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फिर क्रिकेट की बात

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Jul 21, 2012, 12:00 am IST
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फिर क्रिकेट की बातयह कूटनीतिक दीवालियापन कब तक?

दिंनाक: 21 Jul 2012 17:13:54

यह कूटनीतिक दीवालियापन कब तक?

मेजर जनरल (से.नि.) शेरू थपलियाल

पाकिस्तान को खुद को बहुत खुशकिस्मत समझना चाहिए कि भारत उसका पड़ोसी है, ऐसा देश जिसकी क्षमाशीलता की कोई मिसाल नहीं। 14 अगस्त सन् 1947 से, जबसे पाकिस्तान बना है, उसने भारत को सताए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और हमने हमेशा उसे क्षमा करने में सब हदें पार कर दीं। नतीजा यह हुआ है कि आज दुनिया में हमारी कोई कूटनीतिक साख नहीं है। अगर हम दुनिया की एक बड़ी ताकत बनना चाहते हैं तो हमें अपने छोटे पड़ोसी को काबू में रखना होगा। लेकिन हमारी सेकुलर सरकार सोचती है कि अगर हम पाकिस्तान की हरकतों को नजरअंदाज करते जाएंगे तो पाकिस्तान हमारा अहसान मानेगा, हमारा ऋणी बन जाएगा। पर ऐसा कभी नहीं हुआ है, बल्कि उसे और शह ही मिली है। यहां इसकी कुछ पृष्ठभूमि पर निगाह डालना समीचीन रहेगा।

सन् '47 का युद्ध

सन् '47 की ही बात करें तो जब हम युद्ध जीतने की स्थिति में थे तब अंग्रेजों की शह पर हम कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले गये। नतीजा यह हुआ कि यह मामला हमारे गले की फांस बन गया। सबसे शर्मनाक स्थिति तो यह है कि हमने आज तक पाकिस्तान को उसके कब्जे वाले कश्मीर से हटने तक को नहीं कहा, जबकि संयुक्त राष्ट्र के 13 अगस्त 1948 के प्रस्ताव में यह साफ लिखा है कि पाकिस्तान को उसका कब्जा किया पूरा इलाका खाली करना है। आखिर हम क्यों पाकिस्तान को खुश रखना चाहते हैं, जबकि उसका एकमात्र एजेंडा भारत के टुकड़े करना है?

1965 की लड़ाई

1965 में हमारी सेना ने हाजी पीर पर कब्जा कर लिया था। सामरिक तौर पर यह बहुत महत्वपूर्ण था। आज कश्मीर और पुंछ इलाके में जो आतंकवादी घुस रहे हैं वे ज्यादातर यहीं से आते हैं। उस समय हमने एक बहुत बड़ी भूल की थी। वह यह कि इस मसले पर रूस की मध्यस्थता स्वीकार की और हाजी पीर लौटा दिया। आज भी हम उस गलती की सजा भुगत रहे हैं। शायद शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को अहसास हो गया था कि उनसे गलती हो गई।

1971 युद्ध और शिमला समझौता

सामरिक तौर पर भारत की स्थिति जितनी अच्छी 1971 के युद्ध के बाद थी उतनी इतिहास में कभी नहीं थी। परंतु हमने उसका भी लाभ नहीं उठाया। वही पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गोरी वाली कहानी दोहरा दी गई। तब नियंत्रण रेखा को सीमा रेखा बनाने का उससे अच्छा मौका नहीं था, पर आश्चर्य है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से यह भूल हो गई कि उन्होंने उस वक्त के पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो की बात पर यकीन कर लिया। इस भूल का नतीजा हम आज तक भुगत रहे हैं और यही हाल रहा तो आगे भी भुगतते रहेंगे।

धोखे की पराकाष्ठा

1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सद्इच्छाओं पर कुठाराघात करते हुए पाकिस्तानी सेना कारगिल में घुसपैठ कर गई। कौन भूल सकता है कि हमारी शराफत का पाकिस्तान ने क्या जवाब दिया था? कारगिल युद्ध हुआ और पाकिस्तान ने फिर से करारी चपत खाई। लेकिन उससे भी हम सबक नहीं ले रहे हैं। हम सोचते हैं कि पाकिस्तान के तुष्टीकरण से सब कुछ ठीक हो जाएगा।

आतंकवाद–पाकिस्तान का सरकारी हथियार

जब पाकिस्तान को लगने लगा कि परोक्ष युद्ध में वह भारत का मुकाबला नहीं कर सकता, तो उसने आतंकवाद का हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। भारत पर कितने आतंकी हमले हुए हैं इसकी गिनती रखना मुश्किल है। पर इसके बावजूद हमारे आज के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का विचार है कि पाकिस्तान के साथ बातचीत जारी रहनी चाहिए। हाल में पकड़े गए जिहादी अबु जुंदाल के खुलासे के बावजूद पाकिस्तान यह मानने को तैयार नहीं कि मुम्बई आतंकी हमला पाकिस्तानी सत्ता की शह पर रची गई साजिश था। पाकिस्तान की न्यायपालिका ने भारत के इस संबंध में दिए गए तमाम प्रमाणों को खारिज कर दिया है। वे कहते हैं कि मुख्य षड्यंत्रकारी हाफिज सईद के खिलाफ कोई सबूत नहीं है। पड़ोसी देश की ऐसी मानसिकता बार-बार सामने आती रही हो तो उससे बातचीत का कोई अर्थ नहीं रह जाता। शर्म-अल-शेख में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जिस प्रकार हाथ खड़े करने जैसा रुख दिखाया, वह भारत की कूटनीतिक असफलता ही सामने रखता था।

फिर क्रिकेट का मलहम

भारत की विदेश नीति का सबसे कमजोर पक्ष यह है कि हम कड़वे अनुभवों से सबक नहीं लेते। अभी कुछ दिन पहले भारत और पाकिस्तान के विदेश और रक्षा सचिवों की सियाचिन और सरक्रीक मामलों पर बातचीत हुई थी, जिसका कोई नतीजा नहीं निकला। पाकिस्तान अपनी बात पर अड़ा है। ऐसे माहौल में यह एकतरफा घोषणा करना कि हम पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना शुरू करेंगे, गफलत की पराकाष्ठा है। अगर हम यह सोचते हैं कि इससे भारत-पाक रिश्ते सुधर जाएंगे तो हमसे बड़ा कूटनीतिक दीवालिया संसार में कोई और नहीं होगा। यह बेहद चिंताजनक बात है कि हम अपने दुश्मन पर कभी दबाव नहीं बनाते, हमेशा उसे खुश करने के प्रयास करते रहते हैं। भारत के ज्यादातर राजनीतिक दलों ने इस क्रिकेट कूटनीति का विरोध किया है, पर आज की लीगी सोच वाली सोनिया पार्टी की सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। हमारे प्रधानमंत्री सोचते हैं कि पाकिस्तान को एकतरफा खुश करने से दोनों देशों की समस्या हल हो जाएगी। इससे बड़ी गलतफहमी क्या हो सकती है?

आज जैसे हालात बने हैं उनको देखते हुए हमें संयुक्त राष्ट्र के समझौते के मुताबिक पाकिस्तान पर दबाव बनाना चाहिए कि वह जम्मू-कश्मीर के कब्जाए हिस्से को खाली करे। पाकिस्तान से तब तक किसी भी तरह की बात नहीं होनी चाहिए जब तक वह अपने द्वारा प्रायोजित जिहाद को खत्म नहीं करता। हमारी विदेश नीति ऐसी हो कि तुष्टीकरण की मानसिकता का उसमें रत्ती भर पुट न हो। साथ ही, आतंकवाद को शह देने की पाकिस्तानी सत्ता तंत्र की मंशाओं के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक वातावरण बनाने की आवश्यकता है।

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