दरिद्र देवोभव
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का अनूठा आध्यात्मिक 'एजेंडा'
नरेन्द्रसहगल
निरंकुश भौतिकवाद के असंख्य प्रहारों से घायल होकर छटपटा रहे विश्व के जख्मों पर भारत के सर्व कल्याणकारी अध्यात्मवाद का मरहम लगाने वाले युवा संन्यासी स्वामी विवेकानंद के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपने सभी शिष्यों की एक लघु सभा में घोषणा की थी 'प्राचीन काल से जो ऋषि नर-नारायण के रूप में बद्रिकाश्रम में सम्पूर्ण जगत की भलाई के लिए तपश्चर्या करते बैठे हुए हैं, वे समय-समय पर देह धारण कर प्रकट होते हैं। वही नर ऋषि इस समय नरेन्द्र के नाम से प्रकट हुए हैं। यह नरेन्द्र धर्म की ध्वजा लेकर विश्व में सर्वत्र जाएगा और मानवों को जाग्रत करता हुआ ज्ञान को सर्वत्र प्रस्थापित कर सब प्रकार के अंधकार को निरस्त करेगा। इसकी सर्वत्र विजय होगी।' इतिहास साक्षी है कि अवतारी संत रामकृष्ण परमहंस के यह शब्द व्यवहार की कसौटी पर उस समय खरे उतरने लगे जब उनके शिष्य नरेन्द्र ने स्वामी विवेकानंद के रूप में 11 सितम्बर, 1893 को शिकागो में सम्पन्न हुए एक विश्व धर्म सम्मेलन में भारतीय तत्व ज्ञान की ध्वजा फहरा कर पाश्चात्य जगत की इस गलतफहमी को दूर कर दिया था कि ईसाइयत प्रधान पश्चिमी देशों की सभ्यता दुनिया की एकमात्र अतुलनीय विचारधारा है और भारत का तो कोई वैचारिक धरातल है ही नहीं। भारत में जो कुछ भी है वह गडरियों, सपेरों, अशिक्षितों, गुलामों और भूखे-नंगों की पिछड़ी विचारधारा है।
नर ही नारायण है
स्वामी विवेकानंद ने अमरीका में अपने इस पहले ही उद्बोधन में ईसाई पादरियों, विद्वानों और कथित प्रगतिशील विचारकों की भारत के प्रति बनी अत्यंत कुंठित और नकारात्मक सोच के अहंकार को धराशायी कर दिया। पूर्वकाल में संसार भर के उत्पीड़ितों, शरणार्थियों और भूख से व्याकुल दरिद्रों को शरण देने वाले भारत का वास्तविक परिचय करवाने के लिए स्वामी जी ने अपने इस प्रथम उद्बोधन में कहा 'मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त मत-पंथों और देशों द्वारा सताए गए, नकार दिए गए और असहाय लोगों को आश्रय दिया है।'
स्वामी जी ने अपने देश और विदेश के इस तरह के पतित, गरीब और बेसहारा लोगों को दरिद्र नारायण कहकर उन्हें भगवान का स्वरूप माना और इसी भगवान की पूजा अर्थात सेवा सहायता करने का संदेश समस्त मानवता को दिया। इस युवा संत ने अपने देश भारत में करोड़ों की संख्या में भूखे प्यासे लोगों की सेवा के काम को अपने आध्यात्मिक 'एजेंडे' में सबसे ऊपर रखा था। स्वामी जी ने मंदिरों में जाकर घंटियां बजाने वाले भक्तों, लाखों रुपयों की बर्बादी करके बड़े-बड़े धार्मिक समारोहों के आयोजकों, गंगा और यमुना में डुबकियां लगाने वाले देशवासियों और वनों, आश्रमों में धूनी रमाकर सिद्धियां प्राप्त करने वाले संत-महात्माओं को भगवान के वास्तविक स्वरूप दरिद्र नारायण की सेवा करने की प्रेरणा दी थी।
नरसेवा नारायण सेवा
गरीबों और असहायों को साक्षात् भगवान का ही स्वरूप मानने और उनकी सेवा को भागवत पूजा मानने वाले स्वामी विवेकानंद को एक दिन स्वामी रामकृष्ण देव परमहंस ने अपने पास बुलाकर कहा, 'बेटा! योग साधना से मैंने बहुत सी सिद्धियां प्राप्त कर ली हैं। मैंने तो उनका उपयोग किया नहीं, उन्हें मैं तुम्हें देना चाहता हूं। श्रीगुरु द्वारा दी जा रही इतनी बड़ी वस्तु और वह भी निशुल्क, इस पर तो कोई भी शिष्य लट्टू हुए बिना नहीं रह सकता। परंतु गुरु की वर्षों-पर्यंत साधना की महानतम उपलब्धि को क्षणभर में प्राप्त कर लेने के अवसर को स्वामी विवेकानंद ने उसी वक्त अस्वीकार कर दिया। स्वामी जी ने पूछा, 'गुरुदेव इन सिद्धियों से क्या ईश्वर का दर्शन करने का सामर्थ्य प्राप्त हो सकेगा।' अपने परम शिष्य से इसी उत्तर की अपेक्षा कर रहे महाराज रामकृष्ण देव बोले 'नहीं ईश्वर से साक्षात्कार तो नहीं कराया जा सकेगा, परंतु सांसारिक सुख-सुविधाएं अवश्य प्राप्त हो सकेंगी।' गरीबों, मजदूरों की झुग्गी झोपड़ियों में भगवान की खोज करने वाले ज्ञानी और विरक्त शिष्य ने तुरंत कह दिया 'तो गुरुदेव ऐसी सांसारिक सिद्धियां मेरे लिए निरर्थक हैं। उन्हें लेकर मैं क्या करूंगा।'
स्वामी विवेकानंद के इस उत्तर से उनके श्री गुरुदेव को समझते देर नहीं लगी कि उनके शिष्य को सिद्धियों और सुविधाओं से कुछ भी लेना देना नहीं है। वह तो राष्ट्र और समाज के उत्थान के लिए ही अपनी सारी शक्तियों और क्षमताओं को लगा देना चाहता है। उसे अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए। इसके बाद जब स्वामी जी ने अपने जेहन में गहरे तक समाई हुई दरिद्र नारायण की सेवा की मंशा की जानकारी दी तो रामकृष्ण देव गद्गद् हो उठे। युवा नरेन्द्र नाथ दत्त की इस अनूठी और अनुपम पूजा प्रणाली (बेसहारों की सहायता) की गहराई का पता भारत सहित पूरे संसार को तब चला जब उन्होंने स्वामी विवेकानंद के रूप में घोषणा की 'आपको सिखाया गया है कि अतिथि देवो भव, पितृ देवो भव, मातृ देवो भव। पर मैं आपसे कहता हूं दरिद्र देवो भव, अज्ञानी देवो भव, मूर्ख देवो भव।'
सेवा करे वही महात्मा
निरंकुश शासन व्यवस्थाओं, अनर्थकारी आर्थिक नीतियों, अहंकारी सिद्ध पुरुषों और संकुचित धार्मिक कर्मकांडों के कारण उत्पीड़ित समाज को भगवान समझकर उसकी पूजा (सेवा) करने का अध्यात्मिक एजेंडा स्वामी जी ने न केवल भारतीयों, बल्कि समस्त मानव जाति के समक्ष रखा। स्वामी विवेकानंद ने बेधड़क होकर कहा 'यदि तुम्हें भगवान की सेवा करनी है, तो मनुष्य की सेवा करो। भगवान ही रोगी मनुष्य, दरिद्र पुरुष के रूप में हमारे सामने खड़ा है। वह नर के वेष में नारायण है।'
अपने पहले विदेश प्रवास के पश्चात विश्व विख्यात और विश्व प्रतिष्ठित बनकर भारत लौटने पर एक स्थान पर आयोजित भव्य कार्यक्रम में जब स्वामी जी को महान संत और उच्चतम ज्ञान का पुंज कहा गया तो स्वामी जी ने बहुत ही गंभीर होकर विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया, 'मैं कोई तत्ववेता नहीं हूं और न ही कोई संत या दार्शनिक ही हूं। मैं तो गरीब हूं और गरीबों का अनन्य भक्त हूं। मैं तो सच्चा महात्मा उसे ही कहूंगा जिसकी आत्मा गरीबों के लिए तड़पती हो।' अपने इसी मानवतावादी दृष्टिकोण को व्यावहारिक धरातल पर रखते हुए स्वामी जी ने धर्म को कर्मकांड की तंग लकीरों से निकालकर सामाजिक परिवर्तन की दिशा का सशक्त आधार बनाने का प्रयास किया। अज्ञान और गरीबी के दबाव में कराह रही मनुष्य जाति के उत्थान और कल्याण को सर्वोपरि मानने वाले इस राष्ट्र संत ने अपने अध्यात्मिक एजेंडे की पूर्ति के लिए फौलादी शक्ति और अदम्य मनोबल को आधार बनाने पर बल दिया था।
प्रेम ही सच्ची उपासना
अनैतिक सामाजिक व्यवस्थाओं और धार्मिक संस्थाओं के कुप्रबंधन के कारण समाज द्वारा प्रताड़ित किए जा रहे दरिद्र और साधनहीन लोगों के प्रति हमदर्दी स्वामी जी में अकस्मात ही जाग्रत नहीं हुई थी। बचपन से ही उनका स्वभाव दयालु था। घर-घर जाकर मांगने वाले भिखारियों की दशा देखकर उनकी आंखों में आसुओं की झड़ी लग जाती थी। इस तरह के गरीब लोगों को वे अपने कपड़े तक उतार कर देने में परहेज नहीं करते थे। अपने घर की रसोई से रोटी इत्यादि लाकर भूखे भिखारियों को खिलाना उनके स्वभाव का विशेष हिस्सा था। विशेषतया किसी त्योहार के अवसर पर तो बालक नरेन्द्रनाथ अपने और अपने परिवार वालों के कपड़े उठाकर जरूरतमंदों में बांट देते थे। ऐसे ही एक अवसर पर उनकी माता भुवनेश्वरी देवी ने अपने इस नटखट परंतु दयालु बेटे को घर के ऊपर की मंजिल में भेज कर नीचे ताला लगा दिया। तभी ठंड से ठिठुरते एक भिखारी की आवाज आई 'सर्दी लग रही है कपड़ा दो।' इस करुणाजनक प्रार्थना से बालक नरेन्द्र का हृदय द्रवित हो गया और उसने ऊपर के कमरे में पड़े एक नये कंबल को खिड़की के रास्ते से भिखारी के ऊपर फेंक दिया।
गरीबों के प्रति स्वामी विवेकानंद की मानसिक अंतर्वेदना का अनुमान कलकत्ता में पड़े अकाल के समय उनकी छटपटाहट से लगाया जा सकता है। स्वामी जी ने अपने गरुभाई स्वामी अखंडानंद को पत्र लिखकर निर्देश दिया 'भिन्न-भिन्न स्थानों में जाओ, धन एकत्रित करो और उसे जनसेवा में लगाओ। धर्म का प्रचार इसके साथ अपने आप हो जाएगा। यदि भूखों को भोजन का ग्रास देने में सब कुछ नष्ट हो जाए तब भी हम भाग्यशाली हैं, अत्यंत भाग्यवान हो तुम। हृदय ही विजय प्राप्त कर सकता है मस्तिष्क नहीं। पुस्तकें, विद्या, योग, ध्यान और ज्ञान सब प्रेम की तुलना में धूलि के समान है। प्रेम ही शक्ति, भक्ति है और यही मुक्ति की ओर ले जाता है। प्रेम व मानव सेवा ही ईश्वर की सच्ची उपासना है।'
मानव देह सर्वश्रेष्ठ मंदिर
स्वामी जी अल्मोड़ा के अपने सभी कार्यक्रमों को छोड़कर तुरंत प्लेग पीड़ित कलकत्ता में जा पहुंचे। रोगियों की सेवा करते हुए उन्होंने यहां तक कह दिया 'पीड़ितों की सेवा के लिए आवश्यकता पड़ने पर मठ की भूमि तक भी बेच देंगे। हजारों असहाय नर नारी हमारे नेत्रों के सामने कष्ट पाते रहें और हम मठ में रहें, यह असंभव है। हम संन्यासी हैं, वृक्षों के नीचे निवास करेंगे और भिक्षा मांगकर जीवित रह लेंगे।' कलकत्ता महानगर में फैली प्लेग से ज्यादा प्रभावित होने वाले मेहतरों, डोमों और अन्य गरीब व मेहनतकश लोगों की दिन रात सहायता करते समय स्वामी जी अपने शिष्यों एवं गुरु भाइयों को समझाया करते थे, 'यदि आप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करना चाहते हो, तो इन पीड़ितों की सेवा में जुट जाओ। इससे बड़ा धर्म और कोई भी नहीं हो सकता है।'
स्वामी विवेकानंद के भाषणों में उनके हृदय का चीत्कार अनेक बार प्रस्फुटित हुआ। अपने एक सारगर्भित उद्बोधन में वे कहते हैं, 'हमारे देह मंदिर में प्रतिष्ठित आत्मा ही एकमात्र भगवान है। समस्त प्राणियों की देह भी मंदिर ही है, परंतु मानव की देह सर्वश्रेष्ठ मंदिर है। यदि मैं उसमें भगवान की पूजा न कर सकूं तो फिर अन्य कोई भी ईंट पत्थर का मंदिर काम का नहीं होगा। मानव की देह तो चलता-फिरता और चैतन्यमय मंदिर है। जब भी कभी आपको अवसर मिले प्रभु की संतानों की सेवा करो, यह साक्षात भगवान की ही तो सेवा है। ऐसा करते समय अपने आपको कभी बड़ा न समझें। आप धन्य हैं कि यह अवसर आपको दिया गया, दूसरों को नहीं। सचमुच तुम धन्य हो कि साक्षात भगवत्स्वरूप गरीब भिखारी तुम्हारे द्वार पर आया है। उसे पूजा की ही दृष्टि से देखो। दुखी और गरीब लोग तो हमारी ही मुक्ति के लिए हैं, ताकि रोगी, कोढ़ी, पापी और पागल के रूप में अपने सामने आने वाले प्रभु की हम सेवा पूजा कर सकें।'
दीन-हीनों में शिव
हिन्दुओं के प्रसिद्ध त्योहारों में से एक शिवरात्रि के अवसर पर कलकत्ता में ही स्वामी जी ने अपने अनुयायियों को समझाते हुए कहा 'जो शिव की पूजा करना चाहता है उसे पहले उनकी संतानों की अर्थात सृष्टि के सभी जीवों की सेवा करनी चाहिए। शास्त्रों में कहा है कि जो भगवान के भक्तों की सेवा करता है वही भगवान का सबसे बड़ा सेवक है। निस्वार्थता ही धर्म की कसौटी है। जिस व्यक्ति में निस्वार्थता की मात्रा अधिक है वह अधिक आध्यात्मिकता सम्पन्न है और शिव के अधिक निकट है। यदि कोई स्वार्थी है तो वह शिव से बहुत दूर है, भले ही उसने सारे मंदिरों के दर्शन क्यों न किए हों, सभी तीर्थों में ही क्यों न घूमा हो, अपने को चीते के समान क्यों न रंग डाला हो और कर्मकांड के हजारों ढोंग क्यों न किए हों। शिव उस व्यक्ति पर अधिक प्रसन्न होते हैं जिसने बिना किसी प्रकार के जाति, धर्म या सम्प्रदाय का विचार किए एक दीन हीन में शिव के दर्शन करके उसकी सेवा सहायता की हो।'
अपनी चिर समाधि का समय निकट आता देख स्वामी विवेकानंद ने भारतवासियों, विशेषतया युवकों को दिए गए अपने अंतिम संदेश में कहा 'हे नवयुवको मैं गरीबों और पीड़ितों के लिए एक सहानुभूति और अथक प्रयत्न को थाती के तौर पर आपको सौंपता हूं। जाओ इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी के मंदिर में, जो गोकुल के दीन दरिद्र के सखा थे, जो गुहक चण्डाल को भी गले लगाने में नहीं हिचके, जिन्होंने अपने बुद्ध अवतार में अमीरों का न्योता अस्वीकार कर एक वारांगना का न्योता स्वीकार किया और उसे उबारा। जाओ उनके पास जाकर साष्टांग प्रणाम करो, उनके सम्मुख अपने जीवन की आहुति दो। आप स्वयं का बलिदान उन दीन, पतित और सताए जा रहे लोगों के लिए दो जिनके लिए स्वयं भगवान युग-युग में अवतार लिया करते हैं और जिन्हें वह सबसे ज्यादा प्यार करते हैं।'
स्वामी जी ने एक ऐसे भारतीय समाज की कल्पना की थी जिसकी जीवन रचना समता और सौहार्द के मूल्यों पर आधारित है। वेदांत आधारित भारतीय चिंतन जिसमें छोटे-बड़े के भेद, जाति आधारित विभाजन, सार्वजनिक सम्पत्ति पर किसी विशेष वर्ग के एकाधिकार और गरीब जनों, वंचितों के एकतरफा शोषण के लिए कोई स्थान नहीं, स्वामी जी के आध्यात्मिक 'एजेंडे' का आधार बन गया।
स्वामी जी की सारी विचार शक्ति भारत के कोने-कोने में बिखरे हुए वंचित समाज के उत्थान की योजनाओं पर टिकी रहती थी। विदेश के अपने दूसरे प्रवास के बाद देश लौटने पर उन्होंने भारतवासियों से कहा था 'उठो, जागो और स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। भारत के नव निर्माण के लिए उन्होंने दरिद्र नारायण यानी गरीब और किनारे पर बैठे हुए भारतीयों का पुरजोर आह्वान इन ऐतिहासिक शब्दों में किया 'नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूजे के झाड़ से, कारखाने से हाट से, बाजार से, निकल पड़े झोपड़ियों, जंगलों, पहाड़ों और पर्वतों से।' स्पष्ट है स्वामी जी का सारा चिंतन और गतिविधियां भविष्य के एक ऐसे देशव्यापी जनांदोलन की शुरुआत और शक्तिशाली संगठन के निर्माण की कल्पना पर केन्द्रित थी।
ईश्वर मानव की सेवा में जुटें
अपनी इन्हीं कल्पनाओं को भविष्य में साकार होते देखने के चिंतन के साथ स्वामी विवेकानंद ने 4 जुलाई 1902 को महासमाधि की अवस्था में अपना शरीर छोड़ दिया। स्वामी जी के बाद के कालखंड में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध जारी स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी के आगमन के साथ ही देशव्यापी जनांदोलन का प्रारंभ होना और इसी कालखंड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे राष्ट्रवादी विशाल हिन्दू संगठन की स्थापना और उसकी शाखाओं में लाखों देशभक्त चरित्रवान और समर्पित युवकों का इकट्ठे होना स्वामी विवेकानंद की कल्पना का ही साकार रूप है।
आध्यात्मिक सत्ता और ईश्वरीय कार्य योजना में आस्था रखने वाले अनेक लोग तो रा.स्व.संघ के दूसरे सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर को स्वामी विवेकानंद का अवतार मानते हैं। समाज में सम्मानपूर्वक श्री गुरु जी कहलाने वाले संघ के द्वितीय सरसंघचालक का जन्म 19 फरवरी, 1906 में हुआ था। इसके लगभग 4 वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानंद ने देह त्याग किया था। श्री गुरुजी ने स्वामी विवेकानंद के गुरु भाई स्वामी अखंडानंद से संन्यास दीक्षा ग्रहण की थी। स्वामी अखंडानंद के आदेश निर्देश से ही श्री गुरुजी ने समाज को ही ईश्वर मानकर उसकी पूजा अर्थात सेवा में अपना दिव्य आध्यात्मिक चेतना से युवक जीवन समर्पित कर दिया। श्री गुरुजी के इसी संकल्प, क्षमता और प्रबल इच्छाशक्ति को देखकर संघ संस्थापक डा. हेडगेवार ने उन्हें अपने बाद सरसंघचालक का गुरुतर दायित्व सौंप दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वामी विवेकानंद के चिंतन के साकार रूप में गत 87 वर्षों से समाज व राष्ट्रसेवा में सक्रिय है।
अत: श्रीगुरुजी के इन शब्दों का वर्तमान संदर्भ में अवलोकन करने की आवश्यकता है 'आइए जिस महापुरुष के ज्योतिपुंज में से सारे जगत को आलोकित करने वाली ज्योति लेकर स्वामी जी विदेशों में गए, उन महा युगावतार रामकृष्ण और उनके सर्वश्रेष्ठ लीला सहचर स्वामी विवेकानंद का हम बार बार- स्मरण करें, उनकी वाणी का अध्ययन करें, उनके जीवन के आलोक में अपना जीवन गठित करें, मानव की सेवा में जुटें और किसी प्रकार के स्वार्थ को अपनी मनोवृत्ति में बाधा के रूप में आकर खड़ा न होने दें और अपने जीवन को परिपूर्ण बनाकर इस सत्य को एकबार फिर से सिद्ध कर दें कि भारतमाता का एक एक पुत्र स्वामी विवेकानंद के तेज से तेजान्वित होकर विश्व को सत्य का ज्ञान देने में पूरी तरह सक्षम है।'
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