दुइजीअम्माशोषण के विरुद्ध बुलंद आवाज
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दुइजीअम्माशोषण के विरुद्ध बुलंद आवाज

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Apr 6, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Apr 2013 16:33:31

वर्ष 2005 में नोबुल शांति पुरस्कारों के लिए भारत द्वारा नामित 25 लोगों में सबसे ज्यादा चौंकाने वाला नाम था 'दुइजी अम्मा' का। जिनका न कोई राजनीतिक इतिहास, न किसी संगठन से सरोकार, न पूंजीपति और न राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खियां बनने वाले आंदोलनों की कार्यकर्त्ता। दुइजी अम्मा नाम है उस निरक्षर मजदूर महिला का जिसके नेतृत्व में हुए आंदोलन से विन्ध्य क्षेत्र की पहाड़ियों में हो रहे अवैध खनन पर न केवल रोक लगी बल्कि खनन मजदूरी करने वाले सैकड़ों परिवारों को शोषण से मुक्ति मिली। इसके लिए उन्हें 2010 में जी न्यूज ने भी सम्मानित किया। यहां प्रस्तुत है दुइजी अम्मा की संघर्ष गाथा और कुछ अनछुए पहलुओं की दास्तान–

विन्ध्य क्षेत्र की पहाड़ियों तथा छोटे-छोटे जंगलों से घिरे इलाहाबाद (उ.प्र.) से 50 किमी. दूर शंकरगढ़ क्षेत्र की पहचान कभी अति पिछड़े क्षेत्र में हुआ करती थी। रोजी-रोटी का एकमात्र साधन पत्थर का खनन और गिट्टी तोड़ने का कार्य था। पूरा क्षेत्र पथरीली जमीन से पटा पड़ा था। जमींदारी उन्मूलन के बाद भी अब से दो दशक पहले तक यहां जमींदार और दबंग ठेकेदारों का ही शासन चलता था। दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी शाम को कितनी मजदूरी मिलनी है, यह जमींदार के आदमी या ठेकेदार ही तय करते थे।

कोई चार दशक पहले निकटवर्ती जनपद चित्रकूट के मनका गांव से रोजी-रोटी की तलाश में बाबूलाल और उनकी पत्नी दुइजी देवी शंकरगढ़ आये। अन्य मजदूरों की तरह यह परिवार भी दिन भर की मेहनत के बाद मुश्किल से ही खाने भर का कमा पाते थे। समय के साथ बाबू लाल-दुइजी देवी की 10 संताने हुईं-  चार बेटे और छ:बेटियां। इतने बड़े परिवार का खर्च चलाना मुश्किल हो गया। दुइजी अम्मा बताती हैं 'यदि हम दोनों में से कोई भी एक एक दिन भी काम पर न जाये तो खाने के लाले पड़ जाते थे। ऐसे में बच्चों का पालन-पोषण बहुत मुश्किल था। मुसीबत में अगर ठेकेदार से कर्ज ले लिया तो उसी दिन से दुर्दिन शुरू हो जाता। महिलाओं के साथ ज्यादा अन्याय था। काम तो पुरुषों के बराबर का और मजदूरी उनकी आधी। इससे इतर जमींदार या ठेकेदार के आदमी उनका शारीरिक शोषण करने के लिए रास्ता खोजते रहते थे। उनकी गिद्ध दृष्टि महिलाओं के शरीर पर लगी रहती थी।'

संघर्ष की शुरुआत कैसे हुई पूछने पर दुइजी अम्मा बताती हैं- ‘VÉ¤É खाने की दिक्कत बढ़ी और मन में बच्चों की शादी-ब्याह का ध्यान आया तो लगा कि कुछ करना पड़ेगा। अन्य मजदूरों का मन टटोला तो लगा कि सबके मन में शोषण के विरुद्ध आक्रोश तो है लेकिन भय भी है कि यदि ठेकेदार संगठित हो गये और काम देना बंद कर दिया तो क्या होगा? पर जब हद हो गयी तो लगभग दो दशक पहले मैंने शोषण और दोहन के विरुद्ध आवाज उठा दी। आवाज क्या उठी, मानों पूरे क्षेत्र में भूकंप आ गया। ठेकेदार संगठित होने लगे, लेकिन दूसरी तरफ मजदूर भी साथ में आ खड़े हुए। संघर्ष की स्थिति देख शासन – प्रशासन ने मजदूरों की आवाज सुनी। शासन ने दबाव बनाया तो अवैध खनन बंद हो गया। जंगल से लगातार हो रहा कटान भी बंद हो गया। मजदूरों का शोषण बढ़ना तय था, और बढ़ा भी। जिन लोगों ने ठेकेदारों से कर्ज लिया था, उनकी मुसीबत ज्यादा बढ़ गयी। लेकिन इस आंदोलन से ठेकेदारों को भी नुकसान होने लगा। उनका भी काम ठप्प पड़ गया। आखिरकार मजदूरी तय करके काम कराने पर समझौता हुआ। जिन लोगों ने कर्ज लिया था, उनका कर्ज मजदूरी से धीरे-धीरे काटने का समझौता हुआ। इस आंदोलन का असर यह हुआ कि अवैध कब्जे हटे और मजदूरों को खनन के पट्टे और कब्जे शासन की ओर से दिये गये। लेकिन मजदूरों की समस्या इतनी जल्दी खत्म होने वाली नहीं थी। जिनके अवैध कब्जे हटे उन लोगों ने स्थानीय पुलिस से मिलकर मजदूरों को परेशान करना शुरू कर दिया। माल बाहर जाने से रोका जाने लगा। जो ठेकेदार पत्थर या गिट्टी खरीदने बाहर से आते थे उन्हें पुराने ठेकेदार डरा-धमकाकर भगा देते थे। पर हम लोग भी हार मानने वाले नहीं थे। संगठित होकर हम लोग पुलिस और प्रशासन के उच्च अधिकारियों से मिलते रहे तब जाकर धीरे-धीरे समस्या कम ½Öþ<Ç*’

पर 1995 में दुइजी अम्मा के पति बाबू लाल की अचानक मृत्यु हो गयी। उनका अपना सहारा देने वाला चला गया। लेकिन यह क्या, बाबू लाल की मृत्यु के बाद हजारों हाथ एक साथ मदद को आ खड़े हुए। दुइजी अम्मा बताती हैं 'आंदोलन में कई बार मेरा परिवार और सहयोगी पुलिसिया उत्पीड़न के शिकार हुए, लेकिन उन लोगों ने अभी तक हार नहीं मानी है।' दुइजी अम्मा अब 72 वर्ष की हो चुकी है। वे शंकरगढ़ क्षेत्र में जूही कोठी गांव में स्थायी रूप से बस गयी हैं। लेकिन तमाम प्रयासों के बाद उनके दिन आज भी बदहाली के ही हैं। गांव के स्कूल में ‘ʨÉb÷ डे ¨Éұɒ की व्यवस्था संचालित कर रही दुइजी अम्मा कहती हैं, 'लड़ाई लम्बी चली। सन् 2000 से आज तक हम आधे ही सफल हुए हैं, बाकी तो धीरे-धीरे ठीक ½þÉäMÉÉ*’ दुइजी अम्मा के पैर अब जवाब देने लगे हैं। उनके घुटनों में कष्ट है। लेकिन अगर कोई अपनी समस्या लेकर आ जाए तो उसके साथ जाने को तैयार हो जाती हैं।

जूही कोठी गांव के निरंजन कहते हैं कि अम्मा के कारण ही यहां के लगभग एक दर्जन गांवों- शंकरगढ़, ओसा, गन्ने, जूही कोठी, सोनवरसा, सीधी टिकट, पंडित का पुरबा, कोहड़िया आदि के 500 से ज्यादा मजदूर परिवार खुशहाल और सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं। यहां आज यदि किसी की कोई समस्या है तो उसके स्वयं के कारण है, किसी दबंग के कारण नहीं। वर्ष 2010 में जी न्यूज की ओर से दुइजी अम्मा को सम्मानित किया गया है। इतने बड़े आंदोलन की अगुवायी करने वाली दुइजी अम्मा उपलब्धि के बारे में पूछने पर कहती हैं कि 'सबके अच्छाई में हमहुं बढ़त गयेन। अब इन्हां के केहु-कौनऊ परेशान न करी।' हरिमंगल

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