दुनिया को धर्म-दर्शन का दान दिया भारत ने
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दुनिया को धर्म-दर्शन का दान दिया भारत ने

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Apr 22, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Apr 2013 12:18:28

संसार की सम्पूर्ण उन्नति में भारत का दान सबसे श्रेष्ठ रहा है, क्योंकि उसने संसार को ऐसे दर्शन और धर्म का दान दिया है, जो मानव-मन को संलग्न रखने वाला सबसे अधिक महान, सबसे अधिक उदात्त और सबसे श्रेष्ठ विषय है। हमारे पूर्वजों में बहुतेरे अन्य प्रयोग किए। हम सब यह जानते हैं कि अन्य जातियों के समान, वे भी बहिर्जगत् के रहस्य के अन्वेषण में लगे थे, और अपनी विशाल प्रतिभा से वह महान् जाति, प्रयत्न करने पर, उस दिशा में ऐसे ऐसे अद्भुत आविष्कार कर दिखाती, जिन पर समस्त संसार को सदैव अभिमान रहता। पर उन्होंने इस पथ को किसी उच्चतर ध्येय की प्राप्ति के लिए छोड़ दिया। वेद के पृष्ठों से उसी महान् ध्येय की प्रतिध्वनि सुनाई देती है 'अथ परा, यया तदक्षरमधिगम्यते'- 'वही परा विद्या है, जिससे हमें उस अविनाशी पुरुष की प्राप्ति होती है।' इस परिवर्तनशील, नश्वर प्रकृति-सम्बन्धित विद्या-मृत्यु, दु:ख और शोक से भरे इस जगत् से सम्बंधित विद्या बहुत बड़ी भले ही हो, एवं सचमुच ही वह बड़ी है, परन्तु जो अपरिणामी और आनन्दमय है, जो चिर शान्ति का निधान है, जो शाश्वत जीवन और पूर्णत्व का एकमात्र आश्रय-स्थान है, जिसके सिवा और कहीं सारे दु:खों का अवसान नहीं होता, उस ईश्वर से सम्बंध रखने वाली विद्या ही हमारे पूर्वजों की राय में सबसे श्रेष्ठ और उदात्त है।

आज 'धर्म' और 'हिन्दू' ये दो शब्द समानार्थी हो गए हैं। यही हमारी जाति का वैशिष्ट्य है और इस पर कोई आघात नहीं कर सकता। बर्बर जातियों ने यहां आकर तलवारों और तोपों के बल पर अपनी बर्बर विचारधाराओं का प्रचार किया, पर उनमें से एक भी हमारे मर्मस्थल का स्पर्श न कर सका, सर्प की उस 'मणि' को न छू सका, जातीय जीवन के प्राणस्वरूप उस 'हीरामन तोते' को न मार सका। अत: यही हमारी जाति की जीवन-शक्ति है, और जब तक यह अव्याहत है, तब तक संसार में ऐसी कोई ताकत नहीं, जो इस जाति का विनाश कर सके। यदि हम अपनी इस सर्वश्रेष्ठ विरासत आध्यात्मिकता को न छोड़ें तो संसार के सारे अत्याचार-उत्पीड़न और दु:ख हमें बिना चोट पहुंचाए ही निकल जाएंगे और हम लोग दु:ख-कष्टाग्नि की उन ज्वालाओं में से प्रह्लााद के समान बिना जले बाहर निकल आएंगे। यदि कोई हिन्दू धार्मिक नहीं है तो मैं उसे हिन्दू ही नहीं कहूंगा।

इस देश में पर्याप्त पंथ या सम्प्रदाय हुए हैं। आज भी ये पंथ पर्याप्त संख्या में हैं और भविष्य में भी पर्याप्त संख्या में रहेंगे, क्योंकि हमारे धर्म की यह विशेषता रही है कि उसमें व्यापक तत्वों की दृष्टि से इतनी उदारता है कि यद्यपि बाद में उनमें से अनेक सम्प्रदाय फैले हैं और उनकी बहुविध शाखा-प्रशाखाएं फूटी हैं तो भी उनके तत्व हमारे सिर पर फैले हुए इस अनन्त आकाश के समान विशाल हैं, स्वयं प्रकृति की भांति नित्य और सनातन हैं। अत: सम्प्रदायों का होना तो स्वाभाविक ही है, परन्तु जिसका होना आवश्यक नहीं है, वह है इन सम्प्रदायों के बीच के झगड़े-झमेले। सम्प्रदाय अवश्य रहें, पर साम्प्रदायिकता दूर हो जाए। अत: ऐसे भारत में, जहां सदा से सभी सम्प्रदाय समान रूप से सम्मानित होते आए हैं, यदि अब भी उनके बीच ईर्ष्या-द्वेष ओर लड़ाई-झगड़े बने रहें तो धिक्कार है हमें, जो हम अपने की उन महिमान्वित पूर्वजों के वंशधर बताने का दु:साहस करें!

मेरा विश्वास है, कि कुछ ऐसे महान तत्व हैं, जिन पर हम सब सहमत हैं, जिन्हें हम सभी मानते हैं-चाहे हम वैष्णव हों या शैव, शाक्त हों या गाणपत्य, चाहे प्राचीन वेदान्ती सिद्धान्तों को मानते हों या अर्वाचीनों के ही अनुयायी हों, पुरानी लकीर के फकीर हो अथवा नवीन सुधारवादी हों- और जो भी अपने को हिन्दू कहता है, वह इन तत्वों में विश्वास रखता है। सम्भव है कि इन तत्वों की व्याख्याओ में भेद हो-और वैसा होना भी चाहिए, क्योंकि हमारा यह मानदण्ड रहा है कि हम सबको जबरदस्ती अपने सांचे में न ढालें। हम जिस तरह की व्याख्या करें, सबको वही व्याख्या माननी पड़ेगी अथवा हमारी ही प्रणाली का अनुसरण करना होगा-जबरदस्ती ऐसा चेष्टा करना पाप है। हम लोग वेदों को अपने धर्म रहस्यों का सनातन उपदेश मानते हैं। हम सभी यह विश्वास करते हैं कि वेदरूपी यह पवित्र शब्दराशि अनादि और अनन्त है। जिस प्रकार प्रकृति का न आदि है न अन्त, उसी प्रकार इसका भी आदि-अन्त नहीं है। और जब कभी हम इस पवित्र ग्रन्थ के प्रकाश में आते हैं, तब हमारे धर्म-सम्बंधी सारे भेद-भाव और झगड़े मिट जाते हैं। इसमें हम सभी सहमत हैं कि हमारे धर्म-विषयक जितने भी भेद हैं, उनकी अन्तिम मीमांसा करने वाला यही वेद है।

दूसरी बात यह है कि हम सब ईश्वर में विश्वास करते हैं, जो संसार की सृष्टि-स्थिति-लय-कारिणी शक्ति है, जिसमें यह सारा चराचर कल्पान्त में लय होकर दूसरे कल्प के आरम्भ में पुन: अद्भूत जगत्-प्रपंच रूप से बाहर निकल आता एवं अभिव्यक्त होता है। हमारी ईश्वर-विषयक कल्पना भिन्न-भिन्न प्रकार की हो सकती है-कुछ लोग ईश्वर को सम्पूर्ण सगुण रूप में, कुछ उन्हें सगुण पर मानवभावाप्रन्न रूप में नहीं, और कुछ उन्हें सम्पूर्ण निर्गुण रूप में ही मान सकते हैं, और सभी अपनी-अपनी धारणा की पुष्टि में वेद के प्रमाण भी दे सकते हैं। पर इन सब विभिन्नताओं के होते हुए भी हम सभी ईश्वर में विश्वास करते हैं।

हम चाहते हैं, ईश्वर का प्रचार, फिर वह किसी भी रूप क्यों न हो। हो सकता है. ईश्वर-सम्बंधी इन विभिन्न धारणाओं में कोई अधिक श्रेष्ठ हो, पर याद रखना, उनमें कोई भी धारणा बुरी नहीं है। उन धारणाओं में कोई उत्कृष्ट, कोई उत्कृष्टतर और कोई उत्कृष्टतम हो सकता है, पर हमारे धर्मतत्व की पारिभाषिक शब्दावली में 'बुरा' नाम का कोई शब्द नहीं है। अत: ईश्वर के नाम का चाहे जो कोई जिस भाव से प्रचार करे, वह निश्चय ही ईश्वर के आशीर्वाद का भाजन होगा। उनके नाम का जितना ही अधिक प्रचार होगा, देश का उतना ही कल्याण होगा।

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