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चुनौतियां और समाधान

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Aug 16, 2012, 12:00 am IST
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चुनौतियां और समाधान

दिंनाक: 16 Aug 2012 18:38:32

 बल्देव भाई शर्मा

देश की आजादी को 65 वर्ष बीत गए, लेकिन इसके लिए जीवन सर्वस्व न्योछावर करने वाले असंख्य स्वाधीनता सेनानियों ने स्वतंत्र भारत का जो भव्य स्वरूप अपनी आंखों में संजोया था, वह बदरंग होकर बिखर गया। 15 अगस्त 1947 को देश की बागडोर थामने के बाद देश के राजनीतिक नेतृत्व ने ऐसी राह पकड़ी, जिस पर चलकर भारत जन का स्वप्न  तो भंग हुआ ही, एक के बाद एक दुर्धर्ष चुनौतियां हमारी राह रोके खड़ी होती गईं। इन चुनौतियों को मात देकर राष्ट्र के सर्वतोमुखी उन्नयन का मार्ग खोजने का संकल्प सत्ता की भूलभुलैया में खो गया। देश अल्पसंख्यकवाद, मजहबी राजनीति और सेकुलरवाद के रास्ते आज जिहादी आतंकवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, आम जन की बेबसी, जाति–मत–पंथ के विभेद व सत्तालोलुप राजनीति के ऐसे भंवर में फंस गया है जहां से प्रगति के सोपान कहीं दूर छिटक गए हैं। भले ही जनता को भरमाने के लिए आर्थिक तरक्की का ढोल पीटा जा रहा हो, लेकिन देश की सवा सौ करोड़ आबादी के महज 4 प्रतिशत करोड़पतियों के भरोसे कोई भी अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं मानी जा सकती, क्योंकि जिस देश में 40 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीने को मजबूर हो और कुल 77 प्रतिशत लोग औसतन 20 रु. प्रतिदिन की आमदनी पर गुजारा करने को विवश हों तो ये देश की खुशहाली के हालात तो कतई नहीं कहे जा सकते। भारत की अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि दम तोड़ रही है, गांव उजड़ रहे हैं और पिछले दो दशकों में ही लाखों किसान आत्महत्या को मजबूर हुए। महात्मा गांधी का ग्राम स्वराज और रामराज्य का सपना उन्हीं का नाम लेकर राज करने वाले लोगों ने चूर–चूर कर दिया। विकास की अंधी दौड़ ने जल, पर्यावरण, नदियां, वन, पहाड़ आदि प्राकृतिक संपदाओं को विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया और अब सरकार हर चीज का मोल वसूलने की तैयारी में है, पानी के निजीकरण का प्रस्ताव लेकर आ रही 'जलनीति 2012' तो इसकी शुरुआत है जिसे विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इशारे पर भारत में लागू करने की योजना है। सरकार इनके हाथों में खेल रही है और जन कल्याण व राष्ट्रहित को दांव पर लगा रही है।

आज भ्रष्टाचार इतना व्यापक रूप धारण कर चुका है कि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से लेकर खेल व दूरसंचार तक कितनी ही जनकल्याणकारी विकास योजनाएं उसके विकराल मुंह में समा चुकी हैं। उससे बाहर निकलने को देश व्याकुल है। अण्णा हजारे व बाबा रामदेव और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की अगुआई में चल रहे विशाल आंदोलनों से जनता की यह छटपटाहट बार–बार प्रकट होती है। लेकिन संप्रग सरकार उसके निदान के कड़े उपाय करने से मुंह चुरा रही है। ऐसी ही सहूलियतों के कारण देश का लाखों करोड़ कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है और भारत के नौनिहाल निवाले को भी तरस रहे हैं। चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में लाखों माएं प्रसव के दौरान ही दम तोड़ देती हैं, क्योंकि इस मद में आया पैसा अफसर व नेता डकार जाते हैं, सड़कें सिर्फ कागजों पर बनती हैं और वास्तव में अगर बनती भी हैं तो सालभर भी नहीं चलतीं, क्योंकि उनके लिए आया धन किन्हीं और जेबों की शोभा बढ़ा रहा होता है। संप्रग सरकार की महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा तो भ्रष्टाचार का प्रमुख केन्द्र बन गई है। यहां तक कि पशुचारे के लिए जारी धन को भी मुख्यमंत्री व उनकी जमात उड़ा लेती है। स्कूली बच्चों को दिया जाने वाला 'मिड डे मील' इतना वाहियात होता है कि उसे खाकर कितने ही बच्चे जगह–जगह बीमार पड़ जाते हैं, क्योंकि असली माल तो कोई और उड़ा जाता है। पिछले दिनों देश में बच्चों के बढ़ते कुपोषण को प्रधानमंत्री ने ʅराष्ट्रीय शर्मʆ कहा था, लेकिन इस सबके लिए जिम्मेदार कौन है? सरकारी पैसा यदि विकास की उचित प्रक्रिया में उपयोग होने की बजाय यहां–वहां पहुंच जाता है और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है, तो इसका दोष किस पर है? इसकी जवाबदेही किस पर है? यह तय होना चाहिए, सरकार यह तय करने से क्यों डरती है? जवाबदेही तय करना, दोषी को दंड और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ी रकम की वसूली का कड़ा प्रावधान जब तक नहीं होगा तो भ्रष्टाचार रुकेगा कैसे?

उधर, सत्ता राजनीति में सेकुलरवाद का अर्थ मुस्लिम तुष्टीकरण व हिन्दुओं का उत्पीड़न बना दिया गया। डा.मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सोनिया पार्टी ने तो संप्रग सरकार की नीतियों को इस सेकुलरवाद से इतना रंग दिया कि प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों (मुस्लिमों) का है। यहां तक कि जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई को भी वोट की राजनीति का रंग देते हुए न केवल बिना लड़े जैसा छोड़ दिया गया और उसके खिलाफ कड़े कानून बनाने व कड़ाई बरतने से भी बचा गया, बल्कि उसके समानांतर 'हिन्दू आतंकवाद' व 'भगवा आतंकवाद' जैसे छद्म शब्द गढ़े गए ताकि देश में भ्रम फैलाकर जिहादी आतंकवाद से निपटने में अपनी नाकामी को छिपाया जा सके। इसी आधार पर राष्ट्रभक्त हिन्दू संगठनों व साधु– संतों को बदनाम कर उनका उत्पीड़न प्रारंभ कर दिया गया, इससे जिहादी आतंकवाद में मजहबी कट्टरवादियों की संलिप्तता को तो बल मिला ही, भारत में इसका प्रेरक और अपनी सेना व कुख्यात खुफिया एजेंसी के माध्यम से जिहादी आतंकवादियों का सब प्रकार से संरक्षण व पोषण करने वाला पाकिस्तान भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को घेरकर खुद को पाक–साफ दिखाने का प्रयत्न करने लगा। इस तरह भारत के बाहर भी आतंकवाद के विरुद्ध हमारी कूटनीतिक लड़ाई कमजोर होती गई। इस सेकुलरवादी सरकार ने वोट के लिए राष्ट्र की सुरक्षा, संप्रभुता व सम्मान को भी दांव पर लगा दिया।

सत्तालिप्सा में इस सेकुलरवादी राजनीति ने राष्ट्रबोध को खत्म करने का भरपूर उपाय किया, यहां तक कि शिक्षा में से राष्ट्रवादी संस्कारों, जीवन मूल्यों तक को षड्यंत्रपूर्वक हटाने का अभियान चला और पाठ्यक्रम में राष्ट्रनायकों व देशभक्त सेनानियों को घृणित रूप में प्रस्तुत कर छात्रों को पढ़ाया जाने लगा। परिणामत: राष्ट्रबोध का भाव समाज जीवन में उपेक्षित होता गया और पूर्वोत्तर भारत से लेकर कश्मीर तक राष्ट्रद्रोही अलगाववादी ताकतें सिर उठाने लगीं और सरकार की वोट राजनीति के चलते देश विभाजन के खतरे एक बार फिर मुंहबाए खड़े हो गए। असम में आज जो कुछ हो रहा है, वह इसी खतरे की सुगबुगाहट है। बड़ी संख्या में बंगलादेशी घुसपैठिए वहां जनसांख्यिकी बदलकर हिन्दुओं को अपनी दंगाई मनोवृत्ति का निशाना बनाकर भागने को मजबूर कर रहे हैं और उनका षड्यंत्र है असम को भारत से अलग करना। ऐसे करीब 4 करोड़ घुसपैठिए भारत के विभिन्न भागों में फैले हुए हैं और अराजकता व अपराधों में अपनी संलिप्तता से देश को कमजोर कर रहे हैं। बंगलादेशी घुसपैठियों के वोट के लालच में सेकुलर दल इन खतरों से आंखें मूंदे बैठे हैं। देश की ऐसी ही कमजोरियों का लाभ चीन और पाकिस्तान जैसे देश उठा रहे हैं, उनका षड्यंत्र है भारत की एकता–अखंडता को छिन्न–विच्छिन्न कर उसे टुकड़ों–टुकड़ों में बांटकर भारत की प्राचीन गौरवपूर्ण पहचान को खत्म कर देना। चर्च, माओवाद इस षड्यंत्र में पूरक शक्तियां हैं।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज आजादी के 65 साल बाद भी देश इन गंभीर चुनौतियों से जूझने को अभिशप्त है। समाज जीवन व राजनीति में राष्ट्रबोध का अभाव ही इसका मुख्य कारण है। इसलिए सद्गुण–सदाचार से युक्त, स्वार्थ–भेद से मुक्त और देश के लिए जीने– मरने वाले राष्ट्रभक्तों का निर्माण ही इस समय देश के समक्ष खड़ी चुनौतियों का समाधान है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गत 87 वर्षों से इसी राष्ट्रकार्य में लगा है और देश में चतुर्दिक उसका परिणाम भी दिखता है, लेकिन देश की समस्त सज्जन शक्तियों को समवेत रूप में इन प्रयासों को और बल देना होगा। इसी से समाज जीवन में सर्वतोमुखी चारित्रिक शुचिता निर्माण होगी, और राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत अंत:करण खड़े होंगे, जैसा कि इन पंक्तियों में अभिव्यक्त किया गया है–

राष्ट्रभक्ति ले हृदय में हो खड़ा यदि देश सारा

संकटों पर मात कर यह राष्ट्र विजयी हो हमारा।

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