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बादल

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Jun 30, 2012, 12:00 am IST
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गप्पू जी-आशीष शुक्ला

दिंनाक: 30 Jun 2012 15:09:16

बाल मन

गपोड़ी गांव में गजानन बाबू को सभी लोग जानते थे लेकिन गजानन नाम से नहीं बल्कि गप्पू जी के नाम से। गप्पू जी गांव में तो चर्चित थे ही लेकिन उससे भी ज्यादा चर्चित उनकी गप्पें थीं। कब कौन सी गप्प हांकने लग जाएं कोई भरोसा नही, किन्तु उनमें एक खास बात यह थी कि वह जितने गपोड़ी थे उतने बुद्धिमान भी थे। अनेक बार उन्होंने अपनी अक्ल से गांव का मान बढ़ाया था। इस तरह उनकी ख्याति बढ़ती ही गई। दूर-दूर तक फैल गयी।

गपोड़ी गांव के पास ही एक गांव था डमरूपुर। वहां पर आचार्य डमरू प्रसाद जी रहते थे। लोग उन्हें आचार्य जी कहते थे। जब उन्होंने गपोड़ी गांव के गप्पू जी की अक्लमंदी के विषय में सुना तो उन्हें बहुत ही ईर्ष्या हुई, क्योंकि वह स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा विद्वान और बुद्धिमान समझते थे। बस फिर तो उन्होंने गप्पू जी को नीचा दिखाने की ठान ली और जा पहुंचे गप्पू जी के घर। गप्पू जी ने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया। इसके बाद आचार्य जी ने ज्ञान चर्चा शुरू कर दी। ज्ञान चर्चा करते हुए वे दोनों टहलने निकल गए। टहलते-टहलते वे कब गांव से बाहर आ गए पता नहीं चला। सुनसान रास्ते में दोनों बढ़े चले जा रहे थे तभी अचानक आचार्य जी चलते-चलते रुक गए तो गप्पू जी ने पूछा- 'क्या हुआ, आप चलते-चलते रुक क्यों गए?'

पर आचार्य जी कुछ नहीं बोले, बल्कि आंखें फाड़कर गप्पू जी को देखने लगे। गप्पू जी सहम गए फिर भी कुछ साहस करके बोले- 'आचार्य जी, क्या हुआ?' थोड़ी देरी चुप रहने के बाद आचार्य जी कड़क आवाज में बोले- 'कुछ नही।' 'तो आप ऐसे आंखें फाड़कर क्यों देख रहे हैं?'

'क्योंकि मैं एक भूत हूं और तुम्हारी गर्दन मरोड़ दूंगा।'

'क्या भ… भ… भूत!'

गप्पू जी का चेहरा सफेद पड़ गया, क्योंकि वह भूत से बहुत डरते थे। फिर तो उन्होंने आव देखा न ताव और भागने लगे। अपनी चाल सफल होते देख आचार्य जी भी उनके पीछे भागने लगे। गप्पू जी दौड़ते-दौड़ते एक दलदल में जा गिरे। उनको दलदल में गिरते देख आचार्य जी बड़े ही प्रसन्न हुए और वापस गपोड़ी गांव आ गए। वहां उन्होंने सबको बताया कि गप्पू जी दलदल में गिर गए हैं। यह सुनकर सभी गांव वाले उनकी मदद करने दौड़ पड़े।

वहां पहुंचकर गांव वालों ने गप्पू जी को बड़ी मुश्किल से दलदल से बाहर निकाला। कीचड़ से सने हुए गप्पू जी जब बाहर निकले तो गांव वालों के सामने वह शर्म से गड़े जा रहे थे। आचार्य जी की सारी चाल गप्पू जी समझ चुके थे। अब तो उनके भीतर क्रोध की ज्वाला भड़क रही थी लेकिन पहले तो उन्हें अपनी लाज बचानी थी। गप्पू जी की यह दशा देखकर सारा गपोड़ी गांव हैरान और परेशान था। आखिर गांव की इज्जत का सवाल था। लेकिन आचार्य जी को इतने पर भी चैन नहीं मिला था। वह चुटकी लेते हुए बड़े भोलेपन से बोले- 'गप्पू जी, आप दलदल में कैसे गिर पड़े?'

'अरे मैं दलदल में गिरा ही कब था? मैं तो दलदल में कूदा था, वह भी जानबूझकर कर।'

यह कहते हुए गप्पू जी का बुझा हुआ चेहरा अचानक ही खिल उठा लेकिन आचार्य जी सहित सभी लोग आश्चर्य में पड़ गए। तब आचार्य जी ही आगे बढ़कर बोले 'क्यों भाई, क्यों कूदे थे आप दलदल में? भला कोई दलदल में भी कूदता है क्या?'

'हां, हां क्यों नहीं कूदता है दलदल में? अरे जब कोई आसमान से कूदेगा तो दलदल में ही तो कूदेगा। सख्त जमीन पर कूदने से चोट लग जाएगी।' बात किसी की समझ में नहीं आ रही थी लेकिन आचार्य जी थे कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। कहने लगे- 'तो क्या आप आसमान से कूदे हैं?' गप्पू जी के हां कहने पर आचार्य जी ने एक और प्रश्न दागा- 'क्या करने गए थे आसमान में?'

'सूरज की सैर।'

गप्पू जी का उत्तर सुनकर आचार्य जी चुप हो गए। शायद उन्हें कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था। बात बनते देख गप्पू जी ने ऊंची आवाज में कहना शुरू किया- 'मैं सूरज की सैर करने आसमान में गया था और वापस लौटने को जब सूरज से कूदा तो जमीन में न गिरकर दलदल में गिरा ताकि चोट न लगे।'

उलझन में उलझ चुके आचार्य जी ज्ञान देते हुए बोले- 'सूरज तो आग का गोला है। उसमें आग ही आग भरी पड़ी है। क्या आप जले नहीं?'

यह सुनकर गप्पू जी हंसने लगे और बोले- 'यही तो मैंने खोज की है दोस्तो, सूरज आग का गोला है, यह तो बस कोरी कल्पना है। वास्तव में सूरज एक बहुत बड़ी टॉर्च है जो दिन में जल जाती है और रात में बुझ जाती है। अब आप लोग ही बताएं क्या टार्च से कोई जलता है?'

अब तो सारे गांव वाले गप्पू जी की खोज की प्रशंसा करने लगे और आचार्य जी का चेहरा उतर गया क्योंकि उनकी दाल नहीं गल रही थी। तभी उनके मन में एक प्रश्न कौंधा और वह पूछ बैठे- 'गप्पू जी, आपने यह तो बताया ही नहीं कि आप सूरज तक पहुंचे कैसे?'

प्रश्न कठिन था और साथ ही गांव वाले भी इसका उत्तर जानने को उत्सुक थे। गप्पू जी ने हिम्मत नहीं हारी और जोर से चिल्लाए- 'जहाज ओ जहाज…! देखते ही देखते वहां जहाज आ गया। जिसे देखकर आचार्य जी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई क्योंकि वह गप्पू जी का खूंखार पालतू कुत्ता था। जिसका नाम ही जहाज था। जहाज को देखकर गप्पू जी बोले- 'जहाज जा आचार्य जी को सूरज की सैर करा ला।'

गप्पू जी का इशारा मिलते ही जहाज आचार्य जी की ओर बढ़ने लगा। जिसे देख बेचारे आचार्य जी सिर पर पैर रखकर भागने लगे। फिर तो सबने दूर तक जहाज को पीछे-पीछे और आचार्य जी को आगे-आगे गिरते-पड़ते भागते हुए देखा। सारे गांव वाले हंस-हंस कर लोटपोट हो रहे थे और कीचड़ में सने गप्पू जी जा रहे थे नदी में नहाने।

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मन करता है उड़ूं हवा में,

बादल मैं बन जाऊं।

पेड़ों और पहाड़ों पर चढ़,

नभ को छूकर आऊं।।

पास पहुंच कर छूकर देखूं,

इन्द्रधनुष रंगीन।

झांकूं नीचे आसमान से

देखूं प्यारे 'सीन'।।

-आचार्य मायाराम पतंग

 

श्रीराम भक्त हनुमान जी

की दिव्य दृष्टि

गवान श्रीराम हनुमान जी को अपना सर्वश्रेष्ठ व अत्यन्त प्रिय भक्त मानते थे। हनुमान जी महाराज श्रीराम जी के किसी भी कार्य को करने के लिए विनीत भाव के साथ सदैव तत्पर रहा करते थे। वे मद में चूर, अधर्मी राक्षसराज रावण द्वारा अपहृत सीता जी का पता लगाने के लिए प्राण हथेली पर रखकर लंका जा पहुंचे। उन्होंने अहंकारी रावण की सोने की लंका को जलाकर उसे चुनौती दी तथा वाणी-कौशल द्वारा रावण के हृदय को विदीर्ण कर डाला। उन्हीं के सहयोग से श्रीराम राक्षसराज रावण की सेना व उसके समस्त वंश का संहार करने में सफल हो सके।

श्रीराम जी हनुमान जी के इन कार्यों व उनकी विनम्रता, बुद्धि चातुर्य के कारण उन्हें अपना सर्वाधिक प्रिय सेवक ही नहीं, अपितु अपना अभिन्न अंग मानकर उन पर कृपा-दृष्टि करने लगे। रावण के भाई धर्ममूर्ति विभीषण जी का लंकाधिपति के रूप में राज्याभिषेक किया गया। विभीषण ने राज्याभिषेक के बाद श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी आदि को विदाई देते समय रावण द्वारा कुबेर से प्राप्त की गई दुर्लभ रत्नों की दिव्य माला भगवान श्रीराम के गले में पहनाई। असंख्य अमूल्य रत्न व मणियां भी उपहार में भेंट की गईं।

श्रीराम युद्ध में सहयोग देने वाले वानरों तथा अन्य वनवासियों को विदाई देने को तत्पर हुए। उन्होंने विभीषण से उपहार में मिले समस्त रत्न तथा मणियां देखते-देखते वितरित कर दिए। उन्होंने कुबेर की अमूल्य माला सीता जी के गले में डाल दी। सीताजी ने वह माला अपने गले से उतारकर सेवामूर्ति हनुमान जी को भेंट कर दी।

हनुमान जी ने उस माला का एक-एक दाना देखा-परखा तथा उसके दानों को चूर-चूर करके फेंक दिया। विभीषण जी को यह देखकर बहुत दु:ख हुआ। उन्होंने हनुमान जी से कहा- 'आपने इस बहुमूल्य माला की कीमत नहीं समझी। उसे चूर-चूर करके फेंक दिया।'

हनुमान बोले- इस माला को रावण कुबेर को आतंकित करके छीनकर लाया था। इसीलिए शायद मुझे माला के मनकों में मेरे आराध्य श्रीराम नहीं दिखाई दिए। इसी कारण मैंने उसे फेंक दिया है। जिस वस्तु में भगवान श्रीराम नहीं वह भला मेरे किस काम की। श्रीराम के बिना किसी भी जीव व किसी वस्तु का कोई मूल्य नहीं है। धर्मेन्द्र गोयल

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