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ड्रोन हमलों पर बिलबिलाए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ वाशिंगटन सोचकर तो ये गए होंगे कि हमले रोकने के लिए राष्ट्रपति ओबामा को राजी कर लेंगे, पर 23 अक्तूबर को उल्टे ओबामा से ही फटकार खानी पड़ी कि, 26/11 (मुम्बई हमले) के दोषियों पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही? दोषियों पर जल्दी मुकदमा चलाओ। इससे पहले 20 अक्तूबर को हर पाकिस्तानी सियासी नेता की तरह ह्यराग कश्मीरह्ण अलापते अमरीका पहुंचे नवाज शरीफ को शांत करने की गरज से अमरीका ने उनकी झोली में यह कहते हुए 1.6 अरब डालर डाल दिए कि दोनों देशों में रिश्ते ह्यसुधरह्ण गए हैं। पाकिस्तान को यह पैसा ह्यआर्थिक और सुरक्षा मददह्ण के तौर पर दिया गया है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री अमरीका जाते हुए चाय-पानी के लिए कुछ घंटे लंदन में ठहरे थे, वहां भी उन्होंने मौका ताड़कर और अपने पहंुचने से पहले अमरीकियों को अपनी मुराद जताने की कोशिश में कैमरों के आगे खीसें निपोरते हुए कह दिया कि भई, कश्मीर का मसला सुलझाने में अमरीका मदद कर दे तो क्या कहने। बात में वजन डालने की गरज से शरीफ ने 1999 में तब के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सामने भी यही दुखड़ा रोने का हवाला दे दिया। उन्होंने बताया कि, समय नहीं मिल पाया, वरना क्लिंटन तो मामले पर गंभीरता से सोचने लगे थे। वजन अब भी शायद कम लगा शरीफ को, तो उन्होंने धमकी भरे लहजे मेंं कहा, भारत और पाकिस्तान, दोनों के पास परमाणु बम हैं, इसलिए इलाके में तनाव है। वजन शायद अब भी उतना नहीं पड़ा। शरीफ फिर बोले, भई, ज्यादा नहीं तो मध्य पूर्व के लिए ओबामा जितना वक्त सोचते हैं, उसका दस फीसदी वक्त ही इस मसले पर लगा दें तो काफी है। खबर चल निकली। समन्दर फलांगते हुए वह अमरीका पहंुची और भारत भी। बोल-बाल कर फिर से हवाई जहाज में बैठते हुए शरीफ मन ही मन सोचने लगे होंगे कि अमरीका के हवाई अड्डे पर उतरने से पहले ही ओबामा कोई मनमाफिक बयान तो देंगे ही, भारत के भी कान खड़े हो गए जाएंगे।
अमरीका ने साफ किया
कश्मीर दोतरफा मसला, हमारी कोई दखल नहीं
बहरहाल, उपराष्ट्रपति जॉन कैरी से मुलाकात के बाद ही नवाज को भान हो गया कि अमरीका कश्मीर पर दोनों पक्षों के बीच पड़ने को तैयार नहीं है। इंदिरा गांधी और भुट्टो के बीच शिमला में 1972 में हुए करार में तय पाया गया था कि जम्मू-कश्मीर का मामला दोतरफा ही है। शरीफ चाहे अपनी हदों को लांघें, पर अमरीका ने साफ कर दिया कि वह बीच में नहीं पड़ेगा। भारत के विदेश विभाग का भी बयान आ गया कि-1972 मत भूलो, जम्मू-कश्मीर भारत का है, और रहेगा। भारत की संसद एक स्वर से प्रस्ताव पारित कर चुकी है, मसला है तो बस इतना कि पाकिस्तानी कब्जे से कश्मीर के बाकी हिस्से को कैसे मुक्त कराया जाए।
खैर, अमरीका में नवाज को लग गया कि खबर फुस्स हो गई। हां, उनके पाकिस्तान में बैठे फौजी जनरलों-कर्नलों और आईएसआइयों का खून जरूर बढ़ गया होगा। शरीफ इस बात से बेखबर नहीं होंगे कि उनके जून 2013 में कुर्सी पर बैठने के बाद से पाकिस्तान संघर्ष विराम और सीमा संबंधी कायदे-कानूनों की बेशरमी से धज्जियां उड़ा रहा है, जबकि नवाज खुद को दोस्ती का अलम्बरदार साबित करने पर तुले रहे हैं। कहना न होगा कि आतंक के विरुद्ध ऐलानिया जंग पर अमरीका की तटस्थता देख शरीफ दंग रह गए, मन उदास हो गया। घडि़याली आंसू पोंछते हुए शरीफ फिर हवाई जहाज में बैठकर इस्लामाबाद लौट गए। लेकिन 26/11 के दोषी हाफिज सईद पर वह लगाम कस पाएंगे, इसकी संभावना कम ही है।
1,964 छोड़े, 722 फिर जिहादी बन गए
पाकिस्तान की कथनी और करनी की कलई खोलने वाला कोई और नहीं, पाकिस्तान का ही एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार द डॉन है। हाल में उसने एक रपट छापी है, जिसके अनुसार 2007 से आज तक पाकिस्तान की अदालतों ने जिन 1,964 संदिग्ध जिहादियों को छोड़ा है उनमें से 722 फिर से जिहादी गुटों से जुड़ गए हैं और 1,197 देश विरोधी हरकतों को अंजाम देने में लगे हैं। द डॉन में छपी खबरों को पाकिस्तान में बड़ा विश्वसनीय माना जाता है इसलिए इस रपट से उन आशंकाओं की पुष्टि होती है कि पाकिस्तानी अदालतें वहां की फौज के प्रभाव में आकर संदिग्ध जिहादियों को छोड़ती रही हैं जो फिर से हत्याओं का सिलसिला चालू कर देते हैं। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि फिर से जिहादी गुटों से जा मिले उन हत्यारों में से 12 मारे जा चुके हैं। 4 को तो अमरीकी ड्रोन ही कबीलाई इलाकों में साफ कर चुके हैं, 8 को वहां के सुरक्षाबलों ने हलाक कर दिया है। ऐसा डॉन ने छापा है। अखबार की मानें तो उसने यह तमाम जानकारी एक सरकारी दस्तावेज के हवाले से छापी है। दस्तावेज आगे कहता है, छोड़े गए संदिग्ध जिहादियों में से 33 को फिर से धर कर जेल भेजा जा चुका है। और तो और, वहां के पूर्व वाइस एयर मार्शल शहजाद चौधरी ने यकीन न करने जैसी बात बोली कि, ह्यबड़े कारनामों को अंजाम देने वाले संदिग्धों पर उनको छोड़े जाने के बाद भी नजर रखी जाती है।ह्ण जिहादियों के मंसूबे जानकर भी अदालतों द्वारा उनको छोड़ा जाना समझ से परे है।
ये हत्यारे छूट कैसे जाते हैं, इसकी तहकीकात की गई तो पता चला, अव्वल तो कोई दमदार वकील जान की खैर मानते हुए उनके खिलाफ जिरह के लिए आगे नहीं आता, दूसरे अधकचरे सबूत कुछ साबित नहीं कर पाते। पाकिस्तान से आई ऐसी खबर पढ़ते वक्त बरबस ही ध्यान भारत में उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार की तरफ चला जाता है जो चंद वोटों की खातिर जिहाद के कई बड़े काण्डों में शामिल रहे आतंकवादियों को जेल से रिहा कराने की जुगत भिड़ा रही है। साथ ही याद आती है भारत के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे की राज्यों को लिखी वह चिट्ठी कि किसी मुस्लिम आतंकी को संदेह के आधार पर जेलों में कैद न रखा जाए। आलोक गोस्वामी
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