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दु:खी पिता, मां, ताऊ, ताई–
रूठ गए क्यों रुपए भाई!
डालर को दिखलाकर दर्पण
कर बैठे तुम आत्मसमर्पण
नहीं सताती है क्या बोलो–
निशि दिन की बढ़ती महंगाई!
अर्थव्यवस्था बिगड़ी–बिगड़ी
जनता की अब कच्ची खिचड़ी
भ्रष्टाचार और काला धन–
लेने लगे खूब अंगड़ाई!
ढुलमुल जरा रवैया बदलो
यूरो व पाउंड–सा उछलो
रखो रीढ़ की हड्डी सीधी–
वरना हो सकती रुसवाई!
चाटुकारिता ठीक नहीं है
तुम हो कहीं, सरकार कहीं है
तुम पर नजर जमाने भर की–
तुम मधु–सपनों के सौदाई!
तुम संसद से ले मेलों तक
तुम स्टेडियम से जेलों तक
मानव का ईमान डिगा दो–
बात बिगाड़ो बनी–बनाई!
छोड़ कुटिलता सांझ–सकारे
दो विनम्रता के हरकारे
बन्द वस्तुओं में दरवाजे–
कैसे आए अधर हंसाई!
दु:खी पिता, मां, ताऊ, ताई–
रूठ गए क्यों रुपए भाई!
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