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डी एन ए के आधार पर

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Jul 30, 2012, 12:00 am IST
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डी एन ए के आधार परयहूदी मुसलमानों की खोज

दिंनाक: 30 Jul 2012 12:35:06

यहूदी मुसलमानों की खोज

मुजफ्फर हुसैन

वे मुसलमान हैं, भारतीय मुसलमान, लेकिन स्वयं को 'इस्रायल का सपूत' कहते हैं। उनके दिल इस्रायल के लिए धड़कते हैं। इस्रायल से उनका भावनात्मक सम्बंध है। पाठकों के सम्मुख यह सवाल पैदा हो सकता है कि दुनिया के सारे मुसलमान इस्रायल से घृणा करते हैं, लेकिन वे कौन मुसलमान हैं जो इस्रायल से प्रेम करते हैं? ऐसे लोगों के पूर्वज इस्रायल में थे, जो हजारों साल पहले यहूदी थे। लेकिन जब उनको मतान्तरित कर मुसलमान बना लिया गया तो वे अपने नए मजहब का प्रचार-प्रसार करने के लिए भारत आ गए। अब इन मुसलमानों की पहचान भारत में इस्रायली मुसलमानों की हैसियत से होती है। ऐसे मुसलमानों की आबादी अलीगढ़ की एक जानी-मानी पतली गली में है। पतली गली संकीर्ण तो है ही लेकिन उसका नाम भी पतली गली है। ऐसे 30 परिवार यहां बसे हुए हैं। दिलचस्प बात यह है कि इस्रायल से आए वैज्ञानिकों और इतिहासकारों की टीम इन हिन्दुस्थानी मुसलमानों के रक्त की जांच कर रही है। उक्त सनसनीपूर्ण समाचार अमरीका के वाल स्ट्रीट जनरल में प्रकाशित हुआ है। रपट में कहा गया है यहूदी नस्ल के मुसलमानों की खोज में इस्रायल ने बढ़-चढ़कर दिलचस्पी ली है। कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के मलीहाबाद के निकट बसे पठानों की आबादी के तार भी इस्रायल से जुड़े होने के सबूत मिले हैं। अलीगढ़ की बस्ती एक दूसरा उदाहरण है, जहां यहूदी नस्ल के लोग पाए गए हैं। इस्रायल ने कुछ समय पहले पाकिस्तान के उत्तरी-पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में भी पठानों के आफरी कबीले में इस्रायली नस्ल के पठानों को ढूंढ निकाला था। बाद  में उनकी बड़ी संख्या को इस्रायल में ले जाकर बसा दिया था। उक्त पठानों का समूह तेलअवीव पहुंच कर पुन: यहूदी बन गया। फ्लोरिडा इंटरनेशनल विश्वविद्यालय के अनुसार 1400 वर्ष पूर्व जब मुसलमान और यहूदियों में संघर्ष हुआ तो बहुत सारे लोग भारत आ गए। वे यहूदी रहे हों अथवा मुसलमान हो गए हों, यह एक छोटा मुद्दा है। लेकिन यथार्थ यह है कि आज के असंख्य मुसलमानों में इस्रायली रक्त प्रवाहित है। मुम्बई में यहूदियों को आज भी (जो आबादी है वे इस्रायली नस्ल के हैं) ऐसा माना जाता है। यही स्थिति केरल के यहूदियों की भी है। जो यहूदी यहां हैं वे कभी सऊदी अरब के भाग हिजाज के रहने वाले थे।

इस्रायली पिंड

इस्रायल का जन्म भौगोलिक आधार पर तो 1949 में ही हुआ लेकिन तत्कालीन अरब, जिसमें आज के सऊदी अरब, यमन और फिलीस्तीन में रहने वाले यहूदियों की आबादी सबसे अधिक थी। जहां तक भारत आए यहूदियों (जो अब मुसलमान हो गए हैं) के पिंड का सवाल है वह वैज्ञानिक रूप से आज भी इस्रायल का ही है। क्रूसेड वार के परिणामस्वरूप ईसाई तो यूरोप की तरफ बढ़ गए। लेकिन यहूदियों की बहुत बड़ी संख्या फिलीस्तीन और उसके आस-पास बसी हुई थी। मुस्लिमों से संघर्ष होने के बाद यहूदी जनता इस क्षेत्र से निकलकर विश्व के अनेक देशों में फैल गई। भारत में भी उनकी जनसंख्या अनेक स्थानों पर आकर बस गई। केरल और उत्तर पूर्वी भारत इनके मुख्य क्षेत्र थे। बाहर से आए यहूदियों के अनेक कबीले आज भी यहां देखने को मिलते हैं। वे 19वीं शताब्दी में ईसाई हो गए थे। लेकिन इस्रायल के लोग आज भी उन्हें अपना अंग मानते हैं। उनका कहना है कि उनके त्योहार और रस्म-रिवाज वही हैं, जो इस्रायल के यहूदियों के हैं। इनमें से अनेक कबीले इस्रायल की प्रेरणा से पुन: यरुशलम और तेलअबीब की ओर लौट गए हैं। इस्रायल पहुंचने पर उन्होंने अपने पुराने मत यहूदियत को स्वीकार कर लिया है।

अलीगढ़ के नजीर अली का कहना है कि हम बनू इस्रायल की संतानें हैं, लेकिन अब तो हम मुसलमान हैं और इस्लाम ही हमारा मजहब है। उनके बड़े बेटे मोहम्मद नजीर का कहना है कि बनू इस्रायली होना हमारे लिए गर्व की बात हो सकती है, लेकिन मजहबी आस्था हमारी प्राथमिकता है, नस्ल और वंश नहीं। अलीगढ़ के एक प्रधानाध्यापक नौशाद अहमद, जो अपने नाम के साथ इस्रायली शब्द लगाते हैं, उनका कहना है कि इस्रायल के लिए हमारा दिल धड़कता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। 11वीं शताब्दी में मोहम्मद गोरी ने हिन्दुस्थान में पांव रखा तो बनू इस्रायली उसके साथ थे, जो आगे चलकर भारत में ही स्थायी हो गए।

नस्ल नहीं बदलती

उपरोक्त घटना यह बताती है कि लोगों की मजहबी आस्था अनेक कारणों से बदलती रही है। लेकिन उनका रक्त और नस्ल बदलने का सवाल ही पैदा नहीं होता है। मध्य एशिया में यहूदी मत सबसे प्राचीन माना जाता है। उसके बाद ईसाई पंथ आया और बाद में इस्लाम। समय और परिस्थितियों के कारण बाद में आने वाले पंथों ने अपने से पूर्व आए पंथ के लोगों को मतान्तरित किया। विश्व में यहूदियत से भी अधिक प्राचीन पारसियों का जरथ्रुष्ट और चीनियों का कनफ्यूशियस मत रहा है। इसके साथ ही भारत में सनातन धर्म सबसे अधिक प्राचीन रहा है। इसके बाद जैन एवं बौद्ध मत की शुरुआत हुई। सनातन धर्म प्राचीन मत-पंथों में एक है, इसके असंख्य सबूत हैं। यहूदियत के प्रणेता हजरत इब्राहीम थे। उनके पश्चात् हजरत ईसा ने ईसाई मत एवं पैगम्बर हजरत मोहम्मद ने इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया। ईसाइयत और इस्लाम का जब उदय हुआ तो यहूदियों से ही उनका मतान्तरण हुआ यह स्वयं सिद्ध है। इसी आधार पर जब विदेशी आक्रमण प्रारम्भ हुए तो इन आक्रांताओं के साथ ईसाई और इस्लाम की विचारधारा का भी भारतीय उपखण्ड में श्रीगणेश हुआ। किस प्रकार सम्पूर्ण विश्व में यहूदियत फैली और उसके अनुयाई सम्पूर्ण जगत में किस तरह से फैल गए इस पर वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं। जब कोई विजेता बनता है तो अपने साथ अपने मत को भी पराजित देश पर थोपने का प्रयास करता है। यहूदियों ने तो अपनी विजय को ही अपने मजहब का माध्यम बना लिया।

19वीं और 20वीं शताब्दी में जब लोकतंत्र का श्रीगणेश हुआ उस समय पंथ पर आधारित दर्शन में इस बात की चर्चा होने लगी कि क्या अब विभिन्न आस्थाओं को अपने पुराने घर में लौटने का समय आ गया है? एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका से जिन लोगों को उत्तरी अमरीका में गुलाम बनाकर लाया गया था वे विचार करने लगे हैं कि क्या मजहबी, सामाजिक, सांस्कृतिक और पौराणिक आधार पर हमारी घर वापसी हो सकती है? फिजी, सूरीनाम, मारीशस जैसे आठ देश, जहां दो करोड़ भारतीय रहते हैं, उनके मन में यह बात उठने लगी कि हमें भी कभी गुलाम बनाकर भारत से लाया गया था। अब हम आजाद हैं, यहां हमारी सरकार है। क्या भारतीयता को हम अपने इन देशों में परवान चढ़ा सकते हैं? भारतीय उपखण्ड के देश विचार करने लगे हैं कि क्या अपने पिंड से पुन: जुड़ने का आन्दोलन चलाने का समय आ गया है।

भारत में वंशावलियों को सुरक्षित रखने की परम्परा बड़ी प्राचीन है। तीर्थों पर पोथी तैयार करने वाले पंडित आज भी हमारे प्राचीन तीर्थों के आस-पास रहते हैं। असंख्य भारतीय उनके पास जाकर अपने वंश की पीढ़ी-दर-पीढ़ी जानकारी प्राप्त करते हैं। भारत में बसने वाली जनता को यदि अपना भूतकाल मालूम हो गया तो आज जो मजहब और जाति के झगड़े हैं वे स्वत: ही समाप्त हो जाएंगे।

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