कश्मीर में सुनाई दिया अलगाववादी सुर
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नरेन्द्र सहगल
देशद्रोही हमलावर अफजल को फांसी
अफजल को इतनी देर से दी गई फांसी की वजह
कांग्रेस की कमजोर मानसिकता
समस्त देशवासियों और विपक्षी दलों के भारी दबाव की वजह से भारत की संसद पर हुए आतंकी हमले के मुख्य षड्यंत्रकारी अफजल को देर सवेर फांसी पर लटका ही दिया गया। पाकिस्तान की धरती पर कार्यरत विश्वविख्यात आतंकी संगठन जैशे मुहम्मद की योजना के तहत अंजाम दिए गए इस जिहादी आपरेशन के पांच आतंकियों को संसद पर तैनात हमारे नौ सुरक्षा जवानों ने अपने बलिदान देकर मार गिराया था। 13 दिसम्बर, 2001 को किए गए इस खतरनाक दुस्साहस का उद्देश्य भारत सरकार और सभी सांसदों को बंधक बनाकर कथित कश्मीर समस्या पर अपने तरीके अर्थात् पाकिस्तान के एजेंडे के अनुसार कदम उठाने के लिए भारत सरकार को बाध्य करना था। इस आतंकी हमले के विफल हो जाने से पाकिस्तान और कश्मीर स्थित अलगाववादियों के सभी मंसूबे भी धराशायी हो गए परंतु कश्मीर में लड़ी जा रही हिंसक जंगे आजादी का मुद्दा एक बार फिर विश्व स्तर पर गरमा गया। इसी पाकिस्तान प्रायोजित दहशतगर्दी के बाद भारत और पाकिस्तान की सेनाएं सरहदों पर आमने-सामने खड़ी हो गईं।
अपने जन्मजात उद्देश्य और स्वभाव के अनुसार ही पाकिस्तान ने इस हमले के सूत्रधारों की पाकिस्तान में मौजूदगी से इनकार कर दिया। जैशे मुहम्मद से संबंधित आतंकी सरगना अफजल को कश्मीर घाटी के एक सुरक्षित ठिकाने से गिरफ्तार करके भारतीय कानून-व्यवस्था के हवाले कर दिया गया। एक विशेष अदालत ने 2002 में अफजल को फांसी की सजा सुनाई और 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस सजाए मौत पर मोहर लगा दी। वास्तव में तो उसी समय अफजल को फांसी देकर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का माकूल जवाब दिया जाना चाहिए था। जिस तरह का सैनिक हस्तक्षेप पाकिस्तान ने किया था उसका उत्तर तो उसी समय आर-पार की सैनिक कार्रवाई के साथ देने से तो हम चूके ही परंतु हमारी सरकार ने अफजल की फांसी को इतने वर्षों तक लटकाए रखकर पाकिस्तान समेत पूरी दुनिया को अपनी कमजोर मानसिकता और राजनीतिक स्वार्थों के गटर में डूब चुकी इच्छाशक्ति का ही परिचय दिया। हमारी यही ढुलमुल नीति पाकिस्तान और आतंकवादियों को बल प्रदान करती है। इसी का परिणाम है भारत के भीतरी इलाकों में होने वाले आतंकी हमले और इसी नीति का नतीजा है कि पाकिस्तानी फौजी सीमा पर तैनात हमारे वीर सैनिकों के सर काट कर अपने देश में ले जाते हैं।
कांग्रेसी सत्ताधारियों के प्रत्येक फैसले का आधार
मजहबी तुष्टीकरण की राजनीति
अफजल की फांसी से सभी देशवासी प्रसन्न हैं। प्राय: सभी राजनीतिक दलों ने खुशी जाहिर की है। परंतु सत्ताधारी दल और मुख्य विपक्षी नेता के मध्य प्रारंभ हुई राजनीतिक तकरार और आरोपों-प्रत्यारोपों की स्पर्धा चिंताजनक ही नहीं अपितु राजनीतिक शिष्टाचार और नैतिकता पर आघात भी है। वर्षों तक फांसी को रोके रखने वाले सत्ताधारी अब इस फांसी के बाद अपने खोए हुए वजूद को प्राप्त करने के लिए सक्रिय हो गए हैं। मुख्य विपक्षी दल भाजपा पर पलटवार करने के लिए कंधार कांड जैसे पुराने मुद्दे उभारे जा रहे हैं जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने करीब 150 यात्रियों की जान बचाने के लिए तीन आतंकियों को छोड़ने का फैसला सभी दलों द्वारा लिए गए सर्वसम्मत फैसले के बाद लिया था। विचारणीय बात तो यह है कि प्रत्येक आतंकी हमले के बाद अपनी विफलता और कमजोर इच्छाशक्ति को छुपाने के लिए कांग्रेस के नेता इसी घटना का रोना रोते हैं। पोटा जैसे सख्त आतंक विरोधी कानून को समाप्त करना, बार-बार कश्मीरी आतंकियों एवं अलगाववादियों के आगे घुटने टेकना, गिलानी जैसे पाकपरस्त कश्मीरी नेताओं को राजधानी दिल्ली में आकर पाकिस्तान के समर्थन की बोलने की इजाजत देना और सरकारी वार्ताकारों द्वारा कश्मीर के अलगाववादियों के एजेंडे पर आधारित रपट तैयार करवाना इत्यादि कदम कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हुए हैं।
कांग्रेसी सत्ताधारियों की इन घुटनाटेक नीतियों से देश की अखंडता और सुरक्षा ही खतरे में पड़ गई है। सोनिया निर्देशित सरकार को आने वाले दिनों में देश की जनता के इस सवाल का सामना करना पड़ेगा कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अफजल की फांसी की पुष्टि कर देने के बाद भी इतने वर्षों तक फांसी का फंदा क्यों तैयार नहीं हुआ? प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारों को फांसी पर लटकाने में तत्परता दिखाने वाला साहस संसद पर हमला करने वालों पर क्यों नहीं दिखाया गया? अभी भी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी देने में देरी क्यों की जा रही है? आतंकवाद और आतंकवादियों पर राजनीति करके राष्ट्र के स्वाभिमान और सुरक्षा को दांव पर लगाने वाले कांग्रेसी नेता अपने वोट बैंक की चारदीवारी में ही सोचते और हरकत करते हैं। वोट बैंक की यही राजनीति कश्मीर समेत देश की सुरक्षा से जुड़ी हुईं अनेक समस्याओं का समाधान नहीं करने देती है। अफजल की फांसी के बाद कश्मीर घाटी में हो रही प्रतिक्रिया इसी मजहबी तुष्टीकरण का परिणाम है।
भविष्य में आतंकी हमलों का आधार बनेगा
मुख्यमंत्री का अलगाववादी बयान
भारत की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था संसद से सीधे टकराकर कश्मीर की आजादी का झंडा फहराने जैसी देशद्रोही जघन्य हरकत के असली गुनाहगार अफजल को दी गई सजाए मौत के बाद कश्मीर घाटी में अलगाववादी तेवर भड़कने के कयास लगाए जा रहे हैं। नब्बे के दशक में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के संस्थापक मकबूल बट्ट को दिल्ली की तिहाड़ जेल में दी गई फांसी के बाद भी कश्मीर घाटी में इसी तरह का उन्माद भडका था। भारत की अखंडता और अस्मिता के साथ जुड़े प्रत्येक मुद्दे का हिंसक विरोध करना कश्मीर में सक्रिय अलगाववादियों/आतंकवादियों का हथियार है। खतरनाक तथ्य यह है कि भारत राष्ट्र से संबंधित ऐसी प्रत्येक घटना के बाद कश्मीर केन्द्रित सभी राजनीतिक दल अलगाववादियों के एजेंडे का समर्थन करके भारत सरकार और सेना का विरोध शुरू कर देते हैं। कांग्रेस समर्थन प्राप्त सत्ताधारी नेशनल कांफ्रेंस और मुख्य विपक्षी दल पीडीपी के नेता उन कट्टरवादी और पाकिस्तान समर्थक संगठनों की पीठ पर हाथ रख देते हैं जो भारत की संसद, संविधान और राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार नहीं करते।
अफजल की फांसी के बाद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा, 'इससे आम कश्मीरियों में राष्ट्र की मुख्यधारा से विमुखता की भावना और भी ज्यादा मजबूत होगी।' उमर ने तो आगे बढ़कर भारत को चुनौती जैसी दे दी कि फांसी दिए जाने के कश्मीर में दूरगामी परिणाम होंगे। इस तरह भारतीय संविधान के तहत मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे उमर अब्दुल्ला ने भारत सरकार, सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रपति को ही कटघरे में खींच लिया है। उमर के बयान का सीधा और साफ अर्थ यही है कि कश्मीर घाटी में होने वाले हिंसक उपद्रव पूर्णतया जायज हैं और ये तब तक जारी रहेंगे जब तक भारत सरकार यह साबित नहीं करती कि यह फैसला सियासी नहीं था। पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने भी अफजल की फांसी को 'सर्वथा अनुचित' बता दिया है और हुर्रियत कांफ्रेंस ने तो चार दिन की हड़ताल के बाद भी बवाल को जारी रखने की हिदायतें जारी कर दी हैं। गौरतलब है कि एनसी और पीडीपी सहित ये सभी वही तत्व हैं जिन्होंने श्री अमरनाथ यात्रा आंदोलन के समय कश्मीर को 'स्वतंत्र राष्ट्र' कहा था।
कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस दोनों कर रहे हैं
आतंकवाद पर देशघाती राजनीति
भारत विरोधी अलगाववादी शक्तियों को बल प्रदान करने के लिए उमर अब्दुल्ला की सरकार ने कश्मीर में तैनात सीआरपीएफ को बलहीन करने की साजिश ही रच डाली है। जम्मू-कश्मीर पुलिस के आईजी शिवमुरारी ने आदेश दिया है कि हिंसक भीड़ का सामना करते समय बंदूक इत्यादि अग्नि अस्त्र का इस्तेमाल न किया जाए। यह वही पुलिस प्रमुख हैं जिन्होंने अफजल की फांसी के तुरंत बाद अतिरिक्त अर्धसैनिक बलों की जरूरत जताई थी। जाहिर है कि सख्ती न करने का यह अचानक निर्देश उमर अब्दुल्ला की अलगाववादी सियासत का हिस्सा है। गोली न दागने का यह आदेश उस समय आया है जब जारी उपद्रवों में सौ से ज्यादा सुरक्षा जवान घायल हो चुके थे, लगभग चार दर्जन वाहन क्षतिग्रस्त हो गए और तीन बेकसूरों की जान जा चुकी थी (यह लिखने तक)। केन्द्र सरकार की लापरवाही और प्रदेश सरकार की सोची-समझी राजनीति के कारण कश्मीर घाटी का माहौल सन् 2010 में हुई पत्थर हिंसा जैसा बनता जा रहा है। उस समय भी प्रदेश की सरकार ने सुरक्षा जवानों को ऐसे ही 'चुपचाप सहने' के निर्देश दिए थे। सर्वविदित है कि कश्मीर केन्द्रित राजनीतिक दल, सभी अलगाववादी गुट और कट्टरवादी मजहबी संगठन प्रारंभ से ही भारतीय सुरक्षा बलों को हटाने और इनके विशेषाधिकारों को निरस्त करने की मांग उठा रहे हैं। यह सब कुछ पाकिस्तान की योजना और इशारे से ही हो रहा है।
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अलगाववादी कश्मीरियों की कथित भावनाओं का खास ख्याल रखते हुए अफजल को '43 वर्ष का युवा कश्मीरी' कहकर अपनी हमदर्दी जाहिर की है जबकि वे भी जानते हैं कि संसद पर हुए हमले में शहीद हुए नौ जवानों में से छह जवान तो अफजल से भी बहुत छोटे थे। उमर की दुविधा यह है कि कांग्रेस की तरह उन्हें (एनसी) भी मुस्लिम समाज के थोक वोट चाहिए। इसलिए कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस दोनों द्वारा अलगाववादियों के प्रति सहानुभूति रखना उनकी राजनीतिक जरूरत है। देश, संविधान और संसद जाए भाड़ में। यहां एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा होता है कि पहले कसाब और अब अफजल की फांसी को लटकाने वाले सत्ताधारियों को अचानक फांसी देने का यह ख्वाब कैसे आ गया? इस सवाल का जवाब उत्तर प्रदेश के मंत्री और कट्टरवादी मुस्लिम नेता आजम खां के शब्दों में पढ़ा जा सकता है कि अफजल को फांसी इसलिए हुई ताकि कांग्रेस को भरोसा है कि इससे भाजपा के तरकश के तीर को जंग लग जाएगा।
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