ने पिंजरा उतारते हुए उसे एक-दो चपत लगाकर कहा-'घूमंतरा करने गए थे, पिंजरे का बंधन ठीक नहीं लगता। मेरे हाथ के फल में स्वाद नहीं मिलता। पेड़ का ही फल जुठाओगे।'
काकी थोड़ी देर बैठकर उसे निहारती रहीं। तोता उसी तरह दुबका बैठा रहा। काकी को दया आ गई। वे उठकर उसे पुचाकरने लगीं। बोलीं-'मैं समझ गई। तुम्हें पिंजरे में बंद रहना अच्छा नहीं लगता। अब मैं तुम्हें थोड़ी देर के लिए पिंजरे से बाहर निकाल दिया करूंगी। मुझे विश्वास हो गया कि तुम लौट ही आओगे।'
काकी ने जब वह तोता मंगवाया था तो उसकी आयु एक सप्ताह की ही थी। काकी ने उसे प्यार से पाला-पोसा।
एक बार मैंने अमरूद खाते-खाते दांतों से एक टुकड़ा काटकर पिंजरे में रख दिया। तोते ने उसे छुआ तक नहीं। मैंने काकी से पूछा। काकी ने समझाया- 'तोता पक्षियों में ब्राह्मण होता है। यह किसी का जूठा नहीं खाता।'
मैं समझ गई थी। काकी गीतगाइन भी थी। वह बहुत सारे ऐसे गीत गाती थीं, जिनमें तोते का वर्णन होता था। उन गीतों के माध्यम से भी हमें तोते के बारे में जानकारियां मिली थीं।
विवाह के बाद मैं ससुराल गई। बातों-बातों में मेरी सास ने कहा- 'आप (मिथिलांचल में बहू को आप ही कहा जाता है) तो जंगल से बझाई तोता हो। आपसे प्यार से ही बोलना होगा।' तोते को प्यार से बोलकर ही 'राम-राम', 'सीता-राम', 'भोर भई उठो नंदलाला' सिखाया गया था। बाकी तो तोते ने स्वयं काकी और दूसरों के शब्द और वाक्य रट लिए थे। काकी का तकियाकलाम था-'हे भगवान, सबका भला करना।' वह तोते का भी तकिया कलाम हो गया था। दरअसल वह हमारे घर का सदस्य ही हो गया था। किसी के आने पर बोलना प्रारंभ कर देता- 'काकी! किशोरी जी अइलन (आयी)।' किशोरी जी (मेरी बहन) से काकी बातें करती रहतीं। तोता वही वाक्य दुहराता रहता, बातचीत में बाधा पड़ती।
काकी कहती- 'आज घेंटू (गर्दन) मरोड़कर चूल्हा में डाल दूंगी। हरदम चें-चें करता रहता है।' काकी नहीं मार पाई तोते को। स्वयं बीमार पड़ गईं। उनकी खटिया के नीचे ही मिन्टा बैठा रहता। कभी-कभी उसकी आंखों से आंसू भी निकलते। पिंजरा भी उस कमरे में टांग दिया गया। काकी की बीमारी बढ़ती गई थी। उन तीनों ने भी अनशन कर दिया था।
काकी नहीं रहीं। उनका शव श्मशान ले जाया जा रहा था। मिन्टा तो अपने आप आगे-आगे चला। मेरी मां ने अपने देवर से कहा-'सुग्गा को भी लेते जाइए। दाह संस्कार करके वहीं उड़ा दीजिएगा।'
चाचा ने ऐसा ही किया। खाली पिंजरा वापस ले आए। उसी स्थान पर टांग दिया जहां टंगा रहता था। तीसरे तीन पंडित जी आए थे। खाली पिंजरा देखकर पिताजी से बोले- 'आपकी मां की आत्मा शरीर रूपी पिंजरे में थी जिसे आप लोगों ने दाह संस्कार कर दिया। इस पिंजरे में एक आत्मा थी। उड़ गई।'
तीसरे दिन पिताजी और चाचा श्मशान घाट गए थे। कुछ संस्कार का कार्य था। लौटकर आए। उन्होंने बताया-'दाह संस्कार के बाद तोते को उड़ा दिया था। तीसरे दिन वह वहीं झुलसा हुआ मरा पड़ा था। ऊंची आवाज में रोई थीं मां और चाची। यह रोना तोते के लिए था। काकी और तोते के संबंध को श्रद्धाञ्जलि। काकी का श्राद्ध खत्म होने के दूसरे दिन मेरी मां ने अपने देवर से कहा-'पिंजरा खाली नहीं रहेगा, एक तोता ला दीजिए।' दुला सिन्हा
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