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अपने ही रचे झूठ में फंस गए शिंदे -देवेन्द्र स्वरूप

by
Feb 23, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Feb 2013 14:50:07

आखिर, गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने एक महीने पहले के अपने 'जयपुर वक्तव्य' को वापस ले ही लिया और खेद प्रगट किया। 20 जनवरी को उन्होंने कांग्रेस के चिंतन (या राहुल अभिषेक) शिविर में कहा था कि मुझे जानकारी है कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आतंकवाद के ट्रेनिंग शिविर चलाते हैं। इसे उन्होंने 'हिन्दू आतंकवाद' जैसा नाम भी दिया था। भाजपा और संघ ने तुरंत उसका खंडन किया, शिंदे से सार्वजनिक क्षमा मांगने अन्यथा उन्हें गृहमंत्री पद से बर्खास्त करने की मांग उठायी। देशभर में विरोध प्रदर्शनों से घबराकर उन्होंने उसे 'हिन्दू' की जगह 'भगवा आतंकवाद' नाम दिया, पर कहा कि हमारे पास इसके पुख्ता प्रमाण हैं। उसके दो दिन बाद अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर केन्द्र सरकार के गृहसचिव आर.के.सिंह ने उन पुख्ता प्रमाणों के रूप में दस नामों की सूची प्रकाशित कर दी, और कहा कि इनका कभी न कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंध रहा है। आतंकवादी गतिविधियों के रूप में उन्होंने मालेगांव, महाराष्ट्र में 2006 और 2008 के विस्फोटों, हैदराबाद की मक्का मस्जिद में दो विस्फोट, भारत-पाकिस्तान के बीच चलने वाली समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट व अजमेर की दरगाह और दिल्ली की जामा मस्जिद में विस्फोट गिना दिये। यदि सरकार के पास इतनी पुख्ता जानकारी है तो गृहमंत्री ने अपने सार्वजनिक वक्तव्य को वापस क्यों लिया? क्या इससे गृहमंत्री और भारत सरकार की विश्वसनीयता खत्म नहीं होती? क्या इस बीच भारत सरकार की जांच समितियों को कुछ नए तथ्य प्राप्त हुए हैं? यदि नहीं तो गृहमंत्री के वक्तव्यों के पीछे क्या मजबूरी हो सकती है? आज (21 फरवरी) के दैनिक पत्रों के अनुसार अन्तर्कथा यह है कि भाजपा ने यह स्पष्ट चेतावनी दे दी थी कि यदि गृहमंत्री ने अपना वक्तव्य वापस नहीं लिया, क्षमा नहीं मांगी, तो वे आज से आरंभ होने वाले संसद सत्र में इसी को मुख्य मुद्दा बनाएंगे। 20 फरवरी की प्रात: लोकसभा अध्यक्षा श्रीमती मीरा कुमार द्वारा आहूत सर्वदलीय बैठक में विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि हमारी पार्टी पर आतंकवादी शिविर चलाने का आरोप बना रहता है तो मुझे विपक्ष की नेता रहने का कोई अधिकार नहीं रह जाता और आतंकवादी भाजपा के सांसदों को सदन में नहीं आना चाहिए, बल्कि हम सबको आतंकवाद के आरोप में जेल में होना चाहिए, भाजपा पर प्रतिबंध लगना चाहिए। इस स्पष्टोक्ति के औचित्य को समझकर लोकसभा अध्यक्षा ने संसदीय कार्य के मंत्री कमलनाथ और श्रीमती सुषमा स्वराज को साथ बैठाया। इस बैठक के बाद कमलनाथ गृहमंत्री सुशील शिंदे को मिले और तदुपरांत शिंदे ने श्रीमती सुषमा स्वराज से भेंट करके अपना वक्तव्य तैयार किया। उन विस्फोटों की सच्चाई इस घटनाक्रम से स्पष्ट है कि गृहमंत्री के दोनों वक्तव्य विशुद्ध दलीय राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित हैं, उनका तथ्यों या व्यापक राष्ट्रहित से कोई संबंध नहीं है। इसका अर्थ है कि बदलती राजनीति के अनुसार उनके वक्तव्य भी बदलते रहेंगे। 'हिन्दू आतंकवाद' का हौवा खड़ा करने के लिए केवल पांच विस्फोटों और दस हिन्दू नामों को बार-बार उछाला जा रहा है। इन सभी विस्फोटों का सिलसिला 2006 से शुरू होकर 2008 में रुक जाता है, जबकि भारत में जिहादी आतंकवाद का वर्तमान चरण उसके पूर्व अनेक वर्षों से चला आ रहा है। 8 सितम्बर, 2008 को मालेगांव में पहले विस्फोट के तुरंत बाद इन सभी आतंकवादी घटनाओं की जांच प्रारंभ हो गयी। ध्यान देने की बात यह है कि मालेगांव (महाराष्ट्र), हैदराबाद (आं.प्र.) और दिल्ली आदि सब विस्फोटों के स्थान कांग्रेस शासित राज्यों में स्थित हैं। मालेगांव के पहले विस्फोट की जांच महाराष्ट्र पुलिस ने आरंभ की, पर एक सप्ताह बाद उसे महाराष्ट्र सरकार द्वारा गठित एटीएस को सौंप दिया गया। एटीएस ने 54 दिन में जांच पूरी की और 21 दिसम्बर को 4500 पृष्ठों की जो चार्जशीट दाखिल की, जांच पूरी होने पर जो कहानी प्रस्तुत की, वह इस प्रकार है- 8 जनवरी, 2013 के टाइम्स आफ इंडिया के अनुसार मालेगांव में इस्तेमाल हुए बमों के लिए आरडीएक्स पाकिस्तान से आया और एक पाकिस्तानी नागरिक मुजम्मिल ने मालेगांव में बम तैयार किये, जिन्हें मुस्लिम युवकों ने मालेगांव की चार मस्जिदों में विस्फोट के लिए पहुंचाया। इस रपट के आधार पर इन नौ मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया गया। महाराष्ट्र सरकार ने एटीएस की जांच की सीबीआई से पुष्टि करायी तो सीबीआई ने भी अपनी अतिरिक्त चार्जशीट में एटीएस की चार्जशीट की पुष्टि की। इसी प्रकार हैदराबाद की मक्का मस्जिद में हुए दो विस्फोटों की जांच में वहां की कांग्रेस सरकार द्वारा गठित एटीएस ने अपनी जांच में स्थानीय मुस्लिम युवकों को दोषी पाया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इन सब विस्फोटों के लिए 'सिमी' जैसे मुस्लिम संगठनों को दोषी ठहराया गया। जहां तक समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट का संबंध है, भारत सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने इसके लिए पाकिस्तान के जिहादी आतंकवादियों को दोषी ठहराया। अमरीका और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने भी इस विस्फोट की जांच की। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने जून, 2009 में और अमरीकी वित्त विभाग ने जुलाई, 2009 में अपनी जांच में पाया कि लश्कर-तोएबा के प्रमुख संयोजक आरिफ उस्मानी ने समझौता एक्सप्रेस विस्फोट के लिए धन पहुंचाया और अलकायदा ने विस्फोट के लिए लोग दिये। डेविड कोलमैन हेडली की तीसरी पत्नी औतालहा की स्वीकारोक्ति के अनुसार हेडली भी समझौता विस्फोट में शामिल था। सिमी नेताओं ने भी नाकर्ो टेस्ट में स्वीकार किया कि उन्होंने पाकिस्तानी आतंकियों की सहायता की थी। इन सब साक्ष्यों के प्रकाश में भारत सरकार ने पाकिस्तान को समझौता विस्फोट के लिए दोषी ठहराया। इन अन्तरराष्ट्रीय आरोपों से घबराकर पाकिस्तान के गृहमंत्री रहमान मलिक ने जनवरी, 2010 में सफाई दी कि विस्फोट के लिए पाकिस्तानी मुजाहिद्दीनों को भाड़े पर लिया गया था। कैसे शुरू हुआ षड्यंत्र? संक्षेप में कहें तो 2010 के प्रारंभ तक इन सब विस्फोटों के लिए सरकार भारत और पाकिस्तान के जिहादी तत्वों को दुनिया के सामने जिम्मेदार ठहरा रही थी। किन्तु तब तक 10, जनपथ ने चुनावी रणनीति के तहत गृह मंत्रालय को शिवराज पाटिल से लेकर पी.चिदम्बरम को सौंप दिया और 10, जनपथ के रणनीतिकार दिग्विजय सिंह ने मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने के लिए आजमगढ़ की यात्रा की, बाटला हाउस कांड की दोबारा जांच कराने की मांग उठायी और 'हिन्दू आतंकवाद' का हौवा खड़ा करने का निर्णय लिया। मई, 2010 में उन्होंने गृहमंत्री चिदम्बरम से व्यक्तिगत भेंट करके उन्हें जांच 'हिन्दू आतंकवाद' की दिशा में मोड़ने का आग्रह किया। उन्होंने भाजपा और संघ परिवार को अपने मुख्य राजनीतिक शत्रु के रूप में देखा। अत: अब जांच का मुख्य उद्देश्य किसी न किसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लपेटकर भाजपा पर प्रहार करना था। इसके लिए पहले सीबीआई का इस्तेमाल किया गया। सीबीआई कैसे अपने राजनीतिक आकाओं के हाथ की कठपुतली है, इसका उदाहरण है मालेगांव विस्फोट। महाराष्ट्र के एटीएस की जांच की जिस सीबीआई ने पुष्टि की थी उसी सीबीआई ने जनवरी, 2011 में हिन्दू आतंकवादियों के नाम गिनाने शुरू कर दिए, और एक नई कहानी गढ़ डाली। भारत सरकार और 10,जनपथ के भोपुओं ने 'हिन्दू आतंकवाद' का प्रचार शुरू कर दिया। इस प्रचार को गति व हवा देने के लिए चिदम्बरम ने 2010 के अंत में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) नामक एक नयी एजेंसी का गठन कर दिया, जिसका मुख्य कार्य आतंकवादी घटनाओं की जांच करना हो गया। अप्रैल, 2011 में चिदम्बरम ने मालेगांव धमाके की जांच एनआईए को सौंप दी। एनआईए किसी भी तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम इन घटनाओं से जोड़ने की कोशिश में लगी रही। यदि एटीएस की जांच में से निकली कहानियों को अब मनगढ़ंत कहा जा रहा है तो इसकी क्या गारंटी है कि एनआईए की जांच के आधार पर प्रचारित कहानियां मनगढ़ंत नहीं होंगी। नाम भले ही अलग-अलग हों पर जांच तंत्र तो एक ही है, उसमें बैठे हुए अधिकारियों की मानसिकता तो वही है। कई वर्ष लम्बी कोशिश के बाद भी एनआईए 10-12 नामों से आगे नहीं बढ़ पा रही है। इनमें कभी संघ के प्रचारक रहे सुनील जोशी, संघ के पूर्व स्वयंसेवक राम जी कलसांगरा, संदीप डांगे, धन सिंह, राजेन्द्र चौधरी, मनोहर सिंह, लोकेश शर्मा, साध्वी प्रज्ञा, सुधाकर चतुर्वेदी, कर्नल पुरोहित और स्वामी असीमानंद व दयानंद पांडे के नाम गिनाए गए। क्या ये सब किसी एक संगठन के अनुशासन में उसकी एक योजना के तहत काम कर रहे थे? सरकार का एकमात्र लक्ष्य इन सब आतंकी घटनाओं का सूत्रधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सिद्ध करना था ताकि संघ के बहाने भाजपा पर प्रहार किया जा सके। किंतु साध्वी प्रज्ञा, दयानंद पांडे और स्वामी असीमानंद को संघ का स्वयंसेवक सिद्ध नहीं किया जा सकता था। संघ और भाजपा के कुछ नेताओं से उनकी व्यक्तिगत परिचय भले ही हो पर दैनिक शाखा का स्वयंसेवक तो नहीं कहा जा सकता। यह तो बहुत शर्मनाक है कर्नल पुरोहित तो सेना के गुप्तचर विभाग में अधिकारी हैं। उनका कहना है कि सेना ने ही उन्हें जिहादी आतंकवाद को कुंठित करने का काम सौंपा था और इसी आदेश का पालन करने के लिए वे 'अभिनव भारत' नामक एक चरमपंथी संगठन से जुड़ गये थे और अपनी समस्त गतिविधियों की जानकारी सैन्य अधिकारियों को देते रहे थे। स्पष्ट है, उनकी गतिविधियों का सेना की आतंकवाद विरोधी गतिविधियों के रूप में देखा जाना चाहिए। सरकार की जांच समितियों द्वारा कर्नल पुरोहित को आरोपित किये जाने के बाद सेना ने भी उनके बारे में अपनी जांच समिति बैठायी। कर्नल पुरोहित ने अपनी गतिविधियों के बारे में एक गोपनीय रपट दी। इस रपट में उन्होंने साध्वी प्रज्ञा, दयानंद पाण्डे और सुधाकर चतुर्वेदी का नाम तो लिया, पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक बार भी नहीं। 1 जुलाई, 2012 के हिन्दुस्तान टाइम्स में कर्नल पुरोहित का जो साक्षात्कार छपा है, वह उनकी भूमिका को स्पष्ट कर देता है। इस साक्षात्कार में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि 'अभिनव भारत' में सेना द्वारा दिये गये दायित्व का निर्वाह कर रहा था। सेना द्वारा गठित जांच न्यायालय के सामने उनकी इस गोपनीय रपट को प्रस्तुत किया। इस रपट से पता चलता है कि अक्तूबर, 2007 तक देवलाली में सेना के गुप्तचर विभाग में कार्य करते समय उन्होंने सुधाकर चतुर्वेदी का उपयोग अपने सूचना वाहक (इन्फामर) के रूप में किया। वहां से स्थानांतरण होने पर चतुर्वेदी को अपने उत्तराधिकारी को सौंप दिया। सरकार ने सबसे अधिक दुरुपयोग डांग के वनवासियों में अत्यधिक लोकप्रिय स्वामी असीमानंद की गिरफ्तारी कर किया। दिसम्बर, 2010 में उनके एक इकबालिया बयान के आधार पर संघ के एक वरिष्ठ कार्यकर्त्ता इंद्रेश कुमार एवं पूर्व प्रचारक सुनील जोशी को सब आतंकवादी गतिविधियों का सूत्रधार घोषित कर दिया। पर स्वामी असीमानंद ने उस बयान को अस्वीकार कर दिया है और उसे पुलिस दबाव में दिया गया बताया है। यदि उस बयान को सच्चा मान भी लें तो वहां भी स्वामी जी ने कहा है कि देश भर में बाजारों, नागरिकों और धर्मस्थलों पर जिहादी हमलों की प्रतिक्रिया में उन्होंने आतंकवाद निरोधक उपाय के रूप में आतंकवाद का रास्ता अपनाया। 'मंथन' में उसी समय उस बयान के आधार पर एक लेख लिखा गया था। क्या भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आतंकवाद की ट्रेनिंग के शिविर चलाने का आरोप लगाने वालों को यह छोटी-सी बात समझ में नहीं आती कि यदि संघ ऐसी 'ट्रेनिंग' देता है तो क्या वह 10-12 आतंकवादी ही खड़े कर पाता? यदि जिहादी आतंकवाद की प्रतिक्रिया में संघ कोई योजना बनाता तो क्या वह भारत के चार-पांच नगरों तक ही सीमित रह जाती? लगभग 40,000 शाखाओं और लाखों स्वयंसेवकों वाला संघ क्या जुम्मे (शुक्रवार) की नमाज के दिन अनेक मस्जिदों में विस्फोट की योजना नहीं बना सकता था? यदि जिहादी आतंकवाद आधुनिकतम शस्त्र जुटा सकते हैं तो क्या संघ यह नहीं कर सकता? तब क्या ये तथाकथित हिन्दू आतंकवादी देशी बम बनाते-बनाते मर जाते? यदि हिन्दू समाज का मानस आतंकवादी होता तो क्या 80 करोड़ जनसंख्या के हिन्दू समाज में से मात्र 10-12 आतंकवादी ही मैदान में दिखायी देते? पर, तुच्छ राजनीतिक स्वार्थ से अंधे राजनीतिज्ञों के मस्तिष्क में ये सवाल उठे भी क्यों? उन्हें तो यह भी नहीं सूझता कि पहले उन्होंने ही पूरी दुनिया के सामने इन आतंकवादी घटनाओं के लिए पाकिस्तान प्रेरित जिहादियों को जिम्मेदार ठहराया था, और अब 'हिन्दू आतंकवाद' का राग अलाप कर वे अपनी और अपनी जांच एजेंसियों की ही हंसी उड़वा रहे हैं।

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