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उत्तराखंड और दूसरे हिमालयी राज्यों की मांग है कि उन्हें ह्यग्रीन बोनसह्ण दिया जाना चाहिये। मांग जायज है। मैदानी राज्यों में उद्योगों एवं वाहनों के द्वारा जहरीली कार्बन डाईआक्साइड गैस को वायुमंडल में छोड़ा जाता है। पहाड़ी राज्यों के जंगलों द्वारा इस कार्बन को सोख लिया जाता है। मैदानी राज्य कार्बन उत्सर्जन के दुष्प्रभावों के कारण होने वाले रोग से बच जाते हैं लेकिन पहाड़ी राज्यों को हानि होती है। वे जंगल काटकर लकड़ी बेचने और खेती करने से वंचित हो जाते हैं। इसी प्रकार मैदानी राज्यों द्वारा नदियों में गन्दा पानी छोड़ा जाता है। इस प्रदूषण को साफ करने की नदी की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि पहाड़ों में नदी का मुक्त बहाव कितना है। मुक्त बहाव में नदी का पानी पत्थरों से टकराता है और कॉपर तथा क्रोमियम सोख लेता है। इन धातुओं से नदी की प्रदूषण वहन करने की शक्ति में सुधार होता है। परन्तु नदी के मुक्त बहने के लिये पहाड़ी राज्यों को जल विद्युत परियोजनाओं से पीछे हटना पड़ता है। इससे पहाड़ को नुकसान और मैदान को लाभ होता है।
योजना आयोग ने एक प्रपत्र में इस बात का अनुमोदन किया है। कहा है कि जंगल संरक्षित करने के लिये पहाड़ी राज्यों की क्षतिपूर्ति की जानी चाहिये। हाल में आयोग ने यह भी कहा है कि उत्तराखण्ड एवं हिमाचल को योजित खर्चोंर् के लिए केन्द्रीय अनुदान बढ़ाकर दिया जायेगा। चूंकि वे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण कर रहे हैं जिसका लाभ पूरा देश उठा रहा है। लेकिन इस प्रकार के भुगतान से जंगलों और नदियों का संरक्षण होगा, इसमें संदेह है। इसी प्रकार अपने देश में पहाड़ी राज्यों को दिया जाने वाला यह अनुदान राज्य सरकारों द्वारा सामान्य खर्चों को पोषित करने में व्यय हो जायेगा और पर्यावरण की हानि पूर्ववत् बनी रहेगी। कारण यह कि दी जाने वाली रकम का संबन्ध वर्तमान कार्यकलापों से नहीं बल्कि पूर्व से उपलब्ध संसाधनों से है।
मान लीजिए आज हिमाचल में 10,000 हेक्टेयर जंगल है। इस आधार पर हिमाचल को 100 करोड़ रुपये का अतिरिक्त अनुदान दिया जायेगा। तथापि हिमाचल ने 1,000 हेक्टेयर जंगल काट दिये। इन्हें काटने से हिमाचल को 200 करोड़ रु. का लाभ हुआ। इन्हें काटने के बाद 9,000 हेक्टेयर जंगल बचे रहे। अगले वर्ष हिमाचल को 100 करोड़ के स्थान पर 90 करोड़ रु. का अनुदान मिला। जंगल काटने से हिमाचल को 200 करोड़ का लाभ और हानि 10 करोड़ की हुई। हिमाचल के लिये जंगल काटना फिरभी लाभप्रद बना रहा। अत: ह्यग्रीन बोनसह्ण देने का ऐसा उपाय ढूंूढना होगा कि पहाड़ी राज्यों के लिये जंगल और नदी को संरक्षित करना लाभप्रद हो जाये।
सुझाव है कि ह्यग्रीन बोनसह्ण की रकम को धरातल की स्थिति से जोड़ देना चाहिये। मान लीजिये हिमाचल में आज 10,000 हेक्टेयर जंगल है। यदि अगले साल 10,000 हेक्टेयर जंगल पाये गये तो राज्य को ह्यग्रीन बोनसह्ण मिलना चाहिये। अगले साल यदि 98,000 हेक्टेयर जंगल पाये गये तो ह्यग्रीन बोनसह्ण में भारी कटौती कर देनी चाहिये। इसी प्रकार वर्तमान में नदियों का जितना मुक्त बहाव है उसे बनाये रखने पर ही ह्यग्रीन बोनसह्ण देना चाहिये। यदि राज्य द्वारा सड़क बनाने को कुछ जंगल काटे जाते हैं तो उतना ही जंगल नये स्थान पर लगाने पर ह्यग्रीन बोनसह्ण देना चाहिये।
दूसरा सुझाव है कि ह्यग्रीन बोनसह्ण की रकम प्रभावित जनता को देनी चाहिये। उत्तराखंड में वन पंचायतों की व्यवस्था है। ह्यग्रीन बोनसह्ण इन पंचायतों को देना चाहिये। यह रकम भी जंगल और नदियों की स्थिति को नाप कर देनी चाहिये। ह्यग्रीन बोनसह्ण की रकम को सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिये उपयोग करना चाहिये ताकि जल विद्युत के लिये नदियों को नष्ट न किया जाये। तीसरा सुझाव है कि निजी भूमि धारकों को खाली पड़ी जमीन पर जंगल लगाने के लिये अनुदान देना चाहिये। पहाड़ में खेती दुष्कर है जबकि जंगल लगाना सुलभ है।
विषय का दूसरा पक्ष अन्य स्रोतों से मिलने वाली रकम है। यूरोपीय संघ द्वारा जारी एक प्रपत्र में ऐसे कई स्रोतों का विवरण दिया गया है। पहला कि निजी दानदाताओं द्वारा प्रकृति के संरक्षण के लिये दान दिया जाता है। दूसरा कि पर्यावरण से जुड़े राजस्व जैसे नेशनल पार्क की ह्यएंट्री फीसह्ण। तीसरा, वन को लाभ पहुंचाने वाली संपदा जैसे शहद की बिक्री। मधुमक्खियां होंगी तभी शहद बिकेगा। राज्य को इस प्रकार के राजस्व से जितनी प्राप्ति हो उसके बराबर अनुदान केन्द्र द्वारा दिया जा सकता है। ऐसा करने से राज्य के लिये प्रकृति संरक्षण का ह्यइंसेंटिवह्ण होगा। पहाड़ी राज्यों को ह्यग्रीन बोनसह्ण अवश्य दिया जाना चाहिये। परन्तु इसे धरातल पर प्रकृति के संरक्षण से जोड़ना चाहिये अन्यथा यह नेताओं एवं अधिकारियों के लिये अतिरिक्त आय का स्त्रोत बन कर रह जायेगा। डा. भरत झुनझुनवाला
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