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भागवत जी ने यह कहा था–
0 'इंडिया में जो यह घट रहा है, बढ़ रहा है, वह बहुत खतरनाक और अश्लाघ्य (निन्दा के योग्य) है। लेकिन ये भारत में नहीं है। यह इंडिया में है। जहां इंडिया नहीं है, केवल भारत है, वहां ये बातें नही होतीं, आज भी। क्योंकि यह होने के पीछे अनेक कारण हैं। उसमें एक प्रमुख कारण यह भी है कि हम मानवता को भूल गये, संस्कारों को भूल गये।
0 दुनिया की महिला की तरफ देखने की दृष्टि वास्तव में क्या है? दिखता है कि, महिला पुरुष के लिए भोगवस्तु है।
0 हम कहते हैं कि महिला जगज्जननी है। कन्या भोजन होता है हमारे यहां, क्योंकि वह जगज्जननी है। आज भी उत्तर भारत में कन्याओं को पैर छूने नहीं देते, क्योंकि वह जगज्जननी का रूप है। उल्टे उनके पैर छुए जाते हैं।
0 'हमारी महिलाओं की ओर देखने की दृष्टि– वे मातृशक्ति हैं, यही है। वे भोगवस्तु नहीं, देवी हैं। प्रकृति की निर्मात्री हैं। हम सब लोगों की चेतना की प्रेरक शक्ति हैं और हमारे लिए सब कुछ देनेवाली माता हैं। यह दृष्टि जब तक हम सबमें लाते नहीं तब तक ये बातें रुकेंगी नहीं। केवल कानून बनाने से काम नहीं चलेगा। वो होना चाहिए, किन्तु उसके साथ संस्कार भी होने चाहिए।'
…मैकाले की आत्मा आज प्रसन्न होगी। आखिर उसकी शिक्षा पद्धति में पले-बढ़े, शक्ल-सूरत और रक्त-मज्जा से भारतीय, पर दिमाग से 'इंडियन' बन चुके एक बड़े वर्ग को अपने 'इंडिया' में वह कुछ भी नहीं दिखता जो 1835 में मैकाले को भारत में दिख रहा था। मैकाले को भारत में उच्च आदर्शों और अत्यधिक क्षमतावान चरित्र के दर्शन हुए थे, जहां न कोई भिखारी था और न कोई चोर। इससे वह आश्चर्यचकित था और भारत की इस समृद्धि का आधार उसे यहां की प्राचीन शिक्षा पद्धति में दिखा, जिसके कारण भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर संरक्षित थी। उसी शिक्षा पद्धति को उसने बदला, ताकि भारत खुद को भूलकर अंग्रेजों की दासता स्वीकारने वाला 'इंडिया' बन सके। और ऐसा प्रतीत होता है कि उसका षड्यंत्र सफल रहा, तभी तो तन से भारतीय और मन से अंग्रेज बन चुका एक बड़ा वर्ग, जो स्वयं को अभिजात्य समझता है, सेकुलर बताता है, हर उस बात और वस्तु से चिढ़ता है, उसका तिरस्कार करता है, जिसमें उसे भारत और भारतीयता की झलक मिलती है। रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने हाल ही में देश की एक ज्वलंत समस्या के संदर्भ में जो कुछ भी कहा, उसकी सेकुलर मीडिया और सेकुलर राजनीतिक दलों ने जैसी व्याख्या की, दुष्प्रचार का जैसा गुबार उठाया, उससे एक बार फिर स्पष्ट हो गया जनभावनाओं के उभार पर अपनी दुकानदारी चला रहे कुछ दल और उनके पहरुआ बने मीडिया का एक बड़ा वर्ग सिर्फ सनसनी पैदा करना चाहता है, समस्या के वास्तविक कारण और उसके समाधान तक पहुंचने में उसकी कोई रुचि नहीं है।
अपने असम प्रवास के दौरान जब रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत सिल्चर पहुंचे तो वहां आयोजित प्रबुद्ध नागरिकों के सम्मेलन में एक सज्जन ने उनसे जो प्रश्न किया और श्री भागवत ने उसका जो उत्तर दिया, वह जस का तस यहां प्रस्तुत है-
प्रश्न– ये जो इंडिया में आजकल जो अट्रॉसिटीज अगेन्स्ट विमेन (महिलाओं के विरुद्ध अपराध), रेप्स (बलात्कार), मॉलेस्टेशन (दुराचार) बढ़ रहे हैं, इनमें हिन्दुओं पर ज्यादा अत्याचार होते दिख रहे हैं। यह हिन्दुओं का मनोबल नष्ट करने का प्रयास लग रहा है। इसके संदर्भ में आपके क्या विचार हैं?'
श्री भागवत ने उत्तर दिया– “इंडिया में जो यह घट रहा है, बढ़ रहा है, वह बहुत खतरनाक और अश्लाघ्य (निन्दा का योग्य) है। लेकिन ये भारत में नहीं है। यह इंडिया में है। जहां इंडिया नहीं है, केवल भारत है, वहां ये बातें नही होतीं, आज भी। क्योंकि यह होने के पीछे अनेक कारण हैं। उसमें एक प्रमुख कारण यह भी है कि हम मानवता को भूल गये, संस्कारों को भूल गये। मानवता व संस्कार पुस्तकों से नहीं आते, परम्परा से आते हैं। लालन-पालन से मिलते हैं, परिवार से मिलते हैं, परिवार में हम क्या सिखाते हैं, उससे मिलते हैं।
दुनिया की महिला की तरफ देखने की दृष्टि वास्तव में क्या है? दिखता है कि, महिला पुरुष के लिए भोगवस्तु है। किन्तु वे ऐसा बोलेंगे नहीं। बोलेंगे तो बवाल हो जाएगा। किन्तु मूल में जाकर आप अध्ययन करेंगे तो महिला उपभोग के लिए है, ऐसा ही व्यवहार रहता है। वह एक स्वतंत्र प्राणी है, इसलिए उसे समानता दी जाती है, किन्तु भाव वही उपभोग वाला होता है। हमारे यहां ऐसा नहीं है। हम कहते हैं कि महिला जगज्जननी है। कन्या भोजन होता है हमारे यहां, क्योंकि वह जगज्जननी है। आज भी उत्तर भारत में कन्याओं को पैर छूने नहीं देते, क्योंकि वह जगज्जननी का रूप है। उल्टे उनके पैर छुए जाते हैं। बड़े-बड़े नेता भी ऐसा करते हैं। उनके सामने कोई नमस्कार करने आए तो मना कर देते हैं, स्वयं झुककर नमस्कार करते हैं। वे हिन्दुत्ववादी नहीं हैं, फिर भी ऐसा करते हैं, क्योंकि यह परिवार के संस्कार हैं। अब यह संस्कार आज के तथाकथित 'एफ्लुएन्ट' (दौलतमंद) परिवार में नहीं हैं। वहां तो 'करियरिज्म' है। पैसा कमाओ, पैसा कमाओ। बाकी किसी चीज से कोई लेना-देना नहीं।
शिक्षा से इन संस्कारों को बाहर करने की होड़ चली है। शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने के लिए होती है। किन्तु आजकल ऐसा नहीं दिखता। शिक्षा मानवत्व से देवत्व की ओर ले जाने वाली होनी चाहिए, किन्तु ऐसी शिक्षा लगभग शिक्षा संस्थानों से हटा दी गई है। समाज में बड़े लोगों को जो आदर्श रखने चाहिए, वो आदर्श आज नहीं रखे जाते। उसको ठीक किया जाना चाहिए। कड़ा कानून बिल्कुल होना चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं है। कड़ी सजा दोषियों को होनी ही चाहिए, फांसी होती है तो हो। लेकिन केवल कानूनों और सजा के प्रावधानों से बात नहीं बनती। ट्रैफिक (यातायात) के लिए कानून है मगर क्या स्थिति होती है? जब तक पुलिस होती है, तब तक कानून मानते हैं। कभी-कभी तो पुलिस के होने पर भी नहीं मानते। जितना बड़ा शहर और जितने अधिक संपन्न व सुशिक्षित लोग, उतने ज्यादा ट्रैफिक के नियम तोड़े जाते हैं। मैं कोई टीका-टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। केवल ऑब्जर्व (देख) कर रहा हूं। इसके विपरीत हमारे वनवासी क्षेत्रों में चले जाएं। जहां अनपढ़ लोग हैं, गरीब लोग हैं। उनके घर का वातावरण देखो। कितना आनन्द होता है। कोई खतरा नहीं। बहुत सभ्य, बहुत सुशील। वहां परम्परा, परिवार की शिक्षा कायम है। शहरों में शिक्षा का मनुष्यत्त्व से नाता हमने तोड़ दिया, इसीलिए ऐसा होता है।
हमारी महिलाओं की ओर देखने की दृष्टि- वे मातृशक्ति हैं, यही है। वे भोगवस्तु नहीं, देवी हैं। प्रकृति की निर्मात्री हैं। हम सब लोगों की चेतना की प्रेरक शक्ति हैं और हमारे लिए सब कुछ देनेवाली माता हैं। यह दृष्टि जब तक हम सबमें लाते नहीं तब तक ये बातें रुकेंगी नहीं। केवल कानून बनाने से काम नहीं चलेगा। वो होना चाहिए किन्तु उसके साथ संस्कार भी होने चाहिए।”
श्री भागवत का यह पूरा वक्तव्य पढ़ने के बाद क्या किसी को किसी स्पष्टीकरण की कोई आवश्यकता है? लेकिन भारत और इंडिया के भेद को गांव और शहर का भेद बताकर समाचार चैनल कूद पड़े झूठ का प्रचार और व्यापार करने। हालांकि इस दुष्प्रचार का भारतीय समाज और संघ के स्वयंसेवकों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, न पड़ना था, क्योंकि वह जानता है कि रा.स्व.संघ और उसके समर्पित कार्यकर्त्ता मातृशक्ति का कितना सम्मान करते हैं। जो संघ हिन्दू संस्कृति और हिन्दू संस्कारों के आधार पर राष्ट्र को परम वैभव के शिखर पर ले जाना चाहता है, उसी संघ के प्रमुख के इंदौर में विवाह के संबंध में दिए एक दूसरे वक्तव्य पर मीडिया का यही वर्ग एक बार फिर दुष्प्रचार की आंधी चलाने के प्रयास में लगा। हिन्दू समाज, जिसके लिए विवाह एक अटूट संबंध है, सात फेरे यानी सात जन्मों के साथ की कल्पना की जाती है, उस संबंध में श्री भागवत के बयान को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत कर सनसनी बनाने में भी सेकुलर मीडिया जी-जान से जुट गया। श्री भागवत ने इंदौर में जो कुछ कहा और उसे जिस रूप में प्रचारित किया गया, उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए इंदौर में स्वामी परमानंद योग थेरेपी अस्पताल के अनावरण समारोह में बोलते हुए श्री भागवत के कथन को जानना आवश्यक है-
श्री भागवत ने कहा, “पिछले 300 साल में मनुष्य अपने विचारों के अहंकार में विचार करता गया, करता गया, जो मैं कहता हूं वही सत्य है, ऐसा मानता गया। उसका अहंकार इतना बढ़ गया कि उसने कहा कि अगर परमेश्वर है तो उसको मेरे टेस्ट ट्यूब में उपस्थित होना पड़ेगा, तभी मानूंगा। जब ऐसी स्थिति आई तो विचार निकला कि दुनिया क्या है, आत्मा-परमात्मा बेकार की बात है, सब कुछ जड़ का खेल है। कोई एक हिंग्ज बोसोन है, वो कणों को वस्तुमान प्रदान करता है, फिर ये कण आपस में टकराते हैं, कुछ मिल जाते हैं, कुछ बिखर जाते हैं, उसमें से ऊर्जा भी उत्पन्न होती है और उसमें से पदार्थ भी उत्पन्न हो जाते हैं। और इसका नियम कुछ नहीं, सम्बन्ध ही कुछ नहीं है। न एक कण का दूसरे कण से कोई सम्बन्ध है, न इस सृष्टि में किसी का किसी से सम्बन्ध है। तो लाखों वर्षों से कैसे चली आ रही दुनिया, तो वे कहते हैं संबंधों की बात नहीं, स्वार्थ की बात है, एक सौदा है, 'थ्योरी आफ कांट्रैक्ट, थ्योरी आफ सोशल कांट्रैक्ट'। पत्नी से पति का सौदा तय हुआ है। इसको आप लोग विवाह संस्कार कहते होंगे, लेकिन वह सौदा है, तुम मेरा घर संभालो मुझे सुख दो, मैं तुम्हारे पेट-पानी की व्यवस्था करूंगा और तुमको सुरक्षित रखूंगा। जब तक पत्नी ठीक है तब तक पति कांट्रैक्ट के रूप में उसको रखता है, जब पत्नी कांट्रैक्ट पूर्ण नहीं कर सकती तो उसको छोड़ो। किसी कारण पति कांट्रैक्ट पूर्ण नहीं करता तो उसको छोड़ो। दूसरा कांट्रैक्ट करने वाला खोजो। ऐसे ही चलता है- सब बातों में सौदा है। अपने विनाश के भय के कारण दूसरों की रक्षा करना। पर्यावरण को शुद्ध रखो, नहीं तो क्या होगा? नहीं तो, मनुष्य का विनाश हो जायेगा। मनुष्य का विनाश नहीं हो तो पर्यावरण से कोई मतलब नहीं। इसलिये एक तरफ वृक्षारोपण के कार्यक्रम करना, दूसरी तरफ फैक्ट्री का मैला नदी में छोड़ना। दोनों काम एक साथ करना।…
और भारत के विचार क्या कहते हैं इस मामले में? वे कहते हैं ऐसा नहीं है भाई, दुनिया संबंधों पर आधारित है, दिखता अलग है लेकिन सब एक हैं। यूं कहो कि एक ही अनेक रूप में प्रगट हुआ है। इसलिए सब एक-दूसरे से जुड़ा है। विश्व में कहीं पर घटित होने वाली अर्थहीन घटना भी, सारे विश्व के व्यापार पर कुछ न कुछ परिणाम करती है। किसी का विनाश हो रहा है तो वो तुम्हारा ही विनाश है। तुम उस से जुड़े हो, तुम उसी के अंग हो। मनुष्य हो, कोई सृष्टि के बाहर नहीं हो।…अपने यहां पर भारत में से जितनी भी विचारधाराएं निकली हैं, सबने यही बताया है, शब्द अलग-अलग हैं।”
पश्चिम, जो भारत को 'इंडिया' कहता, बताता और बनाना चाहता है, वहां विवाह एक समझौता है, इसलिए वहां समझौता बनता और टूटता रहता है। इंग्लैण्ड में आपको परिचय कराते समय कई जोड़े ऐसे मिल जाएंगे जो बताएंगे कि मैं इनकी तीसरी पत्नी हूं और ये मेरे सातवें पति हैं। उस समझौतेवादी विवाह के विपरीत भारतीय संस्कारों में एक पति एक पत्नी का अर्थ ही अंतिम सांस तक का साथ होता है। उस भारतीय दर्शन को ही रेखांकित कर रहे संघ प्रमुख के वक्तव्य को विवादित बनाने के पीछे आखिर मीडिया के एक वर्ग का उद्देश्य क्या हो सकता है? यही कि सेकुलरवाद व विदेशी पूंजी के दबाव में भारतीय जीवन मूल्यों, हिन्दुत्वनिष्ठ राष्ट्रभक्त संगठनों व हमारे प्रेरणास्रोतों के प्रति अनास्था पैदा कर बौद्धिक भ्रम फैलाना, ताकि भारत-भारत न रहे और यहां बाजारवादी ताकतें फलें-फूलें। इसके लिए सनसनी मीडिया का हथियार बन गई है। और उस सनसनी का असर यह होता है कि बिना सच और तथ्य को जाने, लोग चटखारे लेकर बेसिरपैर की चर्चा में लग जाते हैं और मीडिया का 'माल' बिकता है। सेकुलरवाद की बीमार मानसिकता से ग्रस्त नेता भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहते। इसी तर्ज पर जनता दल (यू) के प्रवक्ता शिवानंद तिवारी सरीखे लोग भी राष्ट्रभक्तों की तुलना 'देशद्रोही' विधायक अकबरूद्दीन ओवैसी से करने लगते हैं।
आप ही सोचिए, यह देखकर मैकाले की आत्मा क्यों प्रसन्न न होगी, जब वह देखेगी कि उसके दिखाए मार्ग पर चलकर भारत वैसा ही 'इंडिया' बन गया जैसा वह चाहता था। वह भारत अपनी प्राचीन संस्कृति के अनुरूप माताओं-बहिनों के सम्मान और गौरव की बजाय नारी मुक्ति के उस प्रवाह में बह रहा है, यह देखे बिना कि मैकाले के उसी देश (यूनाइटेड किंग्डम) में बलात्कार और यौन उत्पीड़न पर कठोर कानूनों के बावजूद इस तरह के मामले रुके नहीं, निरन्तर बढ़ रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की रपट बताती है कि यू.के.में सन् 2003 में बलात्कार के 13,272 मामले दर्ज हुए तो 2010 में 15,934। प्रति एक लाख महिलाओं पर उसका यह आंकड़ा 28.8 महिलाओं का है। अमरीका, जो अपने को विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति मानता है, जहां सभी शिक्षित हैं, कठोर कानून है, पूर्ण सक्षम पुलिस तंत्र है, वहां सन् 2003 में 93,883 बलात्कार के मामले दर्ज हुए तो 2010 में 84,767। यानी प्रत्येक एक लाख महिलाओं में से 27.3 महिलाएं बलात्कार का शिकार बनीं। 168 देशों की इस सूची में 'इंडिया' भी है, जहां 2003 में 18,233 मामले दर्ज किए गए जो सन् 2010 में बढ़कर 22,172 हो गए। बावजूद इसके प्रत्येक एक लाख में यह आंकड़ा 1.8 का है। साफ है कि हम जिस भारत में रह रहे हैं वह अभी अधिकांश भारत ही है, भारतीयों का है, इसे 'इंडिया' बनाने वाले पश्चिम के मुकाबले महिलाएं भारत में कहीं अधिक सुरक्षित हैं। आवश्यकता है अपने भारत को भारतीय जीवन मूल्यों व संस्कारों से सुवासित कर पूर्णत: भारत बनाने की, जहां एक भी नारी से ऐसा व्यभिचार न हो। ऐसा भारत उसी भारतीय संस्कृति, संस्कार को पुष्ट करने से बनेगा जिसके लिए 1925 से रा.स्व.संघ के स्वयंसेवक दिन-रात प्रयत्न कर रहे हैं।
वक्तव्यों को सही तरह से प्रस्तुत करें
–मनमोहन वैद्य, अ.भा. प्रचार प्रमुख
रा.स्व.संघ के अ.भा.प्रचार प्रमुख श्री मनमोहन वैद्य ने श्री मोहनराव भागवत जी के वक्तव्यों को गलत परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि- 'पिछले कुछ दिनों से परम पूज्य सरसंघचालक जी के वक्तव्यों पर मीडिया द्वारा अवांछित विवाद चलाया जा रहा है। इसमें खेद की बात यह है कि कुछ चैनल तथा समाचार पत्र बिना तथ्यों की छानबीन किये अति उत्साह तथा गैरजिम्मेदार ढंग से यह कर रहे हैं। पूजनीय सरसंघचालक जी का सिल्चर का वक्तव्य और विशेषत: इन्दौर के भाषण के परिप्रेक्ष्य में हुई चर्चा इसका उदाहरण हैं। मीडिया के मित्रों से निवेदन है कि बिना तथ्यों की छानबीन किये उत्साह में इस प्रकार के अनुचित पत्रकारिता के व्यवहार से बचें।'
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