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सम्पादकीय : आशाओं से बंधे अरविंद

by
Dec 28, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 28 Dec 2013 14:07:07

दिल्ली के जनता दरबार में कांग्रेस बीती बात है और अरविंद केजरीवाल आकर्षण के नए बिंदु। लेकिन बात इससे बड़ी और ज्यादा महत्वपूर्ण है। राजधानी में नई विधानसभा के गठन के पीछे त्रस्त जनता की अकुलाहट भी है और तालियों की गड़गड़ाहट भी। यह कोई ऐसी छोटी घटना नहीं जिसका संदेश सिर्फ तात्कालिक हो। दुनिया के सबसे युवा देश, सबसे बड़े लोकतंत्र में चेतावनी की घंटी बजी है। कांग्रेस की मरणासन्न राज्य इकाई के लिए इस घंटी में जहां गहरे विषाद की गूंज है वहीं भारतीय जनता पार्टी जैसी सैद्धांतिक पार्टी के लिए राजनीतिक शुचिता के स्तर को और ऊंचा उठाने की चुनौती।
वैसे यह भी कोई कम रोचक तथ्य नहीं कि योगगुरु रामदेव के आंदोलन से बौखलाकर सरकार ने जिस रामलीला मैदान में जनता पर आधी रात लाठियां बरसाई थीं वही मैदान भ्रष्टाचारी शासन के अंत की जमीन बना है। देशभर में भाजपा की लहर से भयभीत कांग्रेस आज अंतत: उसी ह्यआम आदमीह्ण से सटकर खड़ी दिखने की हताश कोशिश कर रही है जिसकी दुर्गति करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी।
हमेशा से स्पष्ट सिद्धांत और स्वच्छ विकल्प स्वस्थ लोकतंत्र के लक्षण हैं। हाल के विधानसभा चुनावों के बाद जनतंत्र की हवा में कुछ ऐसे ही शुभ संकेत हैं। दशकों से जिसका दम वंशवादी राजनीति के बंद कमरों और भव्य सभागारों में घुट रहा था वह लोकतंत्र फिर से जी उठा है। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के बाद आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल का जनता जनार्दन के बीच शपथ ग्रहण करना जनोन्मुख लोकतंत्र के पुनर्जीवन का लक्षण है। साथ ही यह इस बात की मुनादी भी कि मतदाता राजनीतिक समझ की परिपक्व राह पर बढ़ चला है। देश का राज किसी को पिताजी की विरासत की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी मिलेगा यह सोचने वालों के दिन संभवत: अब गए।
विधानसभा चुनाव में सफाए के बाद भ्रष्टाचार की पर्याय बन चुकी कांग्रेस के पास वैसे भी कोई चारा नहीं था मगर आम आदमी पार्टी को समर्थन के बाद तो पार्टी की स्थिति सांप छछूंदर की सी है। पूर्व सरकार में आला अफसरों में तबादलों की होड़, दफ्तरों में अधिकारियों के सामने फाड़ी जा रही सरकारी फाइलों की खबरें बता रही हैं कि मनमाने निजीकरण और निरंकुश ठेकेदारी के दम पर दिल्ली के विकास की जो तस्वीर दिखलाई गई उसमें गाढ़े भ्रष्टाचार के रंग भरे थे और आगे कई कलंक कथाएं खुलने वाली हैं।
बुरे को नकारना, अच्छे को स्वीकारना लोकतंत्र की परिपक्वता की यही राह है। नागरिकों के लिए समान दृष्टि रखने वाली साफ-सुथरी, राजनीतिक का स्वागत हो, अच्छे दलों, अच्छे लोगों के लिए जगह बने इससे किसे इंकार होगा? लोकतंत्र में निष्ठा रखते हुए आगे बढ़ना और फिसलन भरी इस राह पर नैतिक पतन ना होने देने का प्रण लेना, यह वह सूत्रवाक्य है जिसपर जनता, विशेषकर युवाओं ने मुहर लगाई है और जिसे समझना प्रत्येक राजनीतिक दल के लिए आवश्यक है।
वैसे, राज्यसत्ता की बागडोर संभालने के साथ ही आम आदमी पार्टी की जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं। लोकलुभावन वादों को पूरा करना एक चुनौती है। भ्रष्टाचार पर ताकतवर प्रहार करना एक परीक्षा और तुष्टीकरण की राजनीति से दूर रहना देश-समाज की जरूरत।
सत्ता के साथ ही सवालों का उभरना स्वाभाविक बात है। ह्यआपह्ण की वैचारिक पूंजी क्या है, उसके नियंताओं की प्रेरक शक्ति आत्मिक है अथवा आयातित और कठघरे में खड़ी कांग्रेस को साथ लेकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई कैसे लड़ी जाएगी, यह प्रश्न आज जनमानस में घुमड़ रहे हैं। इनके उत्तर ही तय करेंगे कि कांग्रेस का सफाया करने वाले नए विकल्प में कितना दम है और इसका व्याप कितना हो सकता है।
बहरहाल, आकांक्षाओं के तराजू पर, समर्थन के भ्रष्टाचारी आंकड़े का बाट लेकर अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में बदलाव के प्रतीक के तौर पर अपनी राजनीतिक यात्रा आरंभ की है। भले ही विडंबनाओं व भ्रम के साथ, एक नई शुरुआत हुई और इसका स्वागत है।

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