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गाय रहे जीवित इसमें सबका हित

by
Dec 7, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Dec 2013 17:08:50

गाय रहे जीवित इसमें सबका हित

ँप्राचीन काल में ऋषियों के आश्रम में आजकल की तरह विलासिता की चीजें भले ही न रही हों किन्तु प्रत्येक आश्रम में गोधन विपुलायत में दृष्टिगोचर होता था। दिन भर हरित-तृण चरकर वन से वापस लौटने का वर्णन ह्यकालिदासह्ण ने बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है।

अपांसुलानां धुरि कीर्तनीया

मार्ग मनुष्येश्वर धर्म पत्नी।

तस्या: खुरन्यासपवित्रपांसुं

श्रतेरिवार्थें स्मृतिरन्वगन्च्छत्।।

वन से चरकर लौटती हुईं गायों के खुरों से उड़ती हुई गोधूल से समस्त ग्राम का ढक जाना हमारे सौभाग्य और श्री का सूचक माना जाता था। तभी से संध्याकाल को ह्यगोधूलि वेलाह्ण, कहा जाने लगा। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय गायों की संख्या कितनी अधिक थी। गरीब से गरीब व्यक्ति भी कुछ न कुछ गायों को पालने का श्रेय अवश्य प्राप्त करता था। तभी तो एक कहावत प्रसिद्ध है कि इस देश में दूध की नदियां बहती थीं। किन्तु आज वे नदियां कहां है?ह्ण

हिन्दुओं के प्रत्येक संस्कार, पूजन, यज्ञादिकर्म गोदुग्ध से ही सम्पन्न होते रहे हैं। जब बालक का जन्म होता था तब माता का दूध पिलाने से पूर्व गोमाता का दूध दिया जाता था। अंतिम समय में जब शरीर अग्नि-मुख को समर्पित हो जाता था तो उसके पश्चात चिता का सिंचन गोदुग्ध छिड़क कर ही किया जाता था, आज भी यत्र-तत्र इसका             प्रचलन है।

भारत एक कृषि प्रधान देश होने के कारण इसकी उन्नति गोवंश पर आधारित है। कितने ही यंत्र, ट्रैक्टर आदि साधनों का अनुसंधान हो जाए किन्तु जो गरीब किसान बैलों से अन्नोपार्जन कर सकता है वह आधुनिक संसाधनों से संभव नहीं। आज यूरिया खाद से शुद्धतम् गोबर की उर्वरक खाद है, जो गोवंश से ही संभव है। यूरिया खाद जिस खेत में एक बार डाल दी जाती है, दुबारा उससे भी अधिक डालनी पड़ती है और परिणामत: खेत की उर्वरा शक्ति कमजोर पड़ जाती है। लेकिन गोबर से ऐसा नहीं होता है। गोदुग्ध सेवन से स्वस्थ मस्तिष्क और स्वस्थ शरीर का विकास होता है। यह मोटापा (अतिरिक्त बढ़ी हुई चर्बी, मांसादि) को घटाकर दुर्बल शरीर को सबल और सुन्दर बना देता है। 

यूयं गावो मेदयाथा कृशंचिद 

श्री रंजितं कुणुथासुप्रतीकम्।।

(अथर्व 4-21-6)

गोदुग्ध से  ह्ययक्षमाह्ण (क्षयरोग) जैसी घातक व्याधि भी नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार गोमूत्र में नाना प्रकार के गुण प्राप्त होते हैं।

ह्यमूत्रे गंगादयोनद्या:ह्ण, गोमूत्र में गंगा आदि नदियों का वास माना गया है। इसमें उदर, मुख, नेत्र और कर्म आदि रोगोंं को समन करने की अद्भुत क्षमता है। सबसे विलक्षणता इसमें यह है कि कैसा भी विष क्यों न हो, इसमें तीन दिनों तक पड़े रहने से शुद्ध हो जाता है।ह्ण

गोमूत्र त्रिदिनं स्थाप्य 

विषं तेन विशुध्यति।।

गोबर के लेपन से प्लेग और हैजे तक के कीटाणु मर जाते हैं ऐसा कई यूरोपीय वैज्ञानिकों ने सिद्ध भी किया है, जबकि हमारे ऋषियों ने इसे बहुत पहले ही समझ लिया था। जब पूतना को मारने के लिए श्रीकृष्ण ने उसके वक्षस्थल पर लेटकर स्तनपान कर प्राणों का हरण कर लिया तब वह धराशाही हो गई, उसके वक्ष पर खेलते हुए यशोदा ने अपने लाल को उठाकर गोद में लेटाकर उनके चारों ओर गोपुच्छ घुमाया, (गो का पृष्ठ भाग अग्न भाग की अपेक्षा अधिक पवित्र माना गया है) और गोमूत्र से स्नान कराया, गोरज का सब अंगों में मर्दन किया तथा समस्त शरीर पर गोबर का लेपन किया।)

गोमूत्रेण स्थापयित्वा पुनर्गोरजसार्मकम्।

रक्षां चक्रुश्च शकृता छादशाङ्ेषुनामभि:।।

(श्रीमद भागवत 10-6 20)

शास्त्रों में गो ह्यदयाह्ण और बैल ह्यधर्मह्ण के अवतार कहे गए हैं। गो छह जगह से उन्नत और पांच जगह से निम्न शरीर वाली होती है। उसके प्रत्येक अंग-अंग में देवताओं का वास होता है इसलिए यह तीनों लोकों में पूज्य मानी गई है। गो के छ: अंग  गोमय, रोचना, मूत्र, दुग्ध, दधि, और घृत में अत्यन्त पवित्र और संशुद्धि के कारण माने गए हैं।

पलंमायन्तु गोमूत्रमंगुष्ठार्धन्तु गोमयम।

क्षीरं सप्त पलं ग्राह्मं 

दधि त्रिपल मीरितम्।।

सपिस्त्वेकपलिंदेयंमुदकं पलमात्रकम।

सर्वमेतत ताम्रपात्रे 

स्थितं कुयद्यिथाविधि।।

ह्यपंचगव्यार्थ ह्यतृणं चरन्ती अमृतं क्षरन्तीह्ण, अर्थात् जो गो वन में प्राकृतिक विशुद्ध तृण खाती है उसी के गव्य पदार्थ पंचगव्य में ग्राह्य हैं। घी, गोमूत्र, दही, दूध, गोमय का आधा भाग कुशोदक के भाग में सभी को एकत्रकर मिश्रित करने से पंचगव्य तैयार हो जाता है। पूर्व जन्म में किए कर्म से जब इस जन्म में कोई असाध्य व्याधि इस शरीर में लग जाती है तो उसे अस्थिगत पाप (रोग) कहा गया है, वह सभी पंचगव्य के सेवन से नष्ट हो जाते हैं। यथा-

यद्-यद् अस्थगतं पापं 

देहे तिष्ठति मामके।

प्राशनात पंचगव्यस्य दहत्यग्निरिवेन्धनम्।

पीले रंग की गाय का दूध, नीले रंग की गाय का दही, लाल रंग की गाय का मूत्र, श्वेत रंग की गाय गोमय तथा घृत प्रत्येक गाय का उत्तम माना गया है। कपिला गो के पांचो द्व्य उत्तम माने गए हैं। ब्राह्मण और गो एक ही कुल के दो भाग हैं। ब्राह्मणों के हृदय में मंत्र तो गायों के हृदय में छवि रहती है। जिस समय देवता और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो उसमें से अमृत के साथ ही पांच कामधेनु गो भी निकलीं। भगवान विष्णु ने उन गायों को यथा योग्य समझकर पांच ऋषियों में वितरित कर दिया। नन्दा जमदग्नि ऋषि को, सुभद्रा भारद्वाज को, सुरभि वशिष्ठ को सुशीला असित को और बहुला गौतम मुनि को प्राप्त हुईं।

क्षीरोदतोयसम्भूता या:, पुरामृतमन्थने। 

पंच गावछ शुभा: पार्थ पंचलोकस्यमातर:।।

नन्दा, सुभद्रा, सुरभि:, 

सुशीला बहुला इति।

एता लोकोप्रकाराय 

देवानां तर्पणाय च।।

जमदग्नि, भारद्वाज, 

वशिष्ठासित गौतमा:।

जगृहु: कामदा पंच 

गावोदत्ता: सुरैस्तत:।।

महर्षियों ने इन कामधेनु गायों को कभी अपने व्यक्तिगत कार्यों सुख-सुविधा के लिए नहीं प्रयोग किया यद्यपि यह सभी कामधेनु है सभी में अभीष्ट फल साधन की क्षमता है। समस्त भूमण्डल का गोवंश इन्हीं पांच गायों से ही उत्पन्न हुआ है। ऋषियों ने इन गायों को सदैव समाज के कार्य, देवताओं के यज्ञादि कार्य और पितरों के तर्पणादि कायोंर् में प्रयोग किया। इन गायों द्वारा आश्रम में किए जाने वाले अतिथ्य सत्कार को देखकर देवराज इन्द्र भी अचंभित रह जाते थे। एक बार जमदग्नि ऋषि के आश्रम में कार्तवीर्य अर्जुन जो पाताल लोक के राजा थे पधारे, ऋषि पत्नी ने कामधेनु के द्वारा राजा का सम्मान राजोचित ढंग से किया वैसे तो आश्रम में देखने को कुशासन के अतिरिक्त कुछ नहीं। किन्तु कामधेनु की इच्छा से उचित वैभव क्षणमात्र में  आ जाता है। राजा ने सोचा यह अद्भुत गाय है अत: आश्रम में नहीं, राजभवन में इसे ले चलना चाहिए और वह उसे बलात् लेकर चला गया। अंत में परशुराम के द्वारा वह मारा गया और गो पुन:आश्रम में आ गयी। ऐसे ही विश्वामित्र ने वशिष्ठ की कामधेनु प्राप्त करने की कुचेष्ठा की, परिणामत: परान्मुख होना पड़ा।

माता रुद्राणां दुहिता वसूनां।

स्वसाअदिव्तानाममृतस्य नाभि:।।

(ऋग्वेद)

रुद्र देवों की माता के रूप में यह समस्त संसार का कल्याण करने वाली वसुओं की पुत्री के रूप में समृद्धि दात्री तथा आदित्यों की बहिन के रूप में अंधकार से प्रकाश-लोक की ओर ले जाने वाली हैं। साक्षात् अमृतनाभि होने से यह अमरत्व का वरदान बिखेरती हैं।देश की समृद्धि और श्री वृद्धि के लिए गोवंश वृद्धि परम आवश्यक है। आज भी देश में लगभग 3000 कत्लखाने  हैं, जो सरकार से लाइसेंस प्राप्त हैं और प्रत्येक जगह लगभग 25000 से ज्यादा पशु प्रतिदिन निर्ममता से कत्ल कर दिए जाते हैं। कुछ लोग गो को मात्र व्यवसाय के लिए पालते हैं और उनका दूध निकाल कर छोड़ देते हैं। वह गाय फिर दर-दर टुकड़े खाने के लालच में घूमती रहती हैं। संध्या समय यह सोच कर वापस घर चली जाती है कि उसका बछड़ा घर पर भूखा बंधा होगा उसे दूध पान करा दें, किन्तु घर पहुंचते ही कृतघ्न गोपालक दूध निकालने के लिए पहले से ही तैयार बैठा होता है और दूध निकाल लेता है और बछड़ों को भूखा ही रखता है। अंत में इसके कारण कई बछड़े तो मर ही जाते हैं। गाय के कमजोर हो जाने पर वह कसाई के हाथों बेंच दी जाती हैं यह है आज के गो को गोमाता कहने वालों का उसके प्रति व्यवहार।

कुछ लोग गोवध को लेकर राजनीतिक लाभ उठाते हैं। देश को सर्वोच्च उन्नति के शिखर पर ले जाने की खोखली घोषणा करने वाले लोगों ने क्या कभी यह भी सोचा कि इस देश में जितने भी अवतार हुए वे सभी ह्यविप्र, धेनु, सुर, हित हुए हैं और गोधन की जब रक्षा होगी तभी देश खुशहाल हुआ। कैसी विडम्बना है कि जिस देश में पूर्ण गोवध बन्दी थी, वहां की सेकुलर सरकार आज गोवध को बढ़ावा दे रही हैं, इस तरह देश का उत्थान क्या संभव है? जब से गोवंश का नाश हुआ तबसे देश दूध की बूंद-बूंद के लिए तरस रहा है। आज अन्न की कमी भी इसी कारण है। निश्चित रूप से जब से भारत में गोवध की वृद्धि और गोपालन की असुविधा हुई है तभी से भयंकर दुख उपस्थित हो रहे हैं। यत्र-तत्र-सर्वत्र अशांति का साम्राज्य छाया हुआ है इसलिए इस देश के ऋषियों ने स्पष्ट रूप से घोषणा की थी- ह्यगवां हितं स्वात्महिताद वरिष्ठम्ह्ण अर्थात गो का हित साधन अपने हित से भी ज्यादा आवश्यक और श्रेष्ठ है। गोलोक वासी श्री शोभाराम जी के करुणायमय वचन आज याद आ जाते हैं।

लोक और परलोक शान्ति-

सुख; जिस गो पर निर्भर है।

कैसी बीत रही है उस पर; 

इसकी किसे फिकर है।। 

ओमप्रकाश द्विवेदी

 

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