एक योद्धा संन्यासी का आध्यात्मिक शंखनाद
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आध्यात्मिक शंखनाद
गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने फ्रांसीसी विद्वान रोमा-रोलां से कहा था कि अगर तुम्हें भारत को पूरी तरह समझना है तो स्वामी विवेकानंद के जीवन संदेश और कृतित्व को समझो। स्पष्ट है कि स्वामी विवेकानन्द का जीवन एक ऐसे महाग्रंथ की तरह पुस्तकों और संदेशों के रूप में हमारे बीच मौजूद है, जो न केवल भारतीय समाज व संस्कृति का आत्मिक स्वरूप प्रकट करता है बल्कि संपूर्ण मानवता की वास्तविक तस्वीर भी उजागर करता है। ऐसी विराट और विलक्षण विभूति स्वामी विवेकानंद के जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। हर लेखक और विचारक उन्हें अपने दृष्टिकोण से विश्लेषित करता है और नए निष्कर्षों पर पहुंचता है, फिर भी उन पर पुस्तकें आती रहती हैं। हाल में ही मराठी लेखक वसंत पोतदार की पुस्तक 'संन्यासी योद्धा' का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित होकर आया है।यह पुस्तक वास्तव में न तो स्वामी विवेकानन्द की जीवनी है और न ही केवल उनके उपदेशों को सामने लाती है, बल्कि इसमें उनके जीवन के कुछ ऐसे अनछुए पहलुओं की जानकारी मिलती है जो रोचक होने के साथ ही प्रेरणास्पद भी हैं। पुस्तक के पहले खण्ड 'परमहंस: एक संक्षिप्त परिचय' में स्वामी विवेकानंद के गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस के विलक्षण व्यक्तित्व के अनेक आयामों को प्रस्तुत किया गया है। इसे पढ़ते हुए यह अहसास होता है भारत भूमि पर स्वामी रामकृष्ण परमहंस का अवतरण स्वामी विवेकानंद को मार्गदर्शन देने के लिए ही हुआ था और स्वामी विवेकानंद का अवतरण स्वामी रामकृष्ण परमहंस के स्वप्न को साकार रूप देने के लिए हुआ था। नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) को परमहंस के सान्निध्य में कैसे-कैसे अनुभव हुए इनका रोचक वर्णन भी इस अध्याय में है। पुस्तक के दूसरे अध्याय में स्वामी विवेकानन्द के उन विचारों को कथाक्रम और घटनाक्रम के आधार पर रोचक ढंग से संकलित किया गया है जिनमें उन्होंने धर्म, धार्मिकता और अधर्म की गूढ़ कहीं हैं। लेखक ने वे सब बातें सरल ढंग से व्याख्यायित की हैं। रोचक औपन्यासिक शैली में इसमें स्वामी जी की देश के विभिन्न भागों में की गई यात्राओं, वहां उनके द्वारा दिए गए धर्म के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या और उनके विश्वधर्म सम्मेलन के लिए प्रयाण तक की यात्रा का वर्णन किया गया है। कन्याकुमारी के शिलाखण्ड पर समाधिस्थ होकर उनके द्वारा भारत के कल्याण की चिंतन यात्रा, अदभुत और अभूतपूर्ण रही थी। उसका भी इस खण्ड में सुन्दर वर्णन है।पुस्तक के तीसरे अध्याय 'धर्म सम्मेलन में प्रवेश नहीं' में स्वामी जी के अमरीका गमन, वहां धर्म सम्मेलन में सम्मिलित होने से पूर्व उपस्थित कठिनाइयों, धर्म सम्मेलन में अद्भुत व्याख्यान, उसके बाद पूरे अमरीका में न केवल स्वामी जी की बल्कि हिन्दू धर्म की महानता किस तरह प्रतिष्ठित हुई, इन सबका विस्तार से वर्णन किया गया है। इसके बाद के अध्याय, 'किसी ने अगर तुम्हारी मां का अपमान किया तो?' में स्वामी जी के शिकागो से भारत लौटने तथा यहां उनके द्वारा सामाजिक सुधार के लिए शुरू किए गए कार्यों का वर्णन है। पांचवे अध्याय (विदेश यात्रा में पूर्व) में स्वामी तुरियानंद, भगिनी निवेदिता के साथ पुन: स्वामी विवेकानंद की पश्चिमी देशों की यात्रा का वर्णन किया गया है। हालांकि यह पुस्तक मराठी से अनूदित है लेकिन स्वामी विवेकानंद का दिव्य व्यक्तित्व और उनकी विलक्षण लौकिक यात्रा ऐसी थी कि अनुवादक की भाषा में एक रवानगी आती गई है। पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे वह सभी घटनाएं आंखों के सामने घटित हो रही हैं। कुल मिलाकर यह पुस्तक स्वामी विवेकानंद की महनता को जानने-समझने की उत्कंठा रखने वाले पाठकों के लिए किसी उपहार की तरह है। पुस्तक का नाम – योद्धा संन्यासी विवेकानंदलेखक- वसंत पोतदारअनुवादक – गंगाधर परांजपे प्रकाशकप्रभात पेपरबैक्स4/19, आसफ अली रोड, नई दिल्ली- 02मूल्य – 271 पृष्ठ – 104फोन – 23289555ईमेल – prabhatbooks@gmail.comचीन से रहो सावधानआमतौर पर यह माना जाता है कि पड़ोसी देशों में भारत के सबसे ज्यादा खराब सम्बंध पाकिस्तान से हैं। 1948, 65, 72 और फिर कारगिल युद्ध के साथ ही आतंकी गतिविधियों और घुसपैठ में पाकिस्तान की भूमिका को लेकर लाख कोशिशों के बावजूद संबंध सामान्य नहीं हो पाते हैं। लेकिन हमारे उत्तर-पूर्वी पड़ोसी देश चीन के साथ भारत के सम्बंध भी अप्रत्यक्ष रूप से कड़वे ही रहे हैं। कभी 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' के नारे के पीछे छिपे विश्वासघात के जरिए, कभी सिक्किम पर अपना आधिपत्य जमाने को लेकर तो कभी अरुणाचल प्रदेश में अनैतिक प्रवेश तो कभी तिब्बत को लेकर भारत पर आरोप मढ़ने वाले चीन की भूमिका हमेशा ही अविश्वसनीय रही है। लेकिन इसे भारत का दुर्भाग्य कहना चाहिए कि पिछले 65 वर्षों में राजनीतिक-कूटनीतिक स्तर पर कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाया गया, जिससे चीन को हमारी शक्ति का आभास होता या फिर वह हमारी सहनशीलता को कायरता न समझता। भारत के चीन के साथ संबंधों का तथ्यात्मक विवेचन करती पुस्तक 'भारत-चीन संबंध और तिब्बत मुक्ति साधना' कुछ समय पूर्व प्रकाशित होकर आई है। जाने-माने पत्रकार प्रो. कुलदीप चंद अग्निहोत्री के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों को इसमें संकलित किया गया है। इन लेखों को 6 खण्डों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक खंड में संकलित लेख अलग-अलग दृष्टियों से भारत-चीन संबंधों को विश्लेषित करते हैं। पहले खण्ड के पांच लेखों में तिब्बत को लेकर भारत-चीन सम्बंधों के बनते-बिगड़ते संबंधों का विवेचन है। 'नेहरू की तिब्बत नीति: एक विश्लेषण' में लेखक कहते हैं,' चीन के प्रति नेहरू की नीति प्रत्यक्षत: तुष्टिकरण की ही थी। वह चीन को हर प्रकार से तुष्ट करना चाहते थे, क्योंकि उनकी दृष्टि में उनके सपनों में उनका दूसरा साथी चीन ही हो सकता था। नेहरू चीन को साथ लेकर एक नए विश्व के निर्माण का सपना देख रहे थे।…लेकिन नेहरू का यह सपना कभी पूरा नहीं हुआ बल्कि इसका फायदा उठाते हुए चीन ने हमेशा भारत से विश्वासघात किया और आज भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में फुंफकारता रहता है।' दूसरे खंड में संकलित लेखों में लेखक ने भारत सरकार को उसका संकल्प याद दिलाया है, साथ ही आशंकाओं का भी विश्लेषण किया है, जो चीन को दोबारा भारत पर हमला करने की स्थिति निर्मित कर रहे हैं। वे बार-बार सरकार की ढुलमुल और कायरतापूर्ण नीति को कटघरे में खड़ा करते हैं, जो चीन की चर्चा करते ही कन्नी काटने लगती है।पुस्तक के तीसरे खण्ड में कुल चार लेख हैं। इनमें ली फंग की भारत यात्रा, दलाई लामा की ताईवान यात्रा, भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की चीन यात्रा और चीनी राष्ट्रपति हू जिन्ताओ की भारत यात्रा के निर्हितार्थों और उनसे उपजने वाले सवालों को रेखांकित किया गया है। पुस्तक के पांचवें खण्ड में संकलित तीन लेखों में अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन की नीयत का पर्दाफाश किया गया है। कई तथ्यों के हवाले से लेखक ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि चीन अनैतिक तरीके से और बलपूर्वक अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा मानने की साजिश रचता रहता है। इसकी एक प्रमुख वजह हमारी सरकार की अतिसदाशयता भी है। पुस्तक के अगले खण्ड में तिब्बत को लेकर चीन की अनैतिक नीति का खुलासा किया गया है। तिब्बत को अपने कब्जे में करने के लिए वहां उसके द्वारा चलाई गई दमनात्मक और अमानवीय हिंसा इस बात को प्रमाणित करती है कि चीन साम्राज्यवादी नीति को ही सर्वोपरि मानता है। इस विषय पर भारत की निष्क्रियता और तिब्बत द्वारा भारत की तरफ आशा भरी दृष्टि से देखने को लेखक ने विस्तार से बताया है। यह पुस्तक वास्तव में आजादी के बाद से लेकर अब तक भारत-चीन संबंध को समझने में बहुत महत्वपूर्ण है। पुस्तक का नाम – भारत-चीन संबंधऔर तिब्बत मुक्ति साधनालेखक -कुलदीप चन्द अग्निहोत्रीप्रकाशक -लोकहित प्रकाशनसंस्कृति भवन, राजेन्द्र नगर, लखनऊ-226004पृष्ठ – 217मूल्य – 100 रुपए
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