उर्दू-उद्भव और इस्लाम से संबद्धतामुस्लिम पहचान से जोड़ने के कारण मर गई उर्दू-ब्रजकिशोर शर्मा
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उर्दू-उद्भव और इस्लाम से संबद्धतामुस्लिम पहचान से जोड़ने के कारण मर गई उर्दू-ब्रजकिशोर शर्मा

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Jan 5, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Jan 2013 14:58:21

 

यह सभी जानते और स्वीकार करते हैं कि मुगल दरबार और दक्षिण के मुसलमान शासकों की भाषा फारसी थी। दक्षिण के प्रमुख मुस्लिम राज्य थे- बीजापुर, गोलकुंडा, बीदर और दौलताबाद आदि। यहां पर फारसी का प्रभाव स्थानीय भाषाओं पर पड़ा और उनमें फारसी के शब्द ग्रहण किए गए। फारसी की साहित्यिक शैलियों ने भी स्थानीय बोलियों पर प्रभाव डाला। मुस्लिम शासकों, चाहे उत्तर के हों या दक्षिण के, के दरबार में ईरान, तुर्किस्तान, या अन्य मध्य एशिया के देशों से आने वाले मुसलमानों का खुले दिल से स्वागत होता था। उन्हें अनेक प्रकार के इनाम और पदों से सुशोभित किया जाता था। स्थानीय हिन्दुओं को उनसे दूर ही रखा जाता था। वे लोग अपने साथ अपनी भाषा भी लेकर आते थे। इनकी भाषाओं और स्थानीय भाषाओं के मिश्रण से दरबार, सैनिक पड़ाव और बाजार में प्रयोग की जाने वाली एक सामान्य भाषा का जन्म हुआ। इस भाषा में कोई साहित्य नहीं था। इसके साहित्यिक गुण तो तब विकसित हुए जब धीरे-धीरे इस मिश्रित भाषा में कविताएं रची जाने लगीं।

उर्दू की उत्पत्ति

यह आश्चर्य की बात है कि उर्दू में साहित्यिक क्षेत्र में पहला प्रयास दिल्ली या आगरा में नहीं हुआ। यह दक्षिण में गोलकुंडा और बीजापुर की सल्तनतों में हुआ। भाषा में यह परिवर्तन वली के मान्यता पाने से प्रारंभ हुआ। वली (1723 ईस्वी) औरंगाबाद के थे और दिल्ली में आते रहते थे और निवास भी करते थे। आगे सौदा और मीर ने इसे पल्लवित किया। शिवाजी और मराठों को कुचलने के उद्देश्य से औरंगजेब लगभग 30 वर्ष तक दक्षिण में रहा। उसके इस प्रवास का परिणाम भाषा के विकास पर भी पड़ा। जब वह औरंगाबाद में रहता था तब उत्तर भारत के अनेक राजा और शासक विवश होकर उसके साथ रहते थे। यह स्वाभाविक है कि उनके नौकर-चाकर और सैनिकों ने स्थानीय बोलियों पर प्रभाव डाला और स्वयं ने भी उन बोलियों के शब्द ग्रहण किए। धीरे-धीरे इस भाषा को उर्दू नाम मिला। प्रारंभ में इसका नाम था जुबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला, अर्थात शाही दरबार की भाषा।

उर्दू शब्द का संबंध और उद्भव चीन और मंगोलिया से तथा हूणों और मंगोलों से भी है। हूण लोग चीन की ह्वांग हो नदी के किनारे बस गए थे। उस स्थान को ओर्दू (होर्दू) कहा जाने लगा। चीनी भाषा में ओर्दू का मूल अर्थ है घुमन्तू। जब हूण मध्य एशिया से आए तो वे तंबू से बने नगरों में रहते थे। इतिहासकार उजबेग खान (1312-1340) का उल्लेख करते हुए कहा जाता है-स्वर्णिम ओर्दू वाला खान। हाब्सन–जाब्सन के अनुसार उर्दू का उद्गम तुकर्ी के शब्द उर्दू से है। तुकर्ी में इसका अर्थ था तातार खान की छावनी। इससे यह संकेत मिलता है कि यह चीनी होर्दू से आया होगा। रूसी भाषा में इसका पर्याय है ओर्दा। अब यह शब्द अन्य एशियाई लोगों के लिए अपमानजनक या अपशब्द के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। स्वर्णिम ओर्दू शासक के निवास का घोतक था। आगे चलकर इसका प्रयोग राजा के महत्व के लिए होने लगा। उर्दू का संबंध होर्द से भी है। होर्द शब्द अंग्रेजी, फ्रांसीसी और जर्मन भाषा में है। वेबस्टर ने इसका उद्गम मंगोलिया के ओर्दू से माना है, जिसका अर्थ दरबार और छावनी दोनों है।

भारत में शासक के आवास के रूप में इसका प्रयोग बाबर के काल में हुआ। शासकीय निवास को उर्दू-ए-मुअल्ला कहा गया। महल या दरबार में प्रयुक्त भाषा को जुबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला (शाही दरबार की भाषा) नाम दिया गया। फिर यह छोटा होकर जुबान-ए-उर्दू और अंततोगत्वा भाषाशास्त्र के मुख-सुख के सिद्धांत से संक्षिप्त होकर उर्दू हो गया। दिल्ली में जामा मस्जिद के पास का बाजार उर्दू बाजार कहलाता है। कारण है कि वह राजकीय छावनी या आवास के निकट था। ऐसे ही उर्दू बाजार गाजीपुर और गोरखपुर में भी हैं।

राजनीति और उर्दू

अकबर के समय के कुछ सिक्कों पर लिखा है उर्दू-ए-जफर करीम (विजयी राजकीय दरबार या आवास)। शाहजहां ने भी यही अपने सिक्कों पर लिखवाया। आगरा और दिल्ली के लालकिलों को उर्दू-ए-मुअल्ला कहा जाता था। आगरा और दिल्ली में इस भाषा ने ब्रज, बांगडू और अन्य भारतीय भाषाओं का व्याकरण अपना लिया। किन्तु इसका शब्द भंडार मुख्यत: फारसी, तुकर्ी और अरबी आदि विदेशी भाषाओं से भर गया। उर्दू का व्याकरण हिन्दी के समान है, किन्तु यह अपने शब्द भंडार की वृद्धि के लिए अरबी और फारसी भाषा के शब्द लेकर फारसी व्याकरण के अनुसार उनसे नए शब्द गढ़ती है। उर्दू ही एकमात्र भारतीय भाषा है जिसकी रुचि सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत से शब्द ग्रहण करने की नहीं है। शेष सभी भारतीय भाषाएं संस्कृत स्रोत से शब्द लेकर आत्मसात करती हैं और अपनी शब्द शक्ति विकसित करती हैं। उर्दू के द्वार केवल अरबी-फारसी के शब्दों के लिए ही खुलते हैं। यह मुस्लिम वृत्ति का परिचायक है। भारत के अधिकांश मुस्लिम वे हैं जो मतान्तरण करके मुसलमान बने हैं। ये संपरिवर्तित मुस्लिम इस्लाम ग्रहण करते ही प्रत्येक भारतीय मूल्य और आस्था को छोड़ देते हैं। चाहे वे पूर्वज हों, नायक हों, इतिहास, संस्कृति या रूढ़ियां हों या धार्मिक और पवित्र स्थल हों या रीति रिवाज। स्वामी विवेकानंद ने इसीलिए कहा कि मतान्तरण होते ही व्यक्ति का राष्ट्रान्तरण हो जाता है।

मुहम्मद अली जिन्ना ने 28 मार्च, 1929 को जो 14 सूत्री मांग प्रस्तुत की थी, उसमें 12वीं मांग थी-

'संविधान में मुस्लिम संस्कृति के संरक्षण के लिए पर्याप्त रक्षोपाय होने चाहिए और मुस्लिम शिक्षा, भाषा, धर्म, वैयक्तिक विधि, मुस्लिम वक्फ के संरक्षण और प्रोन्नयन के उपबंध होने चाहिए और उन्हें राज्य और स्थानीय स्वशासी निकाय द्वारा अनुदान का प्रबंध होना चाहिए।'

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मुस्लिम लीग के पुनरीक्षित प्रस्तावों के बारे में अपने 6 अप्रैल, 1938 के पत्र में लिखा था-

मुसलमान चाहते हैं कि उर्दू भारत की राष्ट्रभाषा हो और वे विधिक रूप से यह प्रत्याभूति चाहते हैं कि उर्दू के प्रयोग को सीमित या बाधित नहीं किया जाएगा।

इस प्रकार उर्दू मुसलमानों से जुड़ गई। यह प्रारंभ में उच्च वर्ग के मुसलमानों का प्रयास था किन्तु बाद में मुस्लिम लीग और संयुक्त प्रांत और बिहार के मुल्ला, मौलवियों ने यह दावा किया कि यह मुसलमानों की कौमी जुबान है। जबकि केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल के रहने वाले मुसलमान आज भी उर्दू में वार्तालाप नहीं करते हें। 1971 में पाकिस्तान का विभाजन होकर एक नये राष्ट्र बंगलादेश का जन्म हुआ। बंगलादेश बनने का एक कारण यह भी था कि बंगालियों पर उर्दू लादी जा रही थी, जबकि वे अपनी मातृभाषा बंगला से अगाध प्रेम करते थे।

सत्ता के सहारे

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि उर्दू तभी पुष्पित और पल्लवित होती है जब उसे राज्याश्रय मिलता है। ब्रिटिश सरकार ने उसे निचली अदालतों और एक सीमा तक प्रशासन की भाषा बनाया था। स्वतंत्रता के पूर्व उत्तर प्रदेश और पंजाब में वह विद्यालयों में अनिवार्यत: पढ़ाई जाने लगी। जैसे ही यह अनिवार्यता समाप्त हुई उर्दू को विद्यार्थी मिलना बंद हो गए। हैदराबाद के निजाम ने उर्दू को प्रशासन की और उस्मानिया विश्वविद्यालय में सभी स्तरों पर शिक्षा की भाषा बना दिया था। किन्तु जैसे ही निजाम से सत्ता जनता के हाथों में आई उर्दू का गौरव क्षीण हो गया। कुछ ही वर्षों में उर्दू के ज्ञाता कम हो गए और हैदराबाद में उर्दू के समाचार पत्र एक के बाद एक बंद हो गए।

इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि उर्दू का जन्म भारत में हुआ, मुस्लिम नेताओं ने इसे अपनी 'कौमी जुबान' घोषित कर दिया। मुसलमानों का अभिजात्य वर्ग ईरान और अरब से आई प्रत्येक वस्तु को प्रेम और आदर देता है। इसलिए उन्होंने दावा किया कि यह भाषा उनके मजहब से संबद्ध है। आज भी मुसलमान इसे अपनी अनन्य संपत्ति मानते हैं। रघुपति सहाय फिराक, आनंद नारायण मुल्ला आदि अनेक शायर उसके पंथनिरपेक्ष चरित्र को रेखांकित करते रहे किन्तु मुस्लिम समाज का मन इसके विपरीत है। जब मुस्लिम समाज उस पर एकाधिपत्य दर्शाता है तो पंथनिरपेक्षता के सब दावे निरर्थक हो जाते हैं।

फारसी और अरबी स्रोतों पर आश्रय खोजने के कारण उर्दू की लोकप्रियता घट गई और उसे अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए राज्य के संरक्षण की मांग करनी पड़ी। दिनोंदिन वह कुछ थोड़े से लोगों के मुशायरे की भाषा बनती जा रही है। हिन्दी कवियों ने उर्दू की अनेक विधाओं जैसे, गजल, कता, रुबाई आदि को अपनाकर बहुत प्रगति की है और उर्दू के शायरों को पीछे छोड़ दिया है।

विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने की लालसा में यह साबित करने का निरर्थक प्रयास करते हैं कि वह पूरे देश की भाषा है जिसे सरकार का समर्थन मिलना चाहिए, किन्तु मुस्लिम समाज इसे स्वीकार नहीं करता। उदाहरणस्वरूप यहां कुछ दृष्टांत दिए जा सकते हैं-

0 हैदराबाद रियासत में तेलुगू, मराठी और हिन्दीभाषी लोग जनसंख्या का 92 प्रतिशत थे। यह होते हुए भी मुस्लिम शासकों ने उर्दू को राजभाषा और उस्मानिया विश्वविद्यालय में शिक्षा का माध्यम बनाया। हेदराबाद नगर में संस्कृत और हिन्दी की शिक्षा पर प्रतिबंध था। 0 जम्मू-कश्मीर में निवासियों की मुख्य मातृभाषाएं हैं डोगरी, कश्मीरी, गूजरी और लद्दाखी, किन्तु राजभाषा है उर्दू। इसका कारण यह है कि स्वतंत्रता के पश्चात वहां शेख अब्दुल्ला का शासन था। शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम कांफ्रेंस बनाई थी जिसका नाम बदलकर नेशनल कांफ्रेंस किया गया। जम्मू-कश्मीर एकमात्र राज्य है जिसने ऐसी भाषा को राजभाषा बनाया है जो उस राज्य के किसी भी वर्ग की भाषा नहीं है। 0 पाकिस्तान में 55 प्रतिशत जनसंख्या पंजाबी भाषी हैं, 13 प्रतिशत सिंधी भाषी है, 14 प्रतिशत बलोच, पश्तो आदि बोलते हैं। केवल 9 प्रतिशत लोग यह दावा करते हैं कि उर्दू उनकी मातृभाषा हैं। ये वे लोग हें जो उत्तर प्रदेश और बिहार से गए हें और मुख्यत: कराची में और उसके आसपास रहते हैं। फिर भी पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू है। यानी सोच यही है कि उर्दू इस्लाम की भाषा है।(लेखक भारत सरकार के विधि और न्याय मंत्रालय में अवर सचिव रहे हैं)

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