ओलम्पिक खेलों में भारत की दयनीय स्थितिखेल पर राजनीति हावी रहेगी तो कैसे पूरी होगी पदकों की आस?-कन्हैयालाल चतुर्वेदी
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ओलम्पिक खेलों में भारत की दयनीय स्थितिखेल पर राजनीति हावी रहेगी तो कैसे पूरी होगी पदकों की आस?-कन्हैयालाल चतुर्वेदी

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Jul 21, 2012, 12:00 am IST
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दिंनाक: 21 Jul 2012 17:16:16

27 जुलाई से लन्दन में ओलम्पिक खेल प्रारम्भ होने जा रहे हैं जिनका समापन 12 अगस्त को होगा। इन खेलों में अमरीका और चीन में जहां अधिकतम पदक जीतने की होड़ रहेगी, वहीं भारत की कोशिश पदक-तालिका में अपना नाम दर्ज कराने की होगी। क्रिकेट के लिए दीवानगी की हद तक पैदा किया गया जुनून, राजनीति और भ्रष्टाचार ने खेल जगत में हमारी स्थिति ऐसी दयनीय बना दी है कि विश्व का दूसरा सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश बीस ओलम्पिक खेलों में अब तक कुल बीस ही पदक जीत पाया है।

ओलम्पिक की पृष्ठभूमि

इंग्लैण्ड की राजधानी लंदन में ओलम्पिक खेलों का आयोजन तीसरी बार हो रहा है। इसके पहले सन् 1908 तथा 1948 में भी इस महानगर में खेलों का महाकुम्भ हुआ था। इस बार का आयोजन वास्तव में सत्ताईसवां है क्योंकि प्रथम विश्वयुद्ध के कारण 1916 में बर्लिन में होने वाले छठे ओलम्पिक तथा द्वितीय महायुद्ध के कारण सन् 1940 और 1944 में क्रमश: तोकियो तथा हेलसिंकी में होने वाले बारहवें तथा तेरहवें आयोजन नहीं हो पाये थे।

इन खेलों का प्रारम्भ यूनान में लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व हुआ था। युगाब्द 2218(ई.पू.884) में पहले ओलम्पिक खेल होने के प्रमाण मिलते हैं। ओलम्पिया नगर में होने से इनका नाम 'ओलम्पिक खेल' पड़ा। प्रारम्भ में ये खेल एक दिन के होते थे और इनमें केवल दौड़ की प्रतियोगिताएं होती थीं। बाद में मुक्केबाजी, घुड़सवारी, कुश्ती, रथों की दौड़ आदि शामिल किये जाने से ओलम्पिक खेलों की अवधि पांच दिनों की हो गई। बाद में इनमें नृत्य, संगीत, कविता, कहानी आदि प्रतियोगिताएं भी होने लगीं और खेलों की अवधि भी एक माह की हो गई। यूनान में ये आयोजन युगाब्द 3168 अर्थात् ईस्वी 66 तक होते रहे, बाद में हमलावरों ने ओलम्पिया को नष्ट कर दिया। रोम के ईसाई शासक थियोडोसियस ने जीयस के मन्दिर को आग के हवाले कर ओलम्पिक खेलों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया।

उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में पुरातत्वविदों को खुदाई में ओलम्पिया के खण्डहर मिले तो इन खेलांे की याद ताजा हो गई। एक फ्रांसीसी जागीरदार पियरे द कुबर्तिन ने भी इन खण्डहरों को देखा। कई दिनों तक वह इन खण्डहरों में घूमता रहा और ओलम्पिक खेलों को पुनर्जीवित करने का स्वप्न उसके मन में आकार लेता रहा। 1894 में उसने यूरोपीय देशों के खेल प्रतिनिधियों को पेरिस में इकट्ठा किया और दुनिया के सभी देशों की खेल प्रतियोगिता का प्रस्ताव सबके सामने रखा। सभी प्रतिनिधि तुरंत सहमत हो गये, परिणामस्वरूप उसी बैठक में 'अन्तरराष्ट्रीय खेल कांग्रेस' का गठन हुआ। पहले ओलम्पिक खेल यूनान की राजधानी एथेंस में रखने का निर्णय लिया गया। बाद में यही संगठन 'अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति' के नाम से इन खेलों का संचालन करने लगा।

बहरहाल, भारत ने एम्सटर्डम (हालैण्ड) में 1928 में हुए नौवंे ओलम्पिक से भागीदारी प्रारम्भ की और प्रवेश के साथ ही हाकी में स्वर्ण पदक जीत लिया। हाकी में भारत ने इसके बाद 1956 के मेलबोर्न ओलम्पिक तक लगातार 6 स्वर्ण पदक जीते। रोम ओलम्पिक में हमें रजत पदक ही मिला, लेकिन तोकियो (1964) में फिर से हमारी हाकी पहले पायदान पर रही। इसके बाद की कहानी हाकी में भारत के पतन की कहानी है। 1968 के मैक्सिको खेलों में हमें कांस्य पदक मिला। मास्को ओलम्पिक (1980) में अमरीकी गुट के लगभग सत्तर देशों के बहिष्कार के कारण हाकी में फिर से हमें स्वर्ण पदक प्राप्त हो गया। इस प्रकार ओलम्पिक में 11 पदक तो हमें केवल हाकी में मिले हैं।

इस बीच फिनलैण्ड की राजधानी हेलसिंकी के खेलों (1952) में भारत के के.डी.जाधव ने कुश्ती में कांस्य पदक जीतकर व्यक्तिगत स्पर्धाओं में भारत का पदक खाता खोला। इसके चवालीस साल और दस खेल महाकुम्भों के बाद एटलांटा (1996) में लिएण्डर पेस ने लान टेनिस में कांस्य पदक जीता। चार साल बाद सिडनी में मल्लेश्वरी ने भारोत्तोलन में कांस्य पदक जीतकर पदकों की संख्या 14 की और एथेंस में राज्यवर्द्धन राठौड़ ने निशानेबाजी में रजत पदक पर निशाना लगाया। बीजिंग में हुए पिछले खेलों में भारत के किसी खिलाड़ी ने पहली बार कोई स्वर्ण पदक प्राप्त किया। ये खिलाड़ी निशानेबाज अभिनव बिन्द्रा थे। इसके अतिरिक्त कुश्ती और मुक्केबाजी में भी भारत ने एक-एक कांस्य जीता। इस तरह हमारे ओलम्पिक खाते में कुल 18 पदक जमा हो गये। सन् 1900 में पेरिस में हुए दूसरे ओलम्पिक में अंग्रेज खिलाड़ी नारमन प्रिचर्ड ने भारतीय प्रतिनिधि के नाते भाग लिया था तथा दो रजत पदक भी जीते थे। इन्हें यदि जोड़ लिया जाये तो बीस ओलम्पिकों में हमने नौ स्वर्ण, चार रजत तथा सात कांस्य अर्थात् कुल बीस पदक जीते हैं। दूसरी ओर यूक्रेन (पूर्व सोवियत संघ) की जिमनास्ट लारिसा लात्यनीना ने अकेले ही लगातार तीन ओलम्पिकों में 12 स्वर्ण, 3 रजत तथा 3 कांस्य सहित अपने देश के लिये 18 पदक जीते हैं!

क्यों पिछड़े हम?

क्या कारण है कि 120 करोड़ की जनसंख्या वाला यह देश खेलों में इतना पिछड़ा हुआ है कि ओलम्पिक जैसी स्पर्धाओं में हम कोई पदक ही नहीं जीत पाते हैं और यही गुणगान करते रहते हैं कि अमुक ओलम्पिक में अमुक खिलाड़ी सैकेण्ड के दसवें भाग से चौथे स्थान पर फिसल गया और कांस्य पदक मिलते-मिलते रह गया? खेलों में फिसड्डी रहने के अनेकों बार कई काल्पनिक कारण गिनाये जाते हैं। कहा जाता है कि भारत की जलवायु गर्म है और इसलिये यूरोपीय खिलाड़ियांे जैसा दम-खम हमारे खिलाड़ियों में नहीं होता। इथोपिया तो और भी अधिक गर्म जलवायु वाला देश है और अत्यंत पिछड़ा हुआ है। सन् 1964 के तोकियो खेलों में इसी देश के एबेबे बिकिला ने मैराथन दौड़ का स्वर्ण पदक जीत कर तहलका मचा दिया था। रोचक बात यह थी कि आयोजकों के पास इथोपिया का राष्ट्र-गान ही नहीं था, जिसे बिकिला के स्पर्ण पदक जीतने के बाद बजाया जाना था। इसलिये उस समय जापान का  ही राष्ट्रगान हुआ। बिकिला ने अगले ओलम्पिक (मैक्सिको) में भी मैराथन का स्वर्ण जीता। केन्या में बारह महीनों गर्मी पड़ती है, लेकिन लम्बी दौड़ों में किप कीनिया जैसे धावकों ने इन खेलों में दबदबा बना रखा है। मेलबोर्न खेलों (1956) में हमारी फुटबाल की टीम भी आखिरी चार में पहुंची थी। एशियाई खेलों में फुटबाल में हमने स्वर्ण पदक जीता है और आज इस खेल में हम विश्व के 142वें क्रमांक के देश हैं।

इसलिये हमारे पिछड़ने के कारण दूसरे हैं। पहला और सबसे बड़ा कारण तो क्रिकेट है, जिसने भारत के खेल जगत को अपने ग्लेमर और पैसे के पाश में जकड़ रखा है। भारत का क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड न तो किसी सरकार या कानून-कायदों की परवाह करता है और न किसी अन्य खेल को पनपने देता है। खेलों में राजनीति और भ्रष्टाचार भी हमारे पिछड़ने का दूसरा बड़ा कारण है। हेलसिंकी खेलों में कुश्ती में कांस्य जीतने वाले के.डी.जाधव की आपबीती भ्रष्टाचार का जीता-जागता उदाहरण है। खेल अधिकारी अपने एक चहेते पहलवान को ले जाना चाहते थे, इसलिये उन्होंने योग्यता मुकाबले में जाधव को हारा हुआ घोषित कर दिया। जाधव ने खेल प्रेमी महाराजा पटियाला से गुहार लगाई तो कुश्ती दोबारा हुई। जाधव ने अधिकारियों के चहेते को मिनटों में चित कर दिया। जाधव अपना घर-बार गिरवी रख कर किसी तरह हेलसिंकी पहुंचे और वहां व्यक्तिगत मुकाबलों में भारत के लिये पहला कांस्य जीता। लेकिन कांस्य पदक जीतने के बाद भी उनकी उपेक्षा हुई और भीषण गरीबी में वे एक दुर्घटना का शिकार हो गये।

यह तो आज से साठ साल पहले की घटना है। आज तो खेल संगठनों में राजनीति और भ्रष्टाचार चरम पर है। जिन्हें खेलों का क ख ग भी नहीं पता ऐसे लोग इन संगठनों में निर्णायक बने हुए हैं। अपने समय की प्रसिद्ध एथलीट अश्विनि नचप्पा ने कुछ दिनों पहले ही कहा है कि यदि उनके जैसे लोग खेल प्रशासन में शामिल किये जायें तो भारत में खेलों के विकास को गति मिल सकती है।

क्या होगा इस बार?

ओलम्पिक के महाकुम्भ में सम्मिलित होना अपने आप में बड़ी बात है। इस बार भी 205 देशों के लगभग साढ़े दस हजार खिलाड़ी और खेल अधिकारी इसमें भाग ले रहे हैं। दांव पर 302 स्वर्ण पदक हैं, इसलिये पदक उन्हीं को मिलेंगे जो पूरी ताकत और समर्पण के साथ सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करेंगे और खिलाड़ी ऐसा प्रदर्शन तभी कर सकता है जब बिना किसी भेद-भाव के प्रतिभा के आधार पर चयन हो। भारत में ऐसा नहीं होता।

कई खेल अधिकारियों और उनकी देखा-देखी कई खिलाड़ियों का भी ओलम्पिक में जाने का उद्देश्य मात्र सैर-सपाटा होता है, देश की प्रतिष्ठा की उन्हें कतई चिन्ता नहीं होती। इसलिये जो एकाग्रता और समर्पण भाव सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिये चाहिये उनका हमारे खिलाड़ियों में अभाव रहता है। एकाग्रता और समर्पण के बूते कई खिलाड़ियों ने ओलम्पिक में चमत्कारिक प्रदर्शन किए हैं। 1948 के लंदन खेलों में दो बच्चों की मां और तीस साल की फैनी कोइन (हालैण्ड) ने फरर्ाटा दौड़ों में चार स्वर्ण पदक जीत लिये थे। 1920 के ओलम्पिक में स्वीडन के ऑस्कर स्वान ने 72 वर्ष की पकी आयु में निशानेबाजी का स्वर्ण पदक जीता था। ऐसे कई उदहारण हैं। लेकिन ऐसी संकल्पशक्ति व्यक्ति में तभी आती है जब प्रतिभाओं को उचित प्रोत्साहन मिले। भारत में यह दूर की बात है। लंदन ओलम्पिक में भी हम भारी-भरकम दल भेज रहे हैं। कई खिलाड़ी तो खेल-गांव पहुंच भी चुके हैं। सारी अड़चनों के बाद भी इस बार पांच-छह पदक हमारी झोली में आ सकते हैं। पदकों की सर्वाधिक सम्भावना कुश्ती, मुक्केबाजी और निशानेबाजी में है। तीरंदाजी, भारोत्तोलन तथा बैडमिण्टन में भी एक-दो कांस्य पदक हमारे हाथ लग सकते हैं। पदकों की संख्या बढ़ सकती थी यदि हमारे परम्परागत खेल कबड्डी, खो-खो, मलखम्भ आदि भी ओलम्पिक खेलों में सम्मिलित किये जाते। इस संदर्भ में चीन ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। पिंग-पांग (टेबल टेनिस) तथा बैडमिण्टन चीन के अपने खेल हैं। इनमें चीनी दबदबे को चुनौती देने वाला कोई नहीं है। इसी के साथ अन्य खेलों में भी चीन ने अपनी ताकत दिखाई है। एक समझ-बूझ वाला खेल वातावरण तैयार कर उत्तम कोटि के खेल प्रशासन से यह सम्भव हुआ है। लंदन में भी अमरीका और चीन में ही सर्वाधिक पदकों की होड़ रहेगी। यह केवल संयोग नहीं है कि दोनों ही देश क्रिकेट नहीं खेलते।

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