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दूसरे विभाजन के कगार पर देश?

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Aug 20, 2012, 12:00 am IST
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दूसरे विभाजन के कगार पर देश?

दिंनाक: 20 Aug 2012 12:35:47

 देवेन्द्र स्वरूप

इस 11 अगस्त (शनिवार) को मुम्बई के आजाद मैदान पर मुस्लिमों द्वारा हिंसा का जो दृश्य खड़ा किया गया वह सोचने पर मजबूर करता है कि राजनीतिक सत्ता पाने के लिए देश विभाजन के रूप में जो महंगा मूल्य चुकाया गया, अब 65 वर्ष बाद क्या खंडित भारत पुन:विभाजन के कगार पर पहुंच गया है? 13 अगस्त के अंग्रेजी दैनिक 'हिन्दू' में प्रकाशित मुम्बई पुलिस की आंतरिक जांच रपट के अनुसार असम के बोडो क्षेत्र और म्यांमार में अराकान प्रांत के रोहिंगिया या मुसलमानों के प्रति सहानुभूति और समर्थन के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के नाम पर आयोजित सभा में पुलिस और टेलीविजन चैनलों पर हमले की पूरी तैयारी पहले से की गयी थी। पुलिस रपट में बताया गया है कि मंच पर 17 वक्ता थे। उनमें से केवल पांच के भाषण पूरे हो पाये थे। पांचवें वक्ता मौलाना गुलाम अब्दुल कादरी का भड़काऊ भाषण चल ही रहा था कि झंडे, बैनर ही लेकर 1000 मुस्लिम युवकों की भीड़ छत्रपति शिवाजी टर्मिनल रेलवे स्टेशन से बाहर निकली और शांति व्यवस्था के लिए तैनात पुलिस दल व सभा को 'कवर' करने के लिए टीवी चैनलों की 'ओबी बैन' पर टूट पड़ी। वाहनों में आग लगा दी गयी। पुलिस वालों को गाड़ियों में बंद करके जिंदा जलाने की कोशिश की गयी। महिला पुलिसकर्मियों का उत्पीड़न किया गया। उनके हाथों से रायफलें, रिवाल्वर व कई राउंड जिंदा कारतूस छीन लिये गये। 15 से 25 वर्ष आयु वर्ग की यह हिंसक भीड़ पेट्रोल के टिन, ज्वलनशील पदार्थों से भरी प्लास्टिक बोतलों, हाकी, लोहे की छड़ों और डंडों से लैस होकर सभा स्थल पर आयी थी। भद्दी-भद्दी गालियां और उत्तेजक नारे लगाते हुए वह पुलिस और मीडियाकर्मियों पर टूट पड़ी। आधे घंटे तक यह हिंसक नृत्य चलता रहा। इस दौरान 2 निरपराध लोग घटनास्थल पर मारे गये। 54 घायल हुए, जिनमें से 45 पुलिसकर्मी हैं। उनमें से आठ की हालत गंभीर बतायी गयी है।

खतरनाक अनदेखी

इस एकतरफा हमले की दहशत से भयभीत मीडिया इस घटना के संदेश की बेबाक समीक्षा करने से घबरा रहा है, और मुस्लिम वोट बैंक के भूखे पाखण्डी सेकुलरवादी राजनेता चुप्पी साध गये हैं। आज, (16 अगस्त) के मेल टुडे में प्रकाशित चित्रों के अनुसार मुम्बई के पुलिस आयुक्त अरूप पटनायक अपराधियों को पकड़वाने में मुस्तैदी दिखाने की बजाय अपने मातहतों को फटकार रहे हैं कि उन्होंने अमुक दंगाई को क्यों पकड़ा, किसके कहने पर पकड़ा? यहां तक कि उन्होंने बिना जांच- पड़ताल किये उस गिरफ्तार आरोपी को छुड़वा भी दिया। पता नहीं क्यों महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार में शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी आर.आर.पाटिल को ही गृहमंत्री बनाये रखना चाही है? पाटिल का रिकार्ड 26/11 के आतंकी हमले के समय भी बहुत खराब था, उनके कई गैर जिम्मेदाराना बयानों की कटु आलोचना हुई थी। तब सब आशा कर रहे थे कि पाटिल में अगर थोड़ी-सी भी शर्म बाकी होगी तो वे स्वयं ही गृहमंत्री के पद से त्यागपत्र दे देंगे। कम से कम (स्व.) विलास राव देशमुख के नैतिक जिम्मेदारी के आधार पर मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने के पश्चात तो पाटिल को अपने पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं रह गया था। पर वे बने रहे, बहुत दबाव और आलोचना के बाद ही मजबूरन पद छोड़ा। इस बार फिर गृहमंत्री बनाये गये और अपने त्यागपत्र की सब ओर से उठ रही मांग पर कान बहरे करके मीडिया की आंखों से ओझल हो गये हैं। यह भी कम महत्व की बात नहीं है कि उस सभा के आयोजकों में रजा अकादमी और 25 साल के युवक मौलाना अहमद रजा की कुछ ही दिनों पहले बनी 'मदीनातुल इल्म फाउंडेशन', जिसका अभी पंजीकरण भी नहीं हुआ है, जैसी अज्ञात संस्थाएं थीं। मौलाना रजा कुछ ही समय पहले इंग्लैण्ड से मजहबी प्रचार का एक साल का प्रशिक्षण लेकर वापस भारत लौटा है। उसका कहना है कि रिजवान खान नामक एक कबाड़ी ने उसे इस सभा की अनुमति लेने को कहा और वह अनुमति लेने को तैयार हो गया। आश्चर्य यह है कि उसे फटाफट अनुमति मिल भी गयी। किन्तु इससे भी अधिक महत्व की बात यह है कि उस सभा में मंच पर शमशेर खान पठान नामक महाराष्ट्र के एक पूर्व पुलिस अधिकारी भी मौजूद था और कुछ समय पूर्व ही गठित उसकी 'अवाम विकास पार्टी' भी सभा के आयोजकों में से एक थी। इन आयोजकों के साथ-साथ 'नरेन्द्र मोदी विरोध' के एक सूत्री कार्यक्रम के लिए कुख्यात तीस्ता सीतलवाड़ की भूमिका भी कम दिलचस्प नहीं है। उसने पुलिस आयुक्त अरूप पटनायक को ऐसी 'डिजिटल फोटो' पेश की है, जिसके आधार पर वे सिद्ध करना चाहती है कि तिब्बत और थाईलैण्ड जैसे देशों के लोगों के उत्पीड़न के जाली फोटुओं को असम और म्यांमार के मुसलमानों पर उत्पीड़न के चित्र बताकर मुस्लिम युवकों को भड़काया और गुमराह किया गया। यानी वे उनकी सुनियोजित हिंसा पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही हैं और यह सत्य छिपा रही हैं कि म्यांमार के रोहिंगिया मुसलमानों के प्रश्न को ओ.आई.जी., मुस्लिम काउंसिल आफ बर्मा, भारतीय मुसलमानों के उत्तरी अमरीका मंच जैसे अनेक अन्तरराष्ट्रीय मुस्लिम संगठनों ने एक वैश्विक अभियान के तौर पर उठाया है। जमाते-ए-इस्लामी ए हिंद के अंग्रेजी साप्ताहिक मुखपत्र 'रेडियांस' के दो अंक (15 और 12 अगस्त, 2012) म्यांमार के रोहिंगिया मुसलमानों का वहां के बौद्ध समाज और सरकार के द्वारा उत्पीड़न के इतिहास से भरे हुए हैं। इन्हीं अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम संस्थाओं के आह्वान पर दिल्ली में म्यांमार दूतावास के सामने एक प्रदर्शन आयोजित किया गया था, जिसमें जमात-ए-इस्लामी और उसके 'वेलफेयर पार्टी' नामक राजनीतिक दल के बैनर तले तथाकथित सेकुलर पार्टियों, यथा-मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी, भाकपा और जद(यू) भी सम्मिलित हुए थे। मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने के लालच में ही भारत सरकार ने म्यांमार सरकार के पास अपना दूत भेजने का निर्णय किया है। क्या सरकार और तथाकथित सेकुलर पार्टियों के ऐसे आचरण से मुस्लिम आक्रामकता को प्रोत्साहन नहीं मिलता है?

बढ़ती मुस्लिम आक्रामकता

यह मुस्लिम आक्रामकता बढ़ ही नहीं रही है बल्कि हिंसक रूप धारण कर रही है। उ.प्र. के बरेली और आंवला जैसे शहरों में प्रत्येक हिन्दू पर्व के अवसर पर मुस्लिम हिंसा का भड़कना इसका उदाहरण है। बरेली तो पिछले एक महीने से कर्फ्यू झेल रहा है। पिछले वर्ष जब मायावती मुख्यमंत्री थीं तब यहां होली के पर्व पर खून की होली खेली गयी थी। इस वर्ष समाजवादी पार्टी के सत्ता में आने के बाद पहले कांवड़ियों को लेकर फिर जन्माष्टमी के जुलूस को लेकर बरेली में हिंसा भड़कायी गयी है। यह आक्रामकता कितना आगे बढ़ गयी है इसका उदाहरण दिल्ली में जामा मस्जिद मेट्रो स्टेशन के लिए खुदाई के दौरान किसी पुराने भवन के अवशेषों के प्रगट होने पर उसे अकबराबादी मस्जिद घोषित किए जाने के रूप में सामने आया। पता नहीं यह कैसे जाना गया कि वे अवशेष सत्रहवीं शताब्दी की किसी अकबराबादी मस्जिद के ही हैं? यह खबर फैलते ही एक मुस्लिम राजनेता मैदान में कूद पड़ा। स्थानीय मुस्लिम विधायक शोएब इकबाल ने नेतृत्व की कमान संभाल ली। उसने दिल्ली और आसपास के हजारों मुसलमानों की भीड़ उस मस्जिद में नमाज पढ़ने के लिए जुटा ली। कुछ मौलवियों ने भीड़ को मस्जिद का पुनर्निर्माण करने के लिए जुटा दिया और रातों-रात उस जगह मस्जिद का एक ढांचा खड़ा कर दिया गया। एक ओर मजहबी उन्माद, दूसरी ओर असहाय प्रशासन व न्यायपालिका। दिल्ली उच्च न्यायालय ने उस ढांचे को अवैध घोषित किया, उसे गिराने का आदेश दिया, पर उसे गिराये कौन? दिल्ली सरकार ने कहा कि यह जिम्मेदारी नगर निगम की है। नगर निगम ने कहा कि यह जिम्मेदारी पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की है। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने कहा कि यह कार्य दिल्ली पुलिस को करना चाहिए। दिल्ली पुलिस ने कहा कि स्थानीय विधायक शोएब इकबाल को इसमें सहयोग करना चाहिए, पर मुस्लिम उन्माद की लहर पर सवार शोएब इकबाल ने कहा कि यह ढांचा गिराया ही नहीं जाना चाहिए। इसी उधेड़बुन में एक महीना निकल गया, अवैध ढांचा ज्यों का त्यों पड़ा है। मेट्रो कंपनी का निर्माण कार्य रुका पड़ा है, जिसके कारण लालकिला, जामा मस्जिद, सुनहरी मस्जिद, दिल्ली गेट, कश्मीरी गेट, गुरुद्वारा रकाब गंज और जंतर मंतर जैसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थलों को जोड़ने वाली भूमिगत मेट्रो लाइन को बिछाने का काम अधर में लटका हुआ है। यदि पुराने खंडहरों के पुनर्निर्माण की नीति को अपनाया जाता है तो पूरी दिल्ली में ही ऐसे खंडहर बिखरे हुए हैं, तो फिर दिल्ली में कोई भी नया निर्माण संभव नहीं होगा और यदि बारहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक की मध्ययुगीन विध्वंस लीला के इन खंडहरों के पहले के इन्द्रप्रस्थ के इतिहास को खोजने की कोशिश की गयी तो शायद हमें पाताल तक खंडहर ही मिलते जाएंगे। क्या पांडवों से चौहानों और तोमरों तक के इतिहास को प्रगट होने का अधिकार नहीं है?

इतिहास से सबक सीखें

पर इस समय भारत में इतिहास के तथ्यों और तकर्ों से अधिक महत्व मजहबी जुनून और उसके पीछे खड़ी डंडे की ताकत का हो गया है। यह मजहबी जुनून वोट बैंक राजनीति का मुख्य हथियार बन गया है। वास्तव में असम की घटनाओं से पूरे देश का ध्यान बंगलादेशी घुसपैठ पर केन्द्रित होना चाहिए था। म्यांमार की रोहिंगिया मुस्लिम समस्या और असम की घुसपैठ समस्या एक ही प्रक्रिया के दो चेहरे हैं। म्यांमार अपनी अस्मिता को बचाने के लिए जूझ रहा है तो पूर्वोत्तर भारत अपनी। भारत के मुस्लिम समाज से अपेक्षा है कि वह भारत की राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए बंगलादेशी घुसपैठ को रोकने के राष्ट्रीय प्रयत्नों में सहयोग दे। पर हो रहा है उलटा। मुस्लिम कट्टरवादियों ने महाराष्ट्र और कर्नाटक में पूर्वोत्तर भारत के छात्रों के विरुद्ध हिंसा का वातावरण पैदा कर दिया है, एक ओर भारत में बंगलादेशी घुसपैठ बड़े पैमाने पर जारी है तो दूसरी ओर पाकिस्तान से बचे-खुचे हिन्दू भी भागकर भारत में शरण लेने को मजबूर किये जा रहे हैं। उनकी दर्द भरी कहानी सुनकर भी भारत सरकार और वोट बैंक के भूखे राजनेताओं की अन्तरात्मा उन्हें नहीं कचोटती, यह कैसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है? क्या विभाजन को जन्म देने वाले घटनाचक्र को हम पूरी तरह भूल गये हैं? इस घटनाचक्र से हमने कोई सबक नहीं सीखा है? जो राष्ट्र अपने इतिहास को याद नहीं रखता, उससे कोई सीख नहीं लेता, वह धरती पर अपने अस्तित्व को खोकर स्वयं इतिहास बन जाता है। क्या भारत की यही नियति है?

भारत के मुस्लिम समाज से अपेक्षा है कि वह भारत की राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए बंगलादेशी घुसपैठ को रोकने के राष्ट्रीय प्रयत्नों में सहयोग दे। पर हो रहा है उलटा। मुस्लिम कट्टरवादियों ने महाराष्ट्र और कर्नाटक में पूर्वोत्तर भारत के छात्रों के विरुद्ध हिंसा का वातावरण पैदा कर दिया है, एक ओर भारत में बंगलादेशी घुसपैठ बड़े पैमाने पर जारी है तो दूसरी ओर पाकिस्तान से बचे-खुचे हिन्दू भी भागकर भारत में शरण लेने को मजबूर किये जा रहे हैं।

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