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एक स्त्री की जिंदगी हर कदम नए विमर्श और नए संघर्ष से दो-चार होती है। एक लड़की के रूप में उसके जन्म लेने पर उसकी लड़ाई का स्वरूप दूसरी लड़ाइयों से भिन्न और विषम हो जाता है। इस लड़ाई के लिए स्त्री को प्रारंभ से ही तैयार करना चाहिए। जननी का रूप स्त्री को विशिष्ट बनाता है तो दायित्व निर्वाह की विशिष्टता भी उसी के हिस्से आती है। परिवार में संस्कारों की वाहिनी एक स्त्री ही होती है। आज जब आदर्शों और जीवन-मूल्यों का लगातार विघटन होता जा रहा है, दरिंदगी का चेहरा क्रूर से क्रूरतम होता जा रहा है, जीवन बद से बदतर होता जा रहा है, तब गहन आत्मावलोकन की आवश्यकता महसूस हो रही है। कुछ प्रश्न हमें अपने आपसे करने होंगे। एक मां के नाते हम अपने बच्चों के बारे में कितना जानते हैं? क्या हमें पता है कि उसका सबसे करीबी मित्र कौन है? स्कूल में अध्यापकों की उसके बारे में कैसी धारणा है? उसकी पसंद-नापसंद क्या है? वह अपना जेब-खर्च किस तरह इस्तेमाल करता है? वह स्कूल से सही समय पर घर आ जाता है या नहीं? इंटरनेट पर वह किस 'साइट' पर क्या जानकारी हासिल कर रहा होता है? बच्चों को उन्नत शिक्षा और बेहतर जीवन देने की कोशिश में कहीं हम अपने बच्चों से दूर तो नहीं होते जा रहे? उनके जीवन के संवेदनशील मोड़ पर हम उनके साथ खड़े तो हैं? उनके मन की जिज्ञासा शांत करने का सामर्थ्य हम में है भी या नहीं?
इसी प्रकार बेटी के रूप में लड़कियों को यह निर्णय लेना होगा कि वे अपनी मां से अपने जीवन के संवेदनशील मसलों पर ईमानदारी से चर्चा करें, वे अपनी मां पर भरोसा रखें और उससे गोपनीयता रखने के बदले अपनी समस्या उजागर करें। किसी प्रकार की उधेड़बुन को मां के समक्ष व्यक्त कर वे अपनी उलझनों के हल प्राप्त करें। आज जब दोनों ओर से समय का अभाव बराबर बना हुआ है तो यह दोनों की जिम्मेदारी है कि वे एक-दूसरे की व्यस्तताओं का सम्मान करते हुए खुद को अच्छे अवसर के लिए तैयार करें और आवश्यकतानुसार जरूरी मुद्दों पर सार्थक बात करें। किसी भी प्रकार की आपत्तिजनक स्थिति को कतई नजरअंदाज न करें।
सास और बहू के बीच का संबंध भी अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है। संबंधों की व्यापकता और गहनता इसी नाजुक रिश्ते से नापी जाती है। एक लडकी के सामने उसकी मां की भूमिका उसे बहू की वास्तविक भूमिका से परिचित कराती है। संयुक्त परिवार के बीच संबंधों के इंद्रधनुषी रंगों की ऊष्मा को बेहतर जाना जा सकता है। दादा-दादी जहां बाल मन में पौराणिकता के साथ जीवन-मूल्यों को रोपने की महती भूमिका निभाते हैं वहीं माता-पिता वर्तमान समय की चुनौतियों के प्रति उन्हें सजग करते हैं और व्यावहारिक बनाते हैं। दो पीढ़ियों के बीच रहकर लड़की ही नहीं लड़का भी मां, पत्नी, बहन और भाभी जैसे रिश्तों के माधुर्य को समझ पाता है। तब उसके सामने खड़ी कोई लड़की महज एक लड़की नहीं होती बल्कि वह किसी स्त्री को उसकी पूरी गरिमा के साथ जान पाता है।
एकल परिवारों के बच्चे अपनी निजता और अपनी पहचान के प्रति अतिरिक्त सजग होते हैं जबकि हमारी संस्कृति अपनी पहचान खोकर खुद को सार्थक होने में विश्वास करती है। थोड़ी-सी ऊंच-नीच की बात को सहन न कर पाने की संकल्पना में पली-बढ़ी आज की पीढ़ी हार में जीत, खोने में पाने की खुशी के सिद्धांत को कहां समझ सकती है? आया के बूते पलने वाले बच्चे मां की इच्छा पर अपना रक्षा-कवच न्योछावर कर देने वाले कर्ण के दान का मोल क्या समझेंगे? समय निश्चित रूप से बदल रहा है। हमारी संस्कृति की विराटता पर हर तरफ से प्रहार हो रहा है। संस्कारों के जिस उद्दात्त स्वरूप को जानने दुनिया के देश हमारे भारत में खिंचे चले आते रहे, जिसके दर्शन और चिंतन पर पूरी दुनिया चकित होकर शोध करती रही है, आज उसकी भव्यता और विराटता खतरे में है। जिस देश में नारी की पूजा की जाती रही और जिस कारण यहां देवताओं का वास माना जाता रहा, उस गरिमामय देश की अस्मत लूटने आज उसके ही बेटे सड़कों पर उतर आए हैं। निश्चित रूप से यह अत्यंत खतरनाक स्थिति है। इसकी रक्षा हम सबका दायित्व है। आइए, व्यवस्था को कोसने के बदले हम स्वयं इसकी रक्षा के लिए आगे आएं।
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