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बात है मुगलों के शासनकाल की। उस समय दक्षिण के रंजनम् नामक गांव में शान्तोबा नाम के एक धनवान व्यक्ति रहते थे। आरम्भ में तो वे बड़े विलासी थे। अन्त में अपने पूर्व पुण्य एवं भगवत्कृपा से घर-बार छोड़कर पर्वत पर चले गये। उन्हें सच्चा वैराग्य हो गया था। अपनी कही जाने वाली सारी सम्पत्ति उन्होंने अनाथ, भिक्षुक एवं साधु-महात्माओं में वितरित कर दी थी।
उनकी पत्नी साध्वी थीं। पति के वियोग में रो-रोकर अपने दिन काट रही थीं। एक दिन घर वालों ने उनसे कहा कि 'तू शान्तोबा के पास चली जा। तेरे अनुपम सौन्दर्य को देखकर वह तुरंत लौट आयेगा।'
हर्षोन्माद में वह अपने तन-मन की सुध-बुध खोकर भागती हुई अपने पति के पास पहुंच गयी। वह पति के चरणों पर गिर पड़ी और जी भरकर रोयी। उसके आंसुओं से शान्तोबा के दोनों पांव भीग गये। रोते-रोते उसने कहा-' नाथ! आपने परिवार त्याग कर दिया, यह तो अच्छा किया, पर मैं तो आपकी पत्नी हूं। मेरे प्राणों के आधार एकमात्र आप ही हैं। मुझे तो नहीं छोड़ना चाहिए। आपको विश्वास दिलाती हूं कि मैं आपके प्रत्येक कार्य में सहयोग दूंगी, आप जहां कहीं रहें, मुझे अपने चरणों में ही रखें।'
पत्नी की विनीत वाणी सुनकर शान्तोबा बोले- 'यदि तुम मेरे पास रहना चाहती हो, तो तुम्हें मेरी ही तरह रहना पड़ेगा। शरीर के ये अलंकार अलग कर देने पड़ेंगे और तपस्विनी की भांति रहना पड़ेगा, अन्यथा तुम्हारी इच्छा हो तो लौट सकती हो, मुझे किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है।' पत्नी के सौन्दर्य का शान्तोबा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था।
सती नारी ने अपने अलंकार तुरंत उतार दिये और शरीर पर केवल साड़ी रहने दी। उसकी प्रसन्नता की सीमा नहीं थी। वह फल-फूल लाकर अपने पति की हर प्रकार से सेवा करती तथा भगवान नाम का जप करती रहती। भोगों के प्रति उसका जरा भी आकर्षण नहीं रह गया था। वैराग्य की वह जीवित प्रतिमा-सी लग रही थी।
पत्नी के तप, त्याग और भोगों की सर्वथा अनच्छिा देखकर शान्तोबा परम सुख और शान्ति का अनुभव कर रहे थे। पत्नी की परीक्षा के लिए उन्होंने एक दिन कहा- 'रोटी खाये मुझे बहुत दिन बीत गये हैं। तू गांव से केवल सूखी रोटी मांग ला।'
सती चल पड़ी। वह धनी परिवार की वधू थी। भीख किस प्रकार मांगी जाती है, वह जानती नहीं थी। शरीर का वस्त्र भी फट चला था। फिर भी वह अपने पति की रोटी के लिए गांव में घूम रही थी। गलती से वह अपनी ननद के घर चली गयी। उसकी ननद उसी गांव में ब्याही गई थी। ननद ने भाभी को इस रूप में देखा तो वह रोने लगी। सती नारी ने ननद से सारा वृत्तान्त कहकर कहा- 'तुम मुझे सूखी रोटी शीघ्रता से दे दो, भूखे स्वामी मेरी बाट देख रहे होंगे।'
ननद तुरंत एक थाली में हलुआ, पूरी और साग ले आयी। शान्तोबा की पत्नी ने कहा कि 'उन्होंने केवल सूखी रोटी मांगी है।' पर ननद के सामने उसकी एक न चली। दौड़ी हुई वह पति के पास पहुंची।
'हलवा, पूरी और साग के लिए तुमसे किसने कहा था?' शान्तोबा ने भोजन स्वीकार नहीं किया। कांपती हुई उनकी पत्नी ने सारी बात बता दी।
'मैं तो सूखी रोटी ही खाऊंगा'- हलवा, पूरी की ओर से मुंह फेरकर शान्तोबा ने कहा।
पति की आज्ञा पाकर पुन: अत्यन्त प्रसन्नता से रोटी मांगने के लिए चल पड़ी। दौड़ती हुई वह गांव में गयी और कई घरों से सूखी रोटी मांगकर शीघ्रता से लौटी। रास्ते में मूसलाधार वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही दूरी पर भीमा नदी पड़ती थी। उस समय भीमा का विकराल स्वरूप हो गया था। शान्तोबा की पत्नी घबरा गयी। भीमा को पार करना किसी प्रकार भी संभव नहीं था।
सती दु:ख की अधिकता से व्याकुल होकर पतित-पावन पाण्डुरंग से प्रार्थना करने लगी- 'प्रभो! मेरे स्वामी भूखे हैं। मैं यहां पड़ी हूं। मैं छटपटा रही हूं। इस समय आपके अतिरिक्त मेरा और कोई सहायक नहीं है। दयामय! दया कीजिये।' सती फूट-फूटकर रोने लगी।
केवट बनकर पाण्डुरंग सती के सामने खड़े हो गये। मुझे किसी प्रकार नदी पार पहुंचा दो। गिड़गिड़ाते हुए सती ने प्रार्थना की और मूर्छित हो गयी।
भगवान ने उसे कंधे पर उठाया और शान्तोबा की कुटी के सामने छोड़कर अन्तर्धान हो गये। सती की चेतना भी जाग्रत हो गयी।
उसने रोटी का टुकड़ा पति देव के सामने रख दिया। पर शान्तोबा ने उस टुकड़े को देखा तक भी नहीं। वे अपलक नयनों से अपनी पत्नी की ओर देख रहे थे।
पति के पूछने पर सती ने सारी बात ज्यों की त्यों बता दी। शान्तोबा रोने लगे। देहरी तक आकर लौट गये प्रभु। वे चिल्लाने लगे। उन्होंने कहा 'देवी! तू धन्य है। बड़े भाग्य से मैंने तुझे पत्नी के रूप में पाया है।'
शान्तोबा ने निश्चय कर लिया जब तक उस केवट के दर्शन नहीं होंगे, मैं अन्न जल कुछ नहीं ग्रहण करूंगा। पति के उपवास करने पर पत्नी कैसे खाती। दोनों उपवास करने लगे। विवश होकर श्याम सुन्दर को दर्शन देने पड़े।
सती ने अपना अन्तिम जीवन पति के साथ पण्ढरपुर में रहकर व्यतीत किया।
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