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यह वही भूमि है, जो पवित्र आर्यावर्त में पवित्रतम मानी जाती है। यह वही ब्रह्मावर्त है, जिसका उल्लेख हमारे महर्षि मनु ने किया है। यह वही भूमि है, जहां से आत्म-तत्व की उच्चाकांक्षा का वह प्रबल स्त्रोत प्रवाहित हुआ है, जो आने वाले युगों में , जैसा कि इतिहास से प्रकट है, संसार को अपनी बाढ़ से आप्लावित करनेवाला है। यह वही भूमि है, जहां से उसकी वेगवती नद-नदियों के समान आध्यात्मिक महत्वाकांक्षाएं उत्पन्न हुईं और धीरे-धीरे एक धारा में सम्मिलित होकर शक्तिसम्पन्न हुईं और अन्त में संसार की चारों दिशाओं में फैल गयीं तथा वज्र ध्वनि से उन्होंने अपनी महान शक्ति की घोषणा समस्त जगत में कर दी । यह वही वीर भूमि है, जिसे भारत पर चढ़ाई करनेवाले शत्रुओं के सभी आक्रमणों तथा अतिक्रमणों का आघात सबसे पहले सहना पड़ा था। आर्यावर्त में घुसनेवाली बाहरी बर्बर जातियों के प्रत्येक हमले का सामना इसी वीर भूमि को अपनी छाती खोल कर करना पड़ा था। यह वही भूमि है, जिसने इतनी आपत्तियां झेलने के बाद भी अब तक अपने गौरव और शक्ति को एकदम नहीं खोया। यही भूमि है, जहां दयालु नानक ने अपने अद्भुत विश्व-प्रेम का उपदेश दिया। उन्होंने अपना विशाल हृदय खोलकर सारे संसार को -केवल हिन्दुओं को नहीं ,वरन् मुसलमानों को भी गले लगाने के लिए अपने हाथ फैलाये। यहीं पर हमारी जाति के सबसे बाद के तथा महान तेजस्वी वीरों में से एक , गुरु गोविन्द सिंह ने धर्म की रक्षा के लिए अपना एवं अपने प्राण-प्रिय कुटुम्बियों का रक्त बहा दिया और जिनके लिए यह खून की नदी बहायी गयी , उन लोगों ने भी जब उनका साथ छोड़ दिया, तब वे मर्माहत सिंह की भंाति चुपचाप दक्षिण देश में निर्जन-वास के लिए चले गये और अपने देश-भाइयों के प्रति अधरों पर एक भी कटु वचन न लाकर , तनिक भी असन्तोष प्रकट न कर ,शान्त भाव से इहलोक छोड़ कर चले गये।
हे पंचनद देशवासी भाइयो ! यहां अपनी इस प्राचीन पवित्र भूमि में ,तुम लोगों के सामने मैं आचार्य के रूप में नहीं खड़ा हूं कारण, तुम्हें शिक्षा देने योग्य ज्ञान मेरे पास बहुत ही थोड़ा है। मैं तो पूर्वी प्रान्त से अपने पश्चिमी प्रान्त के भाइयों के पास इसीलिए आया हूं कि उनके साथ हृदय खोलकर वार्तालाप करुं, उन्हें अपने अनुभव बताऊं और उनके अनुभव से स्वयं लाभ उठाऊं । मैं यहां यह देखने नहीं आया कि हमारे बीच क्या-क्या मतभेद हैं, वरन मैं तो यह खोजने आया हूं कि हम लोगों की मिलन भूमि कौन सी है। यहां मैं यह जानने का प्रयत्न कर रहा हूं कि वह कौन सा आधार है, जिस पर हम लोग सदा आपस में भाई बने रह सकते हैं। किस नींव पर प्रतिष्ठित होने से वह वाणी, जो अनन्त काल से सुनायी दे रही है, उत्तरोत्तर अधिक प्रबल होती रहेगी। मैं यहां तुम्हारे सामने कुछ रचनात्मक कार्यक्रम रखने आया हूं, ध्वंसात्मक नहीं। कारण,आलोचना के दिन अब चले गये और आज हम रचनात्मक कार्य करने के लिए उत्सुक हैं। यह सत्य है कि संसार को समय-समय पर आलोचना की जरूरत हुआ करती है, यहां तक कि कठोर आलोचना की भी पर वह केवल अल्पकाल के लिए होती है। हमेशा के लिए तो उन्नतिकारी और रचनात्मक कार्य ही वांछित होते हैं, आलोचनात्मक या ध्वंसात्मक नहीं। लगभग पिछले सौ वर्ष से हमारे इस देश में सर्वत्र आलोचना की बाढ़ सी आ गयी है, उधर सभी अन्धकारमय प्रदेशों पर पाश्चात्य विज्ञान का तीव्र प्रकाश डाला गया है, जिससे लोगों की दृष्टि अन्य स्थानों की अपेक्षा कोनों और गली-कूचों की ओर ही अधिक खिंच गयी है। स्वभावत: इस देश में सर्वत्र महान और तेजस्वी मेधा सम्पन्न पुरुषों का जन्म हुआ, जिनके हृदय में सत्य और न्याय के प्रति प्रबल अनुराग था, जिनके अन्त:करण में अपने देश के लिए और सबसे बढ़कर ईश्वर तथा अपने धर्म के लिए अगाध प्रेम था। क्योंकि ये महापुरुष अत्यधिक संवेदनशील थे, उनमें देश के प्रति इतना गहरा प्रेम था, इसलिए उन्होंने प्रत्येक वस्तु की, जिसे बुरा समझा, तीव्र आलोचना की। अतीतकालीन इन महापुरुषों की जय हो! उन्होंने देश का बहुत ही कल्याण किया है। पर आज हमें एक महावाणी सुनायी दे रही है, बस करो, बस करो! निन्दा पर्याप्त हो चुकी, दोष-दर्शन बहुत हो चुका! अब तो पुनर्निर्माण का, फिर से संगठित करने का समय आ गया है। अब अपनी समस्त बिखरी हुई शक्तियों को एकत्र करने का , उन सबको एक ही केन्द्र में लाने का और उस सम्मिलित शक्ति द्वारा देश को प्राय: सदियों से रुकी हुई उन्नति के मार्ग में अग्रसर करने का समय आ गया है। घर की सफाई हो चुकी है। अब आवश्यकता है उसे नये सिरे से आबाद करने की । रास्ता साफ कर दिया गया है। आर्य सन्तानो, अब आगे बढ़ो!
सभी दल और सभी सम्प्रदाय मेरे लिए महान और महिमामय हैं। मैं उन सबसे प्रेम करता हूं, और जीवन भर मैं यही ढूंढने का प्रयत्न करता रहा कि उनमें कौन-कौन सी बातें अच्छी और सच्ची हैं। इसीलिए आज मैंने संकल्प किया है कि तुम लोगों के सामने उन बातों को पेश करुं , जिनमें हम एकमत हैं, जिससे कि हमें एकता की सम्मिलन -भूमि प्राप्त हो जाए और यदि ईश्वर के अनुग्रह से सम्भव हो तो आओ, हम उसे ग्रहण करें और उसे सिद्घान्त की सीमाओं से बाहर निकालकर कार्यरूप में परिणत करें। हम लोग हिन्दू हैं । मैं हिन्दू शब्द का प्रयोग किसी बुरे अर्थ में नहीं कर रहा हूं, और मैं उन लोगों से कदापि सहमत नहीं, जो उससे कोई बुरा अर्थ समझते हों। प्राचीन काल में उस शब्द का अर्थ था -सिन्धु नद के दूसरी ओर बसने वाले लोग। हमसे घृणा करने वाले बहुतेरे लोग आज उस शब्द का कुत्सित अर्थ भले ही लगाते हों, पर केवल नाम में क्या धरा है? यह तो हम पर ही पूर्णतया निर्भर है कि हिन्दू नाम ऐसी प्रत्येक वस्तु का द्योतक रहे, जो महिमामय हो, आध्यात्मिक हो अथवा वह ऐसी वस्तु का द्योतक रहे जो कलंक का समानार्थी हो, जो एक पददलित, निकम्मी और धर्म-भ्रष्ट जाति का सूचक हो । यदि आज हिन्दू शब्द का कोई बुरा अर्थ है तो उसकी परवाह मत करो। आओ, अपने कायोंर् और आचरणों द्वारा यह दिखाने को तैयार हो जाओ कि समग्र संसार की कोई भी भाषा इससे ऊंचा , इससे महान शब्द का आविष्कार नहीं कर सकी है। मेरे जीवन के सिद्घान्तों में से एक यह भी सिद्घान्त रहा है कि मैं अपने पूर्वजों की सन्तान कहलाने में लज्जित नहीं होता ।
मुझ जैसा गर्वीला मानव संसार में शायद ही हो, पर मैं यह स्पष्ट रूप से बता देना चाहता हूं कि यह गर्व मुझे अपने स्वयं के गुण या शक्ति के कारण नहीं , वरन अपने पूर्वजों के गौरव के कारण है। जितना भी मैंने अतीत का अध्ययन किया है, जितनी ही मैंने भूतकाल की ओर दृष्टि डाली है, उतना ही यह गर्व मुझमें अधिक आता है। उससे मुझे श्रद्घा की उतनी ही दृढ़ता और साहस प्राप्त हुआ है, जिसने मुझे धरती की धूलि से ऊपर उठाया है और मैं अपने उन महान पूर्वजों के निश्चित किये हुए कार्यक्रम के अनुसार कार्य करने को प्रेरित हुुआ हंू। ऐ उन्हीं प्राचीन आर्य की संतानो! ईश्वर करे, तुम लोगों के हृदय में भी वही गर्व आविर्भूत हो जाए, अपने पूर्वजों के प्रति वही विश्वास तुम लोगों के रक्त में भी दौड़ने लगे, वह तुम्हारे जीवन से मिलकर एक हो जाए और संसार के उद्घार के लिए कार्यशील हो।
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