महंगाई के विरुद्ध जन रोष
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महंगाई के विरुद्ध जन रोष

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Jun 2, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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महंगाई के विरुद्ध जन रोष

दिंनाक: 02 Jun 2012 15:36:03

सम्पादकीय

प्रमादं वै मृत्युमहं ब्रवीमि

तथाप्रमादममृतत्वं ब्रवीमि।।

मेरा कहना तो यह है कि प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमृत है।

–वेदव्यास (महाभारत, उद्योग पर्व, 42/4)

महंगाई को लेकर पूरे देश में आक्रोश है। 31 मई को भारत बंद से यह साफ हो गया है। इसलिए इस जनविरोधी सरकार को अब सत्ता में रहने का कोई अधिकार नहीं है। 100 दिन में महंगाई कम करने का वादा करके दुबारा सत्तारूढ़ हुई इस सरकार ने न केवल इस मामले में जनता के साथ विश्वासघात किया, बल्कि मुनाफाखोरों व भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देकर राजधर्म को भी नकार दिया। विख्यात अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के नेतृत्व में चल रही यह सरकार भूल जाती है कि भारत में प्राचीन काल से प्रजावत्सल शासक ही लोकमान्य हुआ है, जबकि यह सरकार तो जनता का गला घोटने पर आमादा है। जिंदगी की सबसे बड़ी जरूरत होती है भरपेट पौष्टिक भोजन, लेकिन इस सरकार के 8 वर्षों के शासन में खाद्य पदार्थों की कीमतें लगभग दुगुनी तक बढ़ चुकी हैं, यहां तक कि सब्जियों व खाद्य तेलों की कीमतें भी। देश की औसतन 80 प्रतिशत जनता 100 रु. से भी कम पर दैनिक आवश्यकताएं पूरी करने में संघर्षरत है, जबकि इसमें से 40 प्रतिशत से ज्यादा लोग तो गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रहे हैं। नौ प्रतिशत के आसपास विकास दर वृद्धि के सब्जबाग दिखाने वाली इस सरकार के कार्यकाल में आज विकास दर नौ साल के सबसे निचले स्तर पर है। देश की मुद्रा रुपया निरंतर गर्त्त में जा रहा है जिसका हवाला देकर पेट्रोलियम कंपनियों ने पिछले सप्ताह पेट्रोल में साढ़े सात रुपये की मर्मांतक पीड़ा देने वाली बढ़ोतरी कर दी। जबकि आंकड़े गवाह हैं कि पेट्रोलियम कंपनियों को कोई घाटा नहीं है। वास्तव में पेट्रोल की मूल कीमत से ज्यादा तो टैक्स वसूला जाता है, फिर घाटा किस बात का? यह गोरखधंधा केवल जनता को लूटने के लिए है, जिसे सरकार ने कीमतों से अपना नियंत्रण खत्म कर और छूट दे दी है।

वस्तुत: इतिहास रहा है कि जब-जब कांग्रेसी सरकारें केन्द्र में सत्तारूढ़ हुईं, महंगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती गई, क्योंकि जखीरेबाजों, मुनाफाखोरों और भ्रष्टाचारियों को अपने सत्ता-स्वार्थों के चलते संरक्षण देकर कांग्रेस उन्हें जनता को लूटने की खुली छूट दे देती है। वर्तमान कांग्रेसराज की तुलना उससे पूर्व के राजगराज से करें तो यह सहज ही समझ में आ जाता है। जिस शासन में अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होता जाए वहां न केवल नीतिगत गड़बड़ियां होती हैं, बल्कि यह शासन की संवेदनहीनता की भी निशानी है। देश के आम आदमी के मुंह से निवाला छीनने वाली यह सरकार तो अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष व विश्व बैंक के इशारे पर अब देशवासियों के गले के नीचे पानी उतरने की भी कीमत वसूलने की तैयारी कर रही है। 'राष्ट्रीय जलनीति 2012' के प्रावधान प्रकृति की अनमोल विरासत पेयजल को भी निजीकरण के अधीन लाकर लोगों को पीने के पानी से वंचित कर देंगे। बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश की गलत आर्थिक नीतियों का सहारा लेकर भारत में पैर पसार चुकी हैं और उदारीकरण के नाम पर उन्हें मिली छूट देश के आम आदमी के गले की फांस बन गई है। आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बढ़ाने की बजाय आयात नीति ज्यादा उदार होती गई और 2011-12 में आयात 488 अरब डालर के रिकार्ड स्तर तक पहुंच गया, जबकि निर्यात मात्र 303 अरब डालर का ही हुआ। ऐसी स्थिति में देश का व्यापार घाटा करीब 150 अरब डालर के खतरनाक बिन्दु तक पहुंच गया है, जोकि देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक है। यह घाटा हमारे सकल घरेलू उत्पाद का 11 प्रतिशत बताया जाता है जोकि देश को विदेशी पूंजी पर आश्रित करने वाला है। इससे न केवल देश में विदेशी पूंजी का शिकंजा कस रहा है बल्कि बेरोजगारी की दर भी बढ़ रही है। ऐसी राष्ट्रघातक और अमानवीय स्थितियां निर्माण करने वाली सरकार जितनी जल्दी विदा हो, वही देशहित में है।

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