दस, जनपथ के रत्न
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दस, जनपथ के रत्न

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Aug 6, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दस, जनपथ के रत्न

दिंनाक: 06 Aug 2012 15:04:28

 

सोनिया गांधी की मनमोहनी राजनीति की महिमा अपरंपार है। 26 जुलाई की मध्य रात्रि से 27 की शाम तक उत्तरी ग्रिड ठप होने से पूरे उत्तर भारत में जिंदगी की रफ्तार थम गयी तो 28 की दोपहर उत्तरी ग्रिड के साथ-साथ उत्तर-पूर्वी और पूर्वी ग्रिड भी ठप हो गयी। नतीजा देश के 22 राज्यों में बिजली गुल होने और परिणामस्वरूप जनजीवन अस्त-व्यस्त होने के रूप में सामने आया। देर रात तक किसी तरह स्थिति सामान्य हो पायी। विश्व के इस सबसे बड़े बिजली संकट का तकाजा तो यह था कि मंत्रियों के कामकाज का आकलन करने का ढिंढोरा पीटने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे को तलब कर सरकार से बाहर का रास्ता दिखा देते, लेकिन जो हुआ वह सिर्फ अपने भारत महान में ही संभव है। 28 जुलाई को आधे से ज्यादा देश अभूतपूर्व बिजली संकट से उबर पाता, उससे पहले ही शिंदे को प्रोन्नति देते हुए देश का गृह मंत्री बना दिया गया। जिस शख्स के बिजली मंत्री रहते दो दिन में दो बार अभूतपूर्व बिजली संकट उत्पन्न हो गया, उसके गृह मंत्रित्वकाल में देश का क्या हाल होगा, यह कल्पना भी डरा देने वाली है, पर देश की चिंता है किसे? मुंबई पर दिल दहला देने वाले आतंकी हमले के बाद शिवराज पाटिल को हटा कर जिन पी. चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया था, वह न तो आतंकवाद रोक पाये और न ही नक्सली हिंसा की बेलगाम रफ्तार थाम पाये। अब उन्हें वापस वित्त मंत्री बना दिया गया है। इसलिए नहीं कि वह सफल वित्त मंत्री थे, बल्कि इसलिए कि प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बन जाने के बाद वित्त मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार प्रधानमंत्री को संभालना पड़ रहा था। अब मुखर्जी खुद कितने सफल वित्त मंत्री थे, इसकी गवाह तो देश की चौपट अर्थव्यवस्था है ही। इसके बावजूद इन तीनों की मुराद पूरी हुई तो इसलिए कि तीनों ही दस, जनपथ के विश्वस्त हैं।

      अंतहीन धोखाधड़ी

अण्णा हजारे को एक बार फिर जंतर-मंतर पर डेरा जमाना पड़ा। मुद्दा वही जन लोकपाल था, जिसे ले कर वह पिछले साल पांच अप्रैल को वहीं अनशन पर बैठे थे। साल ही नहीं, सवा साल गुजर गया, सरकारी साजिशों की अंधी सुरंग से निकल कर जन लोकपाल सुबह का सूरज नहीं देख पाया। बावजूद इसके कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद से सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कर पिछले साल अगस्त में ही इसका वायदा कर दिया गया था। अब राजनीति में वायदे तो होते ही हैं तोड़ने के लिए, लेकिन मनमोहन सिंह सरकार तो साजिश और धोखाधड़ी से भी बाज नहीं आती। पहले अण्णा हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा का हाथ बताया तो अब विदेशी ताकतों की साजिश बतायी जा रही है। इस बीच टीम अण्णा में फूट डालने और आंदोलन को बदनाम करने के लिए बातचीत का ढोंग भी चलता रहता है। केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने पहले तो मनमोहन और सोनिया का हवाला देते हुए अण्णा से जाकर गुपचुप बात की और फिर खुद ही उसे मीडिया को लीक भी कर दिया। यही नहीं, बात अण्णा से हुई और सहयोग के लिए अण्णा का आभार जताते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्य मंत्री वी. नारायणसामी ने पत्र टीम अण्णा के सदस्यों को लिख दिया। सरकारों की वायदाखिलाफी तो आम है, पर धोखेबाज सरकार यह संभवत: पहली होगी।

  भारतीयों की कीमत

  बाजारवाद की पैरोकार मनमोहन सिंह सरकार ने आम भारतीयों का जीवन दांव पर ही नहीं लगा दिया है, उसे बेहद सस्ता भी बना दिया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां  दवा परीक्षण के नाम पर आये दिन गरीब भारतीयों के जीवन से खिलवाड़ कर रही हैं और मनमोहन के आर्थिक उदारीकरण की बदौलत नाममात्र का मुआवजा देकर बच निकलती हैं। पिछले तीन वर्षों में दवा परीक्षणों से मौत के 22 मामलों में 10 कंपनियों ने कुल 50 लाख रुपये मुआवजा दिया, जो औसतन महज 2.38 लाख रुपये बैठता है। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के लिए भारतीयों की जान सस्ती बना दिये जाने की पुष्टि इसी से हो जाती है कि जिस कंपनी ने भारत में दवा परीक्षण से मौत पर महज ढाई लाख रुपये मुआवजा दिया, उसी ने नाईजीरिया में 1.75 हजार डालर मुआवजा दिया, जो 84 लाख भारतीय रुपये के बराबर बैठता है।

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