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सिखों का दुनिया के कोने-कोने में जाकर बसने और फिर वहां पर अपने लिए नई जमीन तैयार करने में कोई सानी नहीं है। अब जरा देखिए कि वर्तमान में ये भारत से बाहर अफ्रीका से लेकर यूरोप और पाकिस्तान से लेकर न्यूजीलैंड की पार्लियामेंट को सुशोभित करने लगे हैं। मतलब यह है कि नौकरी की तलाश में दूर देश जाने वाला शख्स वहां की किस्मत ही लिखने लगा। ये कहीं भी गए, पर भारत और पंजाबी इनके दिलों में बसा रहा।
अगर बात मलेशिया से शुरू करें तो वहां की संसद में वर्तमान में दो सिख हैं। हालांकि भारतीय मूल के तो कई हैं। मलेशिया से शुरुआत इसलिए कर रहे हैं क्योंकि माना जाता है कि भारत से बाहर सर्वाधिक भारतीय मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका और अमरीका में ही बसे हुए हैं। कृपाल सिंह सांसद होने के साथ-साथ देश के चोटी के वकील भी हैं। वे डेथपेनल्टी की हमेशा तगड़ी मुखालफत करते रहे हैं। कृपाल ने शिक्षा सिंगापुर में ली। उनकी छवि बेहद विवादास्पद वकील और सांसद की है। प्रखर वक्ता कृपाल के राजनीतिक सफर का आगाज 1970 में हुआ था जब वे डेमोक्रेटिक एक्शन पार्टी (डीएपी) में गए। तब से वे एकाध बार को छोड़कर सांसद बने हुए थे।
गोविंद सिंह देव भी मलेशिया में सांसद हैं। वे पहली बार मार्च, 2008 में सांसद बने सेलगार सीट से। उनका संबंध भी डीएपी से है। ये भी पेशे से वकील हैं। राजनीति की दुनिया में उनके गुरु कृपाल ही हैं। उनके भाई जगदीप सिंह पेनांग एसेंबली के सदस्य हैं। दरअसल मलेशिया में भारत वंशियों में सर्वाधिक तमिल हैं। हां, सिखों की भी आबादी अच्छी-खासी है।
अफ्रीका में सरदार और सरदारनी
परमिंदर सिंह मारवाह अफ्रीका के किसी भी देश की संसद में पहुंचने वाले पहले सिख सांसद हैं। वे युगांडा की पार्लियामेंट में हैं। वे चाहते हैं कि भारत के निवेशक युगांडा के कृषि क्षेत्र में आएं। उनके परिवार ने 70 के दशक में भी युगांडा को नहीं छोड़ा था जब ईदी अमीन भारतीयों पर जुल्म ढा रहे थे। उनके दादा युगांडा में आकर बसे थे। उनके दादा उनरेलवे में थे। उन्होंने 30 और 40 के दशक में पूर्वी अफ्रीकी देशों में रेल लाइनें बिछाईं थीं। कुछ दिन पहले दिल्ली आए मारवाह ने बताया कि अंग्रेज भारत से बहुत से मजदूरों को अफ्रीकी देशों में रेल पटरियों को बिछाने के लिए लेकर गए थे। और फिर वे वहां के ही हो गए थे। वे अपने भारत भ्रमण के दौरान खासतौर पर स्वर्ण मंदिर गए थे मत्था टेकने के लिए। उन्हें गुरुदास मान की गायकी पसंद है। उनके पुरखे जालंधर से हैं। वे रामगढि़या बिरादरी से आते हैं।
अफ्रीका से बाहर निकलने से पहले केन्या भी हो आते हैं। इधर एक सरदारनी सांसद है। नाम है सोनिया विरदी। सोनिया केन्या में महिलाओं की बड़ी कार्यकर्ता मानी जाती हैं। दरअसल वे पहली एशियाई मूल की महिला सांसद हैं केन्या में। वे मकरादा नाम की जगह की नुमाइंदगी करती हैं। मकरादा केन्या का अहम शहर इस लिहाज से है क्योंकि वहां काफी इंडस्ट्रीज हैं। उन्हें इस साल मार्च के महीने में सत्तासीन यूनाइटेड रिपब्लिक पार्टी ने संसद के लिए नामित किया था।
सोनिया अपने क्षेत्र में ढांचागत सुविधाओं को सुधारने के लिए सघन अभियान चला रही हैं। सोनिया अपने क्षेत्र में बिजली की नियमित आपूर्ति के लिए लगातार संघर्षरत हैं। उनके सांसद बनते ही उनके सम्मान में केन्या की राजधानी नैरोबी में श्रीगुरुसिंहसभा ने बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया।
कनाडा में बल्ले-बल्ले
भारत के बाद सबसे ज्यादा सिख सांसद कहीं हैं तो कनाडा में हैं। इनमें से कुछ भारतीय मूल के हैं तो कुछ बरास्ता अफ्रीका से कनाडा में आकर बसे। बलजीत सिंह गोशल हाउस आफ कामंस के सदस्य हैं। खेल मंत्री भी हैं। वे कनाडा में भारतीय और सिख समाज से जुड़े मसलों को लेकर हमेशा संवेदनशील रहते हैं। उन्होंने राजनीति करने से पहले बहुत से पापड़ बेले हैं। कई जगह नौकरी की। समाज सेवा भी करते रहे। उनके बारे में कहा जाता है कि जब से वे कनाडा के खेल मंत्री बने हैं तब से देश में खेलों को लेकर सरकार बजट बढ़ा रही है। वे सन् 1981 में कनाडा जाकर बसे थे। उनकी शिक्षा जालंधर के डीएवी कालेज से हुई। वे कंजरवेटिव पार्टी के ब्रेमिलिया सीट से सांसद हैं।
टिम उप्पल भी कनाडा में सिक्खी और भारत के झंडे गाढ़ रहे हैं। वे भी मंत्री हैं। उप्पल का संबंध भी कंजरवेटिव पार्टी से है। वे एडमेंटन से सांसद हैं। उनका जन्म भी कनाडा में ही हुआ। वे संसद की हेल्थ और हेरिटेज मामलों की स्थायी समितियों के भी सदस्य हैं। वे 1992 से 1997 तक एक रेडियो में प्रोड्यूसर थे।
नरेन्द्र कौर ग्रेवाल की जिन्दगी भी बड़ी ही दिलचस्प है। उन्हें नीना भी कहते हैं। उनका जन्म ओसाका,जापान में 1958 में हुआ। कनाडा में बसने से पहले वह अपने पति के साथ लाइबेरिया में रहती थीं। वे पहली बार जून, 2004 में सांसद बनीं। वे और रूबी ढल्ला हाउस ऑफ कामंस के लिए निर्वाचित होने वाली पहली सिख सांसद थीं। नरेन्द्र कौर के पति गुरमंत ग्रेवाल भी सांसद रहे हैं। वे विदेश और महिला मामलों की स्थायी कमेटी की सदस्य हैं। वे 2006,2008 और 2011 के फेडरेल चुनावों में जीतीं। पंजाबी भारतवंशियों के मामलों के जानकार प्रताप सहगल ने बताया कि 60 और 70 के दशकों में पंजाब के दोआब क्षेत्र से बड़ी तादाद में लोग कनाडा गए बेहतर जिन्दगी की तलाश में।
परम गिल भी कनाडा संसद में हैं। वे ब्रेमटन से सांसद हैं। 39 साल के परम पंजाब के मोगा जिले के पुरनवाला से हैं। वहां पर ही उनका जन्म हुआ। वे 14 साल की उम्र में कनाडा चले गए थे। परमजीत सिंह कंजरवेटिव पार्टी से हैं। उन्होंने पिछले 2011 के चुनावों में लिबरेल पार्टी की रूबी ढ़ल्ला को हराया था। कहने की जरूरत नहीं है कि रूबी भी कनाडा की चोटी की भारतीय मूल की नेता हैं।
जिन्नी सिम्स का असली नाम जिन्नी जोगिन्दर सिम्स है। 61 साल के सिम्स कनाडा की संसद में न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी की नुमाइन्दगी करते हैं। वे पंजाब के दोवाब क्षेत्र के गढ़ जालंधर से संबंध रखते हैं। वे 9 साल की उम्र में कनाडा आ गई थीं अपने परिवार के साथ। इस सीट पर उनसे पहले सुख धालीवाल सांसद थे।
जसबीर संधू भी कनाडा पार्लियामेंट में सिख ह्यआर्मीह्ण के अहम सदस्य हैं। वे नार्थसरे से डेमोक्रेटिक पार्टी से सांसद हैं। वे देश की 41 वीं संसद के लिए 1996 में निवार्चित हुए थे। वे भी कनाडा में बसे भारत के उन तमाम लोगों में हैं जो बचपन में अपने परिवारों के साथ यहां पर बेहतर जिन्दगी के ख्वाब लेकर आ गए थे। संधू भारत से संबंधों को मजबूत बनाने की वकालत करते हैं। उन्होंने टैक्सी चलाने से लेकर रेस्तरां में छोटी-मोटी नौकरियां भी कीं। मतलब साफ है कि इन लोगों ने सांसद बनने का सफर बहुत संघषोंर् के बाद पूरा किया।
पहले पगड़ी पहनने वाले ब्रिटिश सांसद
अब ब्रिटेन का रूख कर लेते हैं। यूरोप के इस खासमखास देश में भी भारत और पूर्वी अफ्रीकी देशों से सिख आते रहे। उन्होंने जिन्दगी के सभी क्षेत्रों में झंडे गाढ़े। इंदरजीत सिंह ब्रिटेन की संसद में पहुंचने वाले पहले पगड़ी पहनने वाले सिख सांसद हैं। उन्होंने एक हालिया साक्षात्कार में कहा भी था कि ये अफसोस की बात है कि ब्रिटेन में पगड़ी पहनने वाले सिख को संसद में पहुंचने में इतना वक्त लगा। वे निर्दलीय सदस्य हैं हाउस आफ कामंस में। वे इस कारण से भी नाराज हैं कि यूरोप के कुछ देशों में सिखों को पगड़ी पहनने पर दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। जाहिर है, इनका इशारा फ्रांस से था। वे कहते हैं कि सिखों के साथ ब्रिटेन और यूरोप में काफी भेदभाव होता है। बहरहाल, उनके साथ हाउस आफ कामंस में पाल उप्पल भी सांसद हैं। 43 साल के उप्पल कंजरवेटिव पार्टी से हैं। उनके माता-पिता अफ्रीका से ब्रिटेन में आकर बसे थे।
न्यूजीलैंड में भी चक दे फट्टे
कंवल सिंह बख्शी 2008 में न्यूजीलैंड की संसद के लिए निर्वाचित हुए थे। उनका संबंध नेशनल पार्टी से है। उनका परिवार 2001 में न्यूजीलैंड में जाकर बसा था। यानी कि मात्र आठ साल में ही वे एक पराए देश की संसद में पहुंच गए। बेशक, ये एक बड़ी उपलब्धि है। वे यहां पर बेहतर नौकरी की संभावनाएं तलाशने के इरादे से आए थे। वे न केवल पहले सिख बल्कि पहले भारतीय हैं, जिन्हें न्यूजीलैंड की संसद में पहुंचने का अवसर मिला। वे दिल्ली से हैं। हालांकि उनके ऊपर आरोप भी लगते रहे हैं। एक बार उन पर आरोप लगा था कि उन्होंने कुछ लोगों को न्यूजीलैंड में नौकरी दिलाने का झांसा देकर मोटा माल बनाया था। पर पुलिस जांच में उनके खिलाफ आरोप साबित नहीं हुए। उन्होंने एक बार बताया था कि वे दिल्ली में अपना व्यापार करते थे। वे सियासत और अपने व्यापार दोनों के साथ इंसाफ कर रहे हैं।
कंवल सिंह बख्शी की तरह इंदरजीत सिंह भी दिल्ली से हैं। उनकी स्कूली और कालेज की पढ़ाई सिंगापुर में ही हुई। वे पेशे से इंजीनियर हैं। उन्होंने कई कंपनियों में काम किया। बड़े पदों को संभाला। करीब तेरह साल के करपोरेट दुनिया के सफर के बाद वे सियासत भी करने लगे। अब वे सियासत को लेकर बेहद संजीदा हैं। उन्होंने एक बार बड़े ही गर्व के साथ कहा था कि सिंगापुर में कई देशों से संबंध रखने वाले सांसद हैं। इससे साफ है कि सिंगापुर हर इंसान को बराबरी का हक देता है।
सिंगापुर के सिख सांसद
प्रीतम सिंह भी सिंगापुर की संसद में हैं। वे पेशे से वकील हैं। उनका संबंध वर्कर्स पार्टी से है। मात्र 36 साल के प्रीतम सिंह 7 मई 2011 से सांसद हैं। महत्वपूर्ण है कि उन्होंने इस्लामिक कानून की भी डिग्री ली है।
और अन्त में बात पाकिस्तान की हो जाए तो क्या बुराई है। पाकिस्तान में सिखों की आबादी बहुत ही कम है, किन्तु रमेश सिंह अरोड़ा को वहां की संसद में तो नहीं, पर पंजाब एसेंबली के लिए नामित किया गया। वे सत्तारूढ़ पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) की नुमाइंदगी करते हैं। चूंकि उम्मीद पर दुनिया कायम है तो इसलिए आशा कर सकते हैं कि पड़ोसी मुल्क की संसद में भी कभी कोई सिख पहुंचेगा।
प्रवासी भारतीय मामलों के जानकार प्रो़ रवि चतुर्वेदी कहते हैं कि सिखों की आबादी किसी भी देश में बहुत नहीं है। इसके बावजूद ये जिधर गए इन्होंने अपने को वहां के समाज के सुख-दु:ख से जोड़ा। जाहिर है,इसलिए ही ये सियासत के संसार में भी चमक गए। विवेक शुक्ला
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