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अंजली कुमारीउपहार के 'बो' ने मेरी तकदीर बदल दी

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Apr 6, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Apr 2013 17:27:11

उपलब्धि : विश्वविद्यालयी प्रतियोगिताओं में ढेरों पदक

भविष्य का संकल्प : ओलम्पिक में जीतना है भारत के लिए स्वर्ण

मेरा जन्म बिहार के छपरा जिले के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र मशरख के कोरांव ग्राम में हुआ। अत्यंत साधारण परिवार में हम चार भाई-बहन हैं। मुझसे बड़े तीन भाई और मैं सबसे छोटी बहन हूं। मेरे पिताजी, श्री शत्रुघ्न प्रसाद विश्वकर्मा टाटा स्टील में नौकरी करते हैं। मेरे बड़े भाई हरेश कुमार को तीरंदाजी का शौक था। पर दुर्भाग्य से वह इस क्षेत्र में कुछ विशेष नहीं कर सके। परंतु उनकी लगन को देखते हुए तीरंदाजी के प्रख्यात कोच एवं अर्जुन व द्रोणाचार्य पुरस्कार विजेता श्री संजीव सिंह ने उन्हें एक बो (धनुष-वाण या तीर-कमान) उपहार स्वरूप दिया था। बाद में वही 'बो' हरेश भैया ने मुझे उपहार स्वरूप दे दिया। मैं बचपन से भाई को अभ्यास करते हुए देखती थी। मुझे भी ललक थी कि मैं भी तीरंदाजी करूं। परंतु घर और बाहर यही सुनने को मिलता था कि लड़कियों को अपने काम से मतलब रखना चाहिए। अपने काम का मतलब घरेलू काम से था। परंतु बचपन में ही तीरंदाजी का भाव मेरे मन में आ गया था। 2004 में मैट्रिक करने के बाद मैंने भी तीरंदाजी करना शुरू किया। मेरी तीरंदाजी का विरोध मेरे परिवारवालों और परिजनों-पड़ोसियों ने भी किया। परंतु मेरी जिद्द को देखकर माता-पिता व भाईयों ने अपनी सहमति दे दी। भाई से उपहार स्वरूप प्राप्त 'बो' से मैं अभ्यास करती रही। मुझे संजीव सर एवं बड़े भाई हरेश कुमार का सतत मार्गदर्शन मिलता रहा। इस बीच हरेश भैया की नौकरी अमृतसर के गुरूनानक देव विश्वविद्यालय में बतौर कोच हो गई। मैंने भी अपना दाखिला गुरूनानक देव विश्वविद्यालय में ले लिया। वहां अभ्यास के लिए तीर मिलते थे। एक साधारण परिवार के बच्चे के लिए तीरंदाजी काफी मंहगा खेल है। तीरंदाजी की एक किट दो लाख रूपये में आती है। इस किट में एक 'बो' तथा तीन दर्जन तीर होते हैं। एक साल में एक खिलाड़ी के अभ्यास में तीन दर्जन तीर समाप्त हो जाते हैं। यह तीर विदेश से आता है। एक दर्जन तीर की कीमत लगभग पैंतीस हजार रुपये होती है।

मेरी मेहनत रंग लाई और मैं राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में सफलता पाने लगी। 2007 के 52वीं राष्ट्रीय विद्यालयी खेलकूद प्रतियोगिता में हमारी टीम ने रजत पदक जीता। इसी वर्ष राष्ट्रीय तीरंदाजी प्रतिस्पर्धा में भी हम लोगों को रजत पदक हासिल हुआ। सतत अभ्यास के कारण मुझे अंतरविश्वाविद्यालय तीरंदाजी प्रतिस्पर्धा (विजयवाड़ा 2008-09) के 70 मीटर वर्ग में स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। 2010 को कुरूक्षेत्र में आयोजित प्रतिस्पर्धा के ओलंपिक राउंड में हमें स्वर्ण पदक हासिल हुआ। बड़े भाई के मार्गदर्शन एवं सतत अभ्यास से मुझे अतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में भी कामयाबी हासिल होने लगी। 2010 में शैनचांग (चीन) में 8वीं अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय प्रतिस्पर्धा में भी मुझे भाग लेने का मौका मिला। 12 से 23 अगस्त, 2011 को चीन में आयोजित 20वें ग्रीष्मकालीन यूनिवर्सियार्ड में हमारी टीम को कांस्य पदक मिला। मुझे सबसे बड़ी कामयाबी इस वर्ष बैंकाक में हासिल हुई। वहां 9 से 15 मार्च को प्रथम एशियन तीरंदाजी प्रतिस्पर्धा में मुझे व्यक्तिगत तौर पर कांस्य पदक प्राप्त हुआ। परंतु दुर्भाग्य से वहां मेरा 'बो' टूट गया। मेरी सबसे बड़ी परेशानी अब 'बो' को लेकर है। विश्व कप के लिए चयन होना है, परंतु मेरे पास अब 'बो' नहीं है। छपरा-पटना एक (सरकार के चक्कर) करने के बाद भी मुझे आश्वासन ही मिल रहा है, 'बो' नहीं। मेरी सबसे बड़ी तमन्ना ओलंपिक में भारत के लिए स्वर्ण पदक प्राप्त करना है। अगर ईश्वर की कृपा रही तो मैं यह मुकाम अवश्य हासिल करूंगी तथा भारत को स्वर्ण पदक दिलाउंगी।' प्रस्तुति: संजीव कुमार सिंह

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