बढ़ती देनदारी में दरियादिली क्यों?
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डा. अश्विनी महाजन
हाल ही में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने यूरोपीय समुदाय को आर्थिक संकट से निपटने हेतु भारत की ओर से 10 अरब डॉलर की सहायता देने की घोषणा की है। पिछले कुछ वर्षों से यूरोपीय समुदाय के कुछ देशों, खासतौर पर ग्रीस, इटली, स्पेन, पुर्तगाल इत्यादि में आये आर्थिक संकट के कारण उनकी अर्थव्यवस्थाएं डगमगाई हुई हैं। प्रधानमंत्री ने मैक्सिको के लॉस कैबोस शहर में आयोजित जी-20 देशों के सातवें शिखर सम्मेलन के अवसर पर यह घोषणा की थी।
क्या है भारत की सहायता?
एक वैश्विक संस्था है अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.)। इस संस्था से अपेक्षा रहती है कि सदस्य राष्ट्रों को यदि अपनी देनदारियों के संबंध में कोई अल्पकालिक समस्या आए तो उन्हें ऋण के रूप में सहायता प्रदान करे। पिछले कुछ समय से यूरोपीय समुदाय के कुछ देशों पर आये आर्थिक संकट के बाद आई.एम.एफ. का रुख और योगदान कोई बहुत सहकारिता वाला नहीं रहा। यूरोपीय समुदाय द्वारा ही अपने देशों के लिए अधिकतर सहायता प्रदान की गई। हाल ही में यूरोप में भीषण आर्थिक संकट के चलते आई.एम.एफ. ने भी 430 अरब डॉलर की सहायता उपलब्ध कराने का निर्णय लिया है। यह सहायता तमाम प्रकार के अन्य उपायों के समाप्त होने के बाद ही दी जायेगी।
430 अरब डॉलर की आई.एम.एफ. की इस राहत योजना में 'ब्रिक्स' देशों (भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और रूस) द्वारा 75 अरब डॉलर का अंशदान दिया जाना तय किया गया है। इसमें से 43 अरब डॉलर चीन द्वारा, भारत, रूस और ब्राजील प्रत्येक द्वारा 10 अरब डॉलर और दक्षिण अफ्रीका द्वारा 2 अरब डॉलर का अंशदान रहेगा। हालांकि 'ब्रिक्स' देशों द्वारा आई.एम.एफ. के सामने एक शर्त भी रखी गई है कि इस अंशदान के साथ उन देशों की मतदान ताकत आई.एम.एफ. में उसी अनुसार बढ़ाई जायेगी।
भारत और आई.एम.एफ. का इतिहास
1980 के दशक में तत्कालीन सरकार द्वारा आई.एम.एफ. से महज 5 अरब डॉलर की सहायता लेने का फैसला किया गया था। उस समय यह सहायता भारत के बिगड़ते व्यापार घाटे को पाटने के लिए थी। लेकिन उस सहायता को देते हुए अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत पर अनेक प्रकार की शोषणकारी शर्तें भी लाद दीं। इन शर्तों में भारत सरकार के खर्चों में कटौती, भारत के बाजारों को विदेशी व्यापार के लिए खोलने जैसी अहितकारी शर्तों के चलते तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने इस सहायता की अंतिम किश्त 1.2 अरब डॉलर नहीं लेने का निर्णय लिया। आई.एम.एफ. एक ऐसी संस्था है, जिसमें विकसित देशों का वर्चस्व है। इस कारण आई.एम.एफ. की तमाम नीतियां और कर्ज देने संबंधी शर्तें विकासशील देशों के लिए अधिकतर अहितकारी होती हैं। इसलिए आई.एम.एफ. के साथ अंशदान बढ़ाकर अपने रिश्ते बढ़ाना देश के लिए फायदे का सौदा नहीं है।
संकट में है भारतीय अर्थव्यवस्था
गौरतलब है कि पिछले लगभग एक वर्ष से भारतीय अर्थव्यवस्था भी एक भारी संकट से गुजर रही है। जीडीपी की संवृद्धि दर घटकर पिछले वर्ष मात्र 6.5 प्रतिशत ही रह गई। हमारा रुपया पिछले 4 महीनों में लगभग 20 प्रतिशत से भी ज्यादा कमजोर हुआ। हमारा व्यापार घाटा पिछले वर्ष 185 अरब डॉलर तक पहुंच गया, जो जीडीपी का 11 प्रतिशत है। इससे पिछले वर्ष (2010-11) में व्यापार घाटा 130 अरब डॉलर ही था। केन्द्र और राज्य सरकारों का कर्ज बढ़ता हुआ जी.डी.पी. के 75 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। हमारा राजकोषीय घाटा जीडीपी के लगभग 6 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। मुद्रास्फीति 2 अंकों तक पहुंच रही है और आम आदमी का जीना मुहाल हो गया है। ये आंकड़े अर्थव्यवस्था की बिगड़ती सेहत को बयान करते हैं। ये महज आंकड़े नहीं हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था में पिछले कुछ समय से जो बदहाली की स्थिति उत्पन्न हुई है उसके परिणाम को भी दर्शाते हैं।
विदेशी मुद्रा संकट और गिरता रुपया
पिछले कुछ समय से भारतीय रुपया विदेशी मुद्राओं की तुलना में लगातार कमजोर होता जा रहा है। फरवरी 2012 यानी मात्र 3-4 माह पहले रुपये की डॉलर में विनिमय दर 48.7 रुपये प्रति डॉलर थी, जो हाल ही में 58 रुपये प्रति डॉलर तक पहुंच गयी। बढ़ते व्यापार घाटे के चलते देश में डॉलर की मांग बहुत ज्यादा बढ़ गई है। 185 अरब डॉलर का व्यापार घाटा पाटने का कोई रास्ता नहीं है। बढ़ते व्यापार घाटे के लिए जिम्मेदार है बढ़ता सोने-चांदी का आयात, बढ़ती अन्तरराष्ट्रीय तेल कीमतें और चीन से लगातार बढ़ता आयात। इसके अलावा रुपये की कमजोरी के लिए विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा बड़े पैमाने पर विदेशी मुद्रा का अंतरण भी काफी हद तक जिम्मेदार माना जा रहा है।
कहा जा रहा है कि आज भारत पुन: 1991 की स्थिति में आ रहा है। यह वह भयावह स्थिति थी जब भारत का सोना विदेशों के पास गिरवी रखा गया था। ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि देश के पास एक सप्ताह के आयातों के लिए भी विदेशी मुद्रा नहीं बची थी। बढ़ते व्यापार घाटे के चलते आज देश के पास कुल वार्षिक व्यापार घाटे का मात्र 1.3 गुणा ही विदेशी मुद्रा भंडार बचा है। गौरतलब है कि 2007 में विदेशी मुद्रा भंडार व्यापार घाटे के 3 गुणा तक पहुंच चुका था। पिछले वर्ष (2011-12) अनिवासी भारतीयों द्वारा भेजी गई विदेशी मुद्रा और सॉफ्टवेयर निर्यातों से हुई प्राप्तियों के बाद भी हमारा भुगतान शेष 100 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है। अब जून 10, 2012 में एजेंसी ने चेतावनी दी है कि यदि हालात नहीं सुधरे तो उसे भारत की 'रेटिंग' को और घटाते हुए सट्टा श्रेणी में रखना पड़ेगा।
प्रधानमंत्री कई मौकों पर यह कह चुके हैं कि 'यूरो जोन' के संकट के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ रहा है। जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन में भी उन्होंने यह बात दोहराई है। वास्तव में भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट सरकार के आर्थिक कुप्रबंधन का नतीजा है।
औचित्यपूर्ण नहीं सरकार का निर्णय
जब देश स्वयं ही भयंकर भुगतान संकट से गुजर रहा है, देश की मुद्रा कमजोर हो रही है और अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियां भारत की 'रेटिंग' गिरा कर दुनिया को संदेश दे रही हैं कि भारत में निवेश करना जोखिमपूर्ण है, क्योंकि देश के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं कि वह अपनी देनदारियां चुका सके, ऐसे में भारत सरकार का यह निर्णय कि यूरोपीय समुदाय के देशों को संकट से उबारने के लिए वह 10 अरब डॉलर की सहायता देगी, औचित्यपूर्ण नहीं लगता। एक तरफ सरकार आईएमएफ में अंशदान बढ़ा रही है तो दूसरी ओर ऊंची ब्याज दरों पर अन्तरराष्ट्रीय बाजारों से ऋण लिये जा रहे हैं। इसके कारण देश पर ब्याज की देनदारी बढ़ती जा रही है। सरकार द्वारा लिये गये इस निर्णय से देश पर विदेशी कर्ज और बढ़ेगा।
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