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पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी घटना घटी है जिसके दूरगामी परिणाम दुनिया की राजनीति को बदले सकते हैं। उक्त घटना के सम्बंध में हम विस्तृत चर्चा करें उससे पहले यह जान लेने की आवश्यकता है कि सुरक्षा परिषद् राष्ट्र संघ का सबसे शक्तिशाली घटक है। उसमें दुनिया की पांच बड़ी ताकतें अमरीका, फ्रांस, ब्रिटेन, रूस और चीन के पास विशेषाधिकार यानी वीटो है। किसी भी मामले में यदि इन पांच महाशक्तियों में से कोई एक वीटो का उपयोग कर ले तब पलड़ा उस ओर झुक जाता है। इसके अतिरिक्त सुरक्षा परिषद् के दस सदस्य दो-दो वर्षों के लिए बारी-बारी से चुने जाते हैं। इस बार सऊदी अरब का दो वर्ष के लिए चुनाव किया गया, किन्तु उसने उसकी सदस्यता प्राप्त करने से इनकार कर दिया। सऊदी प्रतिनिधि का कहना था कि यह सदस्यता और बारी-बारी से चुने जाने वाले सदस्य देशों की कोई हैसियत नहीं होती है। सऊदी प्रतिनिधि ने यह भी आरोप लगाया कि सुरक्षा परिषद् का दोहरा मापदंड होता है। बड़ी शक्तियां जो चाहती हैं वहीं होता है। अन्य देश जिनकी संख्या और क्षेत्रफल कितनी ही हो उसकी कोई आवाज नहीं होती है। सऊदी अरब चूंकि प्रारम्भ से अमरीकी गुट में है इसलिए इसका सबसे बड़ा प्रभाव अमरीका पर ही होना तय था। इसलिए दुनिया को यह संदेश गया कि सऊदी अरब अमरीका से नाराज है। यदि इसमें तनिक भी सच्चाई है तो फिर इस बात पर विश्वास करना ही पड़ेगा कि निकट भविष्य में दुनिया की वर्तमान राजनीति में बड़ा परिवर्तन होने वाला है।
पिछले दिनों अमरीका ने हसन रूहानी से भी बातचीत की है और इससे पहले मिस्र के मोहम्मद मुर्सी, जो इन दिनों जेल में हैं, उनका समर्थन भी किया है। इससे लगता है अमरीका मध्यपूर्व में अपनी आज तक चली आ रही नीतियों में भारी परिवर्तन करने वाला है। यदि ऐसा है तो फिर सऊदी के हितों को निश्चित ही चोट पहुंचेगी। केवल इतना ही नहीं वे मुस्लिम राष्ट्र, जो सऊदी के साथ हैं और उसे अपना नेता मानते हैं, उन्हें भी इस बदलाव से भारी नुकसान होने वाला है। सऊदी की नीतियों में इस परिवर्तन के कारण अमरीकी सरकार को दस बार विचार करना पड़ रहा है। उसने सुरक्षा परिषद् की इस सदस्यता को अस्वीकार कर सीधे-सीधे अमरीका को यह संदेश दे दिया है कि वह उसकी नीतियों में आ रहे परिवर्तन का समर्थन नहीं कर सकता है। सुरक्षा परिषद् में वीटो रखने वाले फ्रांस ने सऊदी अरब को इस पर विचार करने का आग्रह किया है लेकिन रूस इस परिवर्तन से मन ही मन खुश हो रहा है। क्योंकि यदि सऊदी अमरीका से दूर हो जाता है तो रूस का पलड़ा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारी हो जाता है। सऊदी को मनाने का भरसक प्रयास किया जा रहा है। लेकिन अब तक उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है। सऊदी अरब की नाराजगी भविष्य में अमरीका के लिए कितनी महंगी साबित हो सकती है उस पर विचार करना अनिवार्य है। इसके लिए मुस्लिम राष्ट्रों की रीति-नीति एवं गुटबंदियों पर विचार करना होगा।
सम्पूर्ण जगत में मुस्लिम राष्ट्रों की कुल संख्या 56 है। इन राष्ट्रों का अपना एक अंतरराष्ट्रीय संगठन ह्यऑरगेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कंट्रीजह्ण हैं। मुस्लिम राष्ट्रों में दो धाराएं हैं। एक सुन्नी और दूसरी है शिया। सुन्नी देशों का नेतृत्व सऊदी अरब करता है, जबकि शियाओं का नेता ईरान है। दोनों ही एशिया में स्थित हैं और अपने खनिज तेल के उत्पादन के लिए जग विख्यात हैं। अमरीका अथवा दुनिया का कोई भी देश हो उसे वे 26 मुस्लिम देश जो अरब प्रायद्वीप में स्थित हैं, उन पर खनिज तेल के लिए निर्भर रहना पड़ता है। सऊदी के बाद इराक और खाड़ी के अन्य देश भी अपने तेल के लिए जग विख्यात हैं। सऊदी अरब से ही सटकर ईरान है जो अपने तेल के उत्पादन में सऊदी जैसा ही स्थान रखता है। एशिया के ये दो बड़े तेल उत्पादक देशों में हमेशा से विवाद रहा है। इस्लाम से पूर्व यह विवाद अरब और अजम का था लेकिन इस्लाम के उदय के पश्चात् यह शिया और सुन्नी विवाद में बदल गया। ईरान अकेला शिया देश होने के बावजूद अपनी ताकत का लोहा हमेशा मनवाता रहा है। पचास के दशक में जब यूरोपीय साम्राज्य एक-एक करके एशिया से विदा हो गए तब यहां भी आजादी की लहर दौड़ गई। लेकिन साथ ही वहां वर्षों से चली आने वाली राजशाही ज्यों की त्यों कायम रही। सऊदी अरब की राजशाही अब भी सऊदी परिवार की ही बपौती है। लेकिन ईरान में रजा शाह पहलवी का राजतंत्र 20वीं शताब्दी के छठे दशक में समाप्त हो गया। सऊदी राजा सुन्नी विश्व के नेता हो गए और ईरान में लोकतंत्र की स्थापना के साथ-साथ आयतुल्लाह खुमैनी इमाम बनकर देश की राजनीति में हस्तक्षेप करने लगे। जब दुनिया में सैनिक संधियों का युग आया तो सऊदी अरब, ईरान और तुर्की सीटो और सेन्टो के सदस्य बन गए। लेकिन इमाम खुमैनी ने बहु शीघ्र अमरीका के नेतृत्व से दूर होकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर लिया। इराक और कुवैत के बीच की लड़ाई और फिर ईरान-इराक युद्ध में ईरान को अमरीका के जो कड़वे अनुभव हुए तो खुमैनी ने अमरीका को ह्यबड़े शैतानह्ण और इस्रायल को ह्यछोटे शैतानह्ण की उपाधि दे डाली। यद्यपि उस समय तक रूस दुनिया की दूसरी महाशक्ति के रूप में अपनी पहचान खो चुका था। इसके बावजूद हथियारों की खरीदी से लेकर अन्य मामलों में रूस की सहायता ने ईरान को अपना समर्थक बना दिया।
अमरीका और सऊदी अरब के बीच बढ़तीं दूरियां
पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी घटना घटी है जिसके दूरगामी परिणाम दुनिया की राजनीति को बदले सकते हैं। उक्त घटना के सम्बंध में हम विस्तृत चर्चा करें उससे पहले यह जान लेने की आवश्यकता है कि सुरक्षा परिषद् राष्ट्र संघ का सबसे शक्तिशाली घटक है। उसमें दुनिया की पांच बड़ी ताकतें अमरीका, फ्रांस, ब्रिटेन, रूस और चीन के पास विशेषाधिकार यानी वीटो है। किसी भी मामले में यदि इन पांच महाशक्तियों में से कोई एक वीटो का उपयोग कर ले तब पलड़ा उस ओर झुक जाता है। इसके अतिरिक्त सुरक्षा परिषद् के दस सदस्य दो-दो वर्षों के लिए बारी-बारी से चुने जाते हैं। इस बार सऊदी अरब का दो वर्ष के लिए चुनाव किया गया, किन्तु उसने उसकी सदस्यता प्राप्त करने से इनकार कर दिया। सऊदी प्रतिनिधि का कहना था कि यह सदस्यता और बारी-बारी से चुने जाने वाले सदस्य देशों की कोई हैसियत नहीं होती है। सऊदी प्रतिनिधि ने यह भी आरोप लगाया कि सुरक्षा परिषद् का दोहरा मापदंड होता है। बड़ी शक्तियां जो चाहती हैं वहीं होता है। अन्य देश जिनकी संख्या और क्षेत्रफल कितनी ही हो उसकी कोई आवाज नहीं होती है। सऊदी अरब चूंकि प्रारम्भ से अमरीकी गुट में है इसलिए इसका सबसे बड़ा प्रभाव अमरीका पर ही होना तय था। इसलिए दुनिया को यह संदेश गया कि सऊदी अरब अमरीका से नाराज है। यदि इसमें तनिक भी सच्चाई है तो फिर इस बात पर विश्वास करना ही पड़ेगा कि निकट भविष्य में दुनिया की वर्तमान राजनीति में बड़ा परिवर्तन होने वाला है।
पिछले दिनों अमरीका ने हसन रूहानी से भी बातचीत की है और इससे पहले मिस्र के मोहम्मद मुर्सी, जो इन दिनों जेल में हैं, उनका समर्थन भी किया है। इससे लगता है अमरीका मध्यपूर्व में अपनी आज तक चली आ रही नीतियों में भारी परिवर्तन करने वाला है। यदि ऐसा है तो फिर सऊदी के हितों को निश्चित ही चोट पहुंचेगी। केवल इतना ही नहीं वे मुस्लिम राष्ट्र, जो सऊदी के साथ हैं और उसे अपना नेता मानते हैं, उन्हें भी इस बदलाव से भारी नुकसान होने वाला है। सऊदी की नीतियों में इस परिवर्तन के कारण अमरीकी सरकार को दस बार विचार करना पड़ रहा है। उसने सुरक्षा परिषद् की इस सदस्यता को अस्वीकार कर सीधे-सीधे अमरीका को यह संदेश दे दिया है कि वह उसकी नीतियों में आ रहे परिवर्तन का समर्थन नहीं कर सकता है। सुरक्षा परिषद् में वीटो रखने वाले फ्रांस ने सऊदी अरब को इस पर विचार करने का आग्रह किया है लेकिन रूस इस परिवर्तन से मन ही मन खुश हो रहा है। क्योंकि यदि सऊदी अमरीका से दूर हो जाता है तो रूस का पलड़ा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारी हो जाता है। सऊदी को मनाने का भरसक प्रयास किया जा रहा है। लेकिन अब तक उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है। सऊदी अरब की नाराजगी भविष्य में अमरीका के लिए कितनी महंगी साबित हो सकती है उस पर विचार करना अनिवार्य है। इसके लिए मुस्लिम राष्ट्रों की रीति-नीति एवं गुटबंदियों पर विचार करना होगा।
सम्पूर्ण जगत में मुस्लिम राष्ट्रों की कुल संख्या 56 है। इन राष्ट्रों का अपना एक अंतरराष्ट्रीय संगठन ह्यऑरगेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कंट्रीजह्ण हैं। मुस्लिम राष्ट्रों में दो धाराएं हैं। एक सुन्नी और दूसरी है शिया। सुन्नी देशों का नेतृत्व सऊदी अरब करता है, जबकि शियाओं का नेता ईरान है। दोनों ही एशिया में स्थित हैं और अपने खनिज तेल के उत्पादन के लिए जग विख्यात हैं। अमरीका अथवा दुनिया का कोई भी देश हो उसे वे 26 मुस्लिम देश जो अरब प्रायद्वीप में स्थित हैं, उन पर खनिज तेल के लिए निर्भर रहना पड़ता है। सऊदी के बाद इराक और खाड़ी के अन्य देश भी अपने तेल के लिए जग विख्यात हैं। सऊदी अरब से ही सटकर ईरान है जो अपने तेल के उत्पादन में सऊदी जैसा ही स्थान रखता है। एशिया के ये दो बड़े तेल उत्पादक देशों में हमेशा से विवाद रहा है। इस्लाम से पूर्व यह विवाद अरब और अजम का था लेकिन इस्लाम के उदय के पश्चात् यह शिया और सुन्नी विवाद में बदल गया। ईरान अकेला शिया देश होने के बावजूद अपनी ताकत का लोहा हमेशा मनवाता रहा है। पचास के दशक में जब यूरोपीय साम्राज्य एक-एक करके एशिया से विदा हो गए तब यहां भी आजादी की लहर दौड़ गई। लेकिन साथ ही वहां वर्षों से चली आने वाली राजशाही ज्यों की त्यों कायम रही। सऊदी अरब की राजशाही अब भी सऊदी परिवार की ही बपौती है। लेकिन ईरान में रजा शाह पहलवी का राजतंत्र 20वीं शताब्दी के छठे दशक में समाप्त हो गया। सऊदी राजा सुन्नी विश्व के नेता हो गए और ईरान में लोकतंत्र की स्थापना के साथ-साथ आयतुल्लाह खुमैनी इमाम बनकर देश की राजनीति में हस्तक्षेप करने लगे। जब दुनिया में सैनिक संधियों का युग आया तो सऊदी अरब, ईरान और तुर्की सीटो और सेन्टो के सदस्य बन गए। लेकिन इमाम खुमैनी ने बहु शीघ्र अमरीका के नेतृत्व से दूर होकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर लिया। इराक और कुवैत के बीच की लड़ाई और फिर ईरान-इराक युद्ध में ईरान को अमरीका के जो कड़वे अनुभव हुए तो खुमैनी ने अमरीका को ह्यबड़े शैतानह्ण और इस्रायल को ह्यछोटे शैतानह्ण की उपाधि दे डाली। यद्यपि उस समय तक रूस दुनिया की दूसरी महाशक्ति के रूप में अपनी पहचान खो चुका था। इसके बावजूद हथियारों की खरीदी से लेकर अन्य मामलों में रूस की सहायता ने ईरान को अपना समर्थक बना दिया।
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