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हिन्दू समाज को तोड़ने का ब्रिटिश षड्यंत्र

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Jul 7, 2012, 12:00 am IST
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हिन्दू समाज को तोड़ने का ब्रिटिश षड्यंत्र

दिंनाक: 07 Jul 2012 14:38:19

गांधी जी ने कांग्रेस क्यों छोड़ी-2

देवेन्द्र स्वरूप

फ्रांस में रोम्यां रोला और रोम में मुसोलिनी से मिलते हुए गांधी जी 29 दिसम्बर, 1931 को भारत वापस लौटे। उन्होंने गोलमेज सम्मेलन के अंत में घोषणा कर दी थी कि अपनी जान की बाजी लगाकर भी वे हिन्दू समाज को विखंडित करने के ब्रिटिश षड्यंत्र का विरोध करेंगे, अस्पृश्यता की समस्या हिन्दू समाज की आंतरिक सामाजिक समस्या है, इसलिए वे भारत लौटकर अस्पृश्यता निवारण के लिए प्रबल सामाजिक अभियान भी प्रारंभ करेंगे। गोलमेज सम्मेलन में ही गांधी जी को यह आभास हो गया था कि पूर्ण स्वराज्य के लक्ष्य को पाने के लिए प्रबल जनांदोलन के द्वारा भारत को अपनी एकता और नैतिक सामर्थ्य का साक्षात्कार विश्व को कराना होगा, अत: भारत लौटते ही उन्होंने इस दिशा में प्रयास आरंभ कर दिये। उन्होंने आते ही वायसराय लार्ड विलिंग्डन से भेंट का समय पाने के लिए विनम्र टेलीग्राम भेजा, किन्तु विलिंग्डन ने पहले से ही कठोर दमन नीति अपनाने का मन बना रखा था। इस कठोर नीति में उसे बम्बई के गवर्नर फ्रेडरिक साईक्स और लंदन में भारत सचिव सेमुअल होर का पूर्ण समर्थन प्राप्त था।

गांधी जी और डा. अम्बेडकर

वायसराय के निजी सचिव ने कड़ी भाषा में तार भेजकर गांधी जी को भेंट का समय देने से इनकार कर दिया, दमन नीति को उचित ठहराया। गांधी जी को सविनय अवज्ञा आंदोलन पुन: प्रारंभ करने का अवसर देने के पूर्व ही उसने 4 जनवरी, 1932 को प्रात: 3.30 बजे सोते से उठाकर गांधी जी और सरदार पटेल को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया। जवाहर लाल नेहरू पहले ही उत्तर प्रदेश में गिरफ्तार किये जा चुके थे। सरकार ने 4 जनवरी को ही कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया। पहले के आठ अध्यादेशों के अलावा चार नये अध्यादेश जारी करके सार्वजनिक गतिविधियों एवं विचार अभिव्यक्ति पर रोक लगा दी गयी। गांधी जी ने स्वयं को एक विषम स्थिति में फंसा पाया। उन्हें एक साथ तीन मोर्चों पर जूझना पड़ रहा था। एक- गोलमेज सम्मेलन की विफलता से हताश कांग्रेस जनों के मनोबल को ऊपर उठाना, दो- सरकार की दमन नीति को कुंठित करना और तीन- डा.अम्बेडकर की सहायता से हिन्दू समाज को विखंडित करने के ब्रिटिश षड्यंत्र को परास्त करना।

जेल के भीतर से ही 11 मार्च, 1932 को भारत सचिव सेमुअल होर को एक लम्बा पत्र भेजकर गांधी जी ने हिन्दू समाज के तथाकथित वंचित वर्गों को पृथक मताधिकार देने के किसी भी प्रयास का विरोध करने की चेतावनी भेज दी। पर, ब्रिटिश सरकार ने इसकी पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए 'लोथियन कमेटी' को भारत रवाना कर दिया, जो पूरे भारत का भ्रमण कर वंचित वर्ग के नेताओं की खोज कर रही थी और उनका मन टटोल रही थी। अन्य अल्पसंख्यक वर्गों के साथ-साथ वंचित वर्गों को पृथक मताधिकार देने का प्रश्न ब्रिटिश प्रधानमंत्री के निर्णय पर छोड़ दिया गया था। उस निर्णय की उत्सुकता से प्रतीक्षा की जा रही थी। 'लोथियन कमेटी' ने अपनी व्यापक जांच के आधार पर वंचित वर्गों को पृथक मताधिकार देने की अनुशंसा नहीं की, जिससे चिंतित होकर डा.अम्बेडकर ब्रिटिश नेताओं को मनाने के लिए लंदन की गुप्त यात्रा पर गये, किन्तु बम्बई क्रानिकल के किसी संवाददाता ने उन्हें लंदन जाने वाले जहाज पर खड़े देखकर उसे गुप्त नहीं रहने दिया। डा. अम्बेडकर लंदन में लगभग दो माह तक रहकर ब्रिटिश नेताओं से गुप्त परामर्शों में लगे रहे और 17 अगस्त, 1932 को 'प्रधानमंत्री निर्णय' की घोषणा के समय पर ही स्वदेश वापस लौटे। सचमुच ही, उस निर्णय में अस्पृश्य वर्गों के लिए पृथक मताधिकार की घोषणा कर दी गई थी।

विलिंग्डन को गांधी जी का भय

'प्रधानमंत्री निर्णय', जो 'कम्युनल अवार्ड' के नाम से प्रसिद्ध है, की सार्वजनिक घोषणा होते ही गांधी जी ने प्रधानमंत्री रैमजे मैक्डानल्ड के नाम लंबा पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने इस निर्णय के विरोध में 20 सितम्बर से आमरण अनशन प्रारंभ करने की सूचना भी दे दी थी। साथ ही, उन्होंने ब्रिटिश सरकार के साथ हुए अपने पत्र-व्यवहार को प्रकाशित करने की अनुमति भी मांगी। पर, ब्रिटिश सरकार ने इस बारे में मार्च से सितम्बर तक (पूरे छह महीने) बाहर से चुप्पी साधे रखी। किसी को पता नहीं चला कि अंदर-अंदर क्या पक रहा है। यह भी कि गांधी जी सरकार को आमरण अनशन पर जाने की लिखित सूचना दे चुके हैं। ऊपर से सब कुछ भले ही शांत हो, पर भीतर ही भीतर लंदन और दिल्ली, दिल्ली और बम्बई तथा अन्य गवर्नरों के बीच पत्रों और तारों का अम्बार लग गया था। गांधी जी जिस यरवदा जेल में बंद थे और उनका साबरमती आश्रम, दोनों बम्बई प्रांत में आते थे, इसलिए वहां के गवर्नर फ्रेडरिक साईमन का मत महत्वपूर्ण बन गया था। वायसराय ने पूरी स्थिति जानने के लिए सभी गवर्नरों के नाम 24 अगस्त को एक गुप्त पत्र भेजा। विलिंग्डन ऊपर से कठोरता का प्रदर्शन करके भी भीतर से हिल गया था। उसकी चिंता थी कि यदि गांधी जी आमरण अनशन करके जेल के भीतर मरे तो भी मुसीबत और जेल के बाहर मरे तो और भी बड़ी मुसीबत। हिन्दू समाज के मन में उनके प्रति असीम श्रद्धा का जो भाव बन चुका है, उसके कारण गांधी जी का आमरण अनशन के दौरान निधन ब्रिटिश सरकार और जनभावनाओं के बीच कटुता की एक स्थायी दीवार बनकर खड़ा हो जाएगा। भारत की प्रेस पर हिन्दुत्ववादियों का स्वामित्व है। वह प्रेस बड़ा बवंडर खड़ा कर देगा। अत: गांधी के पत्राचार को और उनके आमरण अनशन के निर्णय को अनशन प्रारंभ करने की तिथि के आसपास ही प्रकाशित किया जाए ताकि 'हिन्दू प्रेस' को जनभावनाओं को उत्तेजित कर प्रतिरोध की व्यूह रचना तैयार करने का समय ही न मिलने पाये। घबराये हुए वायसराय ने 24 अगस्त को सभी गवर्नरों को एक गोपनीय पत्र भेजकर पूछा कि इस संकट से बाहर निकलने का उपाय क्या है? अस्पृश्य (वंचित) वर्गों के पृथक मताधिकार पर क्या प्रतिक्रिया है? उनका समर्थन हमें किस मात्रा में मिलेगा?

'पृथक मताधिकार' दांव असफल

वायसराय के इस पत्र के उत्तर में गवर्नरों से प्राप्त गोपनीय उत्तरों से उस समय के वंचित वर्ग के यथार्थ का पता लगता है। मध्य प्रांत के गवर्नर ए.ई.नेल्सन ने लिखा 'जहां तक 'दलित वर्गों' का सवाल है वे अधिकांशत: पिछड़े और निरक्षर हैं। इसलिए पृथक बनाम संयुक्त निर्वाचन जैसे प्रश्नों पर कोई मत देने में वह पूर्णतया अक्षम हैं। न ही उन्हें यह समझ में आता है कि हिन्दू धर्म के विघटन का अर्थ क्या है? 'दलित वर्गों' के नाम पर जो भी मत प्रचारित किया जाता है वह केवल आधा दर्जन नेता किस्म के लोगों का मत होता है, जिनमें से कोई स्वयं को डा.अम्बेडकर का तो कोई एम.वी.राजा का अनुयायी बताता है। उनके विचार पक्के न होने के कारण वे इन दोनों के बीच पाला बदलते रहते हैं। इसलिए 'कम्युनल अवार्ड' (साम्प्रदायिक निर्णय) के बारे में 'दलित वर्गों' की वास्तविक भावनाओं का पता लगाना संभव नहीं है।' बिहार के गवर्नर जे.डी.सिफ्टन ने लिखा, 'यह बता पाना कठिन है कि इस निर्णय का 'दलित वर्गों' पर क्या परिणाम होगा! इस प्रांत में वे बिल्कुल भी संगठित नहीं हैं। केवल उन दो चार थानों को छोड़कर जहां 'लोथियन कमेटी' के आधार पर निर्वाचन सूचियां बनाने का काम शुरू हुआ है। उनमें से अधिकांश तो मताधिकार जैसी कोई चीज नहीं जानते। सच तो यह है कि बिहार और उड़ीसा में उनमें अभी तक कोई 'पृथक वर्ग चेतना' पैदा ही नहीं हुई है।'

इसी प्रकार मद्रास प्रांत, जहां 'दलित चेतना' को बहुत जाग्रत माना जाता था, वहां के गवर्नर ने भी सूचित किया कि इस समय यह कहना कठिन है कि 'दलित वर्ग' का आम आदमी क्या सोचता है। संभवत: उनमें से अधिकांश को तो इस बारे में कुछ पता ही नहीं है। ऐसे लोग भी इने-गिने ही होंगे जो पृथक निर्वाचन के संभावित परिणामों को समझ सकें। अन्य गवर्नरों के उत्तर भी इससे भिन्न नहीं थे। ये उत्तर 'दलित यथार्थ' के गांधी जी के आकलन की पुष्टि करते हैं। बम्बई के गवर्नर साईक्स ने गांधी जी का मन टटोलने के लिए जेल महानिरीक्षक कर्नल डोयले को 26 अगस्त को गांधी जी के पास भेजा। उसको गांधी जी ने बताया, 'दलित वर्गों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया जा रहा है, जबकि एक वर्ग के रूप में उनकी ओर से ऐसी कोई मांग नहीं है। एक बहुत छोटा-सा वर्ग अर्थात डा.अम्बेडकर के नेतृत्व को मानने वाले महार जाति के लोग ही पृथक निर्वाचन की मांग उठा रहे हैं, किन्तु उन्हें संपूर्ण 'दलित वर्गों' की ओर से बोलने का कोई अधिकार नहीं है। संयुक्त प्रांत, बंगाल और अन्य प्रांतों के 'दलित वर्ग' संयुक्त निर्वाचन के पक्ष में है।' गांधी जी ने आगे कहा कि 'इसीलिए मैंने इंग्लैण्ड से लौटकर यह सोचा था कि भारत पहुंचकर 'दलित वर्गों', जो राजनीतिक चेतना से शून्य हैं और जिन्हें यह बोध ही नहीं है कि पृथक निर्वाचन का अर्थ और परिणाम क्या हो सकता है, में राजनीतिक जागृति पैदा करने के लिए एक योजनाबद्ध अभियान छेड़ूंगा, किन्तु भारत पहुंचने के एक सप्ताह के भीतर ही मुझे जेल में ठूंस दिया गया और अब आमरण अनशन के अलावा कोई रास्ता मेरे पास नहीं रह गया है।'

कौन–सा 'दलित वर्ग'?

गांधी जी के इस आकलन की पुष्टि महाराष्ट्र के दलित नेता पी.एन.राजभोज के वायसराय के नाम 7 जून, 1932 के उस पत्र से भी होती है जिसमें उन्होंने लिखा था कि हमारे प्रांत में 'चमार' और 'मांग' जातियों के दलितों को सवर्णों के बजाय महारों से ज्यादा परेशानी होती है, इसलिए इन जातियों के लोग अम्बेडकर को अपना नेता नहीं मानते, किन्तु दलित वर्गों को पृथक निर्वाचन का अधिकार देकर भारतीय राष्ट्रवाद की आधारभूमि हिन्दू समाज को भीतर से तोड़ना ब्रिटिश कूट नीति का हिस्सा था, उसके लिए वे डा.अम्बेडकर को हथियार बना रहे थे। इसकी जानकारी हमें वायसराय और भारत सचिव के गुप्त पत्राचार, जो अब शोधकर्त्ताओं के लिए उपलब्ध है, से प्राप्त होती है। गांधी जी का पत्र पाते ही भारत सचिव ने तार द्वारा वायसराय से पूछा कि इस पत्र का क्या उत्तर दूं। वायसराय ने सुझाव भेजा कि आप उत्तर दें कि यह मुद्दा गांधी और 'दलित वर्गों' के बीच है, ब्रिटिश सरकार का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। इसके उत्तर से भारत सचिव ने वायसराय को लिखा कि, 'हमें यह आभास नहीं पैदा करना चाहिए कि यह मुद्दा गांधी व दलित वर्गों के बीच का मुद्दा है, क्योंकि इससे अम्बेडकर की स्थिति कमजोर होगी, जो हमें नहीं करना चाहिए।'

डा. अम्बेडकर को सामने बनाये रखने के लिए ही फरवरी-मार्च 1932 में संपन्न राजन-मुंजे पैक्ट के बारे में पर्दे के पीछे तो बहुत चिंता प्रगट की गयी किन्तु सार्वजनिक तौर पर उसे कोई तवज्जो नहीं दी गयी। गांधी जी के अनशन के विरुद्ध भी बहुत सावधानी से व्यूह रचना तैयार की गयी। तय किया गया कि जेल से बाहर आने पर भी गांधी जी का संपर्क आम जनता की बजाय केवल कुछ नेताओं तक ही सीमित रहे। वे ही अम्बेडकर और सवर्ण नेताओं के बीच समझौते की पहल करें ताकि यह प्रचारित किया जा सके कि ब्रिटिश सरकार की पहल के कारण ही सवर्ण हिन्दुओं और दलित वर्गों के बीच पूना पैक्ट जैसा समझौता हो सका, और यह कि दलित वर्ग व सवर्ण हिन्दू नामक दो अलग-अलग सुव्याख्यायित समूह हैं, जिनके बीच हित- विरोध की स्थिति विद्यमान है। यद्यपि ब्रिटिश शासक बीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही 'दलित वर्गों' की अलग पहचान की असफल कोशिश करते आ रहे थे और हिन्दू समाज की सीढ़ीनुमा जाति व्यवस्था में अस्पृश्यता की विभाजन रेखा खींचने की जी-तोड़ कोशिश में लगे थे। 17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री के 'साम्प्रदायिक निर्णय' की घोषणा के समय भी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। 21 अगस्त, 1932 को भी भारत सरकार के गृह सचिव एम.जी.हैलेट ने लिखित टिप्पणी की थी कि एक बिंदु जिसे भूलना नहीं चाहिए वह यह है कि 'दलित वर्गों' की अभी तक कोई व्याख्या नहीं हो पायी है, और कुछ प्रांतों में तो संभवत: ऐसे किसी वर्ग का अस्तित्व ही नहीं है।

आरक्षण का दंश

किन्तु इसे ब्रिटिश कूटनीति की विजय ही कहना होगा कि हिन्दू समाज की एकता को बनाये रखने के लिए गांधी जी को अपने प्राणों की बाजी लगाकर जो पूना पैक्ट कराना पड़ा, उसमें उन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध आरक्षण का सिद्धांत स्वीकार करना पड़ा, जिसके कारण प्रत्येक प्रांत में दलित वर्गों के लिए आरक्षित सीटों के लिए जातियों और मतदाताओं की सूचियां तैयार करना अनिवार्य हो गया, जिसका स्वाभाविक परिणाम जन्मना जाति व्यवस्था को मिटाने की बजाय उसे चिरस्थायी बनाने में हो रहा है। इस जन्मना जाति व्यवस्था को स्थायी बनाने की स्थिति जिन डा.अम्बेडकर के माध्यम से अंग्रेज शासकों ने पैदा की, उन्हें गांधी जी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में पूजा जा रहा है। गांधी-इर्विन समझौते के कारण गांधी जी गोलमेज सम्मेलन में गये, लंदन में होने के कारण भारत विरोधी ब्रिटिश मीडिया और राजनीतिज्ञों के प्रोत्साहन से डा.अम्बेडकर ने वहां गांधी के 'मूर्ति-भंजन' पर अपनी पूरी शक्ति लगा दी और खूब वाहवाही लूटी। तब तक जिन डा. अम्बेडकर को भारत में महाराष्ट्र के बाहर मुट्ठी भर लोग जानते थे, उनका नाम पूरे भारत में पहुंच गया और वे गांधी के सबसे मुखर प्रतिद्वंद्वी बनकर उभर आये। (5.7.2012)

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