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कश्मीर प्रदेश की अंतिम हिन्दू सम्राज्ञी कोटारानी के बलिदान के बाद सत्ता पर काबिज हुए पहले मुस्लिम सुल्तान शाहमीर ने इस आध्यात्मिक धरती पर कट्टर इस्लाम का झंडा गाड़ने के लिए हिन्दुओं के बलात् मतांतरण का अमानवीय अध्याय शुरू कर दिया। इसी कालखंड में हिन्दू संहारक मुस्लिम सुल्तान सिकंदर बुतशिकन (मूर्ति भंजक) उसके बेटे अत्याचारी अलीशाह, राष्ट्रद्रोही सैफुद्दीन (मतांतरित हिन्दू नेता सुहा भट्ट) और मजहबी लिबास में क्रूर सैयदों के खूनी मतान्तरण अभियान के परिणामस्वरूप कश्मीर प्रदेश लगभग हिन्दू-विहीन हो गया। मन्दिर, मठ, विश्वविद्यालय और ज्ञान के भंडार पुस्तकालय सब कुछ खंडहरों में बदल गए। परंतु ऐसे गहन अंधकार में भी प्रकाश का एक देदीप्यमान दीपक जल उठा।
उदारवादी सुल्तान जैनुल
सन् 1420 ई.में सिकंदर बुतशिकन का दूसरा पुत्र सुल्तान जैन-उल-आब्दीन कश्मीर के तख्त पर बैठा। उसने सत्ता पर आसीन होते ही अपने पिता के क्रूर कारनामों और पापों का मानो प्रायश्चित करने का निश्चय किया। इतिहासवेत्ता पंडित श्रीवर ने राजतरंगिणी में क्रूरता की हद पार करने वाले सुल्तानों के बाद इस उदार एवं सहनशील सुल्तान के शासनकाल का वर्णन बड़े ही मार्मिक ढंग से किया है, 'जैसे रेगिस्तान की गर्मी के विदा हो जाने के बाद किसी ने चंदन का शीतल लेप लगा दिया हो।'
जैन-उल-आब्दीन, जिसका छोटा नाम जैनुल प्रसिद्ध हुआ, ने कश्मीर को फिर से इसके प्राचीन वैभव की ओर मोड़ने का भरसक प्रयास किया। जो कश्मीरी पंडित घाटी छोड़कर भारत के अन्य प्रदेशों में बिखर गए थे, उन्हें वापस बुलाया गया। प्रजा के कल्याण के लिए विकास के अनेक प्रकल्प प्रारंभ किए गए। सभी हिन्दू ग्रंथों का फारसी में अनुवाद करवाया गया। सुल्तान के हृदय में समस्त मानवता के प्रति यह सहानुभूति जाग्रत करने का कार्य किया था एक वैद्य पंडित श्रीभट्ट ने।
युगद्रष्टा पंडित श्रीभट्ट
महान वैद्य पंडित श्रीभट्ट के परिचय के बिना कश्मीर के इस अल्प समय के वैभवकाल का वर्णन अधूरा रहेगा। जैनुल को कश्मीर के सिंहासन पर बैठे अभी दो ही वर्ष हुए थे कि उसके सीने पर एक खतरनाक किस्म का फोड़ा (कैंसर) निकल आया। अनेक हकीमों ने इलाज किया। मध्य एशिया के कई नामी मुस्लिम हकीम भी बुलाए गए। परंतु फोड़े का आकार बढ़ता ही गया। सुल्तान जैनुल ने सुना था कि कश्मीर में कई हिन्दू वैद्य हैं जो कैंसर के फोड़े को काटकर (आपरेशन) ठीक कर देने की कला के विशेषज्ञ माने जाते हैं।
सुल्तान के आदेश से ऐसे वैद्यों की तलाश शुरू हुई। परंतु क्रूर सुल्तानों द्वारा चलाए गए बलात् मतांतरण के जुल्मों से कश्मीर तो इस तरह की हिन्दू प्रतिभाओं से शून्य हो चुका था। जोनराज कृत राजतरंगिणी के अनुसार 'सुल्तान के कर्मचारियों ने अंतत: विष का प्रभाव दूर करने वाले वैद्य श्रीभट्ट को ढूंढ लिया। श्रीभट्ट घाव को चीरने एवं भरने का काम जानता था। परंतु भय के कारण श्रीभट्ट ने आने में जानबूझकर देर कर दी। जब वह पहुंचा तो राजा ने उसका उत्साह बढ़ाया। श्रीभट्ट ने राजा के फोड़े को पूर्णतया ठीक कर दिया।
राष्ट्रहित की चिंता सर्वोपरि
सुल्तान का इलाज करते हुए पंडित श्रीभट्ट भयभीत था कि अगर सुल्तान स्वस्थ न हुआ तो उसके क्रोध के कारण कहीं मृत्युदंड ही न भुगतना पड़े। राजतरंगिणी में श्रीवर ने लिखा है 'यद्यपि वैद्य श्रीभट्ट फोड़े का उपचार करने में बड़े ही पारंगत थे परंतु उन्होंने सुल्तान का इलाज संभलकर और झिझक के साथ शुरू किया। जिस प्रकार आग से जला हुआ व्यक्ति आग के समान चमकते हुए हीरे को भी बहुत समय के बाद छूने का साहस करता है' (राजतरंगिणी 813)। जब सुल्तान पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गया तो उसने पंडित श्रीभट्ट को बहुत बड़ा पुरस्कार देकर हीरे-जवाहरात से मालामाल करना चाहा।
श्रीभट्ट ने किसी भी प्रकार का पुरस्कार लेना पसंद नहीं किया। उसने अपने व्यक्तिगत सुख-सुविधा की चिंता नहीं की। इस बाह्मण ने अपने प्रिय कश्मीर के सुख और समृद्धि को अधिमान दिया। श्रीभट् का यह व्यवहार सुल्तान के लिए एक अनोखा अनुभव था। धन-वैभव को ठुकराकर राष्ट्र के हित की चिंता करने वाले पंडित श्रीभट्ट ने सुल्तान को उदारवादी मानवीय दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित कर दिया। हिन्दू संस्कृति की शरण में आ गया सुल्तान जैन-उल-आब्दीन। श्रीभट्ट के राष्ट्र समर्पित व्यवहार के कारण सुल्तान के जीवन का दृष्टिकोण ही बदल गया, मजहबी उन्माद समाप्त हो गया।
हिन्दू समाज की पुनर्प्रतिष्ठा
सुल्तान जैनुल के मन में जाग्रत इस उदारता का लाभ पंडित श्रीभट्ट ने कश्मीर और हिन्दू धर्म के लिए उठाया। सुल्तान के आग्रह पर श्रीभट्ट ने उसके सम्मुख सात प्रस्ताव कश्मीर की भलाई के लिए रखे।
l बिना किसी कारण मात्र धार्मिक विद्वेष के आधार पर हिन्दुओं का कत्लेआम तुरंत समाप्त किया जाए और बिना जांच-पड़ताल के किसी भी कसूरवार को सजा न दी जाए।
l पूर्व के सुल्तान सिकंदर के समय जिन हिन्दू मंदिरों को तोड़ा गया था उन्हें फिर से बनवाया जाए। इस्लाम में बलात् मतांतरित किए गए हिन्दुओं को पुन: अपने पूर्वजों के धर्म में लौटने की आज्ञा दी जाए। जो कश्मीरी हिन्दू भय की वजह से कश्मीर छोड़कर अन्य प्रदेशों में जाकर दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं उनकी सम्मानजनक एवं सुरक्षित घरवापसी की व्यवस्था की जाए।
l कश्मीर में संस्कृत पाठशालाओं को फिर से प्रारंभ करके हिन्दू छात्रों को उन्नत करने की सुविधाएं प्रदान की जाएं।
l हिन्दुओं पर लगे जजिया (मजहबी टैक्स) को समाप्त करके उन्हें समानता एवं न्याय के सारे अधिकार दिए जाएं।
l हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं की कद्र करते हुए एकतरफा गोवध पर तुरंत और पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगाया जाए।
l हिन्दुओं के यज्ञ इत्यादि धार्मिक रीति रिवाजों, यज्ञोपवीत धारण समारोहों और मंदिरों में पूजा पर लगे प्रतिबंध हटा लिए जाएं।
l कट्टरपंथी सुल्तानों, मुल्ला मौलवियों और जिहादियों द्वारा जलाए गए पुस्तकालयों, विद्यालयों और पवित्र स्थलों का जीर्णोद्धार किया जाए।
हिन्दुत्वनिष्ठ मुस्लिम सुल्तान
इतिहास साक्षी है कि इस राष्ट्रभक्त श्रीभट्ट के सभी प्रस्ताव सुल्तान जैनुल ने तुरंत स्वीकार करके उन पर अपनी देखरेख में कार्रवाई शुरू करवा दी। कश्मीर से पलायन कर चुके पंडितों के परिवार फिर अपने घरों में आकर बस गए। भागे हुए संस्कृत विद्वान लौट आए। सुल्तान की ओर से विद्वानों एवं छात्रों को धन की सुविधा दी गई और संस्कृत केन्द्र पुन: खुल गए। सिकंदर बुतशिकन के समय हिन्दुओं की लूटी गई सम्पत्ति उन्हें वापस लौटाई गई। संस्कृत फिर से कश्मीर की राजभाषा बना दी गई।
सुल्तान जैनुल की हिन्दू धर्म पर आस्था जमी। वह हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने लगा। सुल्तान ने कट्टरपंथी और जिहादी सैयदों द्वारा हिन्दुओं का उत्पीड़न और मतांतरण करने के लिए बनाए गए सभी संगठनों को गैरकानूनी घोषित करके समाप्त करवा दिया। मुस्लिम इतिहासकार मुहम्मद दीन फाक ने अपनी पुस्तक 'शबाबे कश्मीर' में श्रीभट्ट का वर्णन करते हुए लिखा है 'राजा को स्वस्थ करने के बाद पुरस्कार न लेने पर, राज्य स्तर पर पंडित श्रीभट्ट की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई। उसे राजवैद्य और सुल्तान के दरबार में अफसर उल अताब (स्वास्थ्य विभागाध्यक्ष) नियुक्त कर दिया गया। श्रीभट्ट ने अपना यह रुतबा कश्मीरियों के पुनर्वास के लिए इस्तेमाल किया। वह अमन का अलंबरदार था।'
अल्प समय का वैभवकाल
प्रसिद्ध इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी पुस्तक 'आईन-ए-अकबरी' में श्रीभट्ट के अनूठे व्यक्तित्व का परिचय इस तरह दिया है 'कश्मीर के स्वर्णिम इतिहास में विशेषतया मध्यकालीन इतिहास के संदर्भ में जिस गौरव के साथ सुल्तान जैन-उल-आब्द्दीन का यश चिरस्मरणीय बना, अगर श्रीभट्ट का समागम उसे नहीं मिलता तो शायद वह भी इतिहास की उसी धारा में बह जाता जिस कलंकित धारा में उसके बाप दादा बह गए थे।' जोनराज ने राजतरंगिणी में लिखा है 'सुल्तान जैनुल की पंथनिरपेक्ष तपस्या, श्रीभट्ट की सफल नीति और प्रजा जनों के भाग्य के फलस्वरूप इस युग के प्रशासन में कहीं कोई विघ्न नहीं पड़ा।'
श्रीभट्ट के अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप जब हजारों विस्थापित हिन्दू परिवार कश्मीर में आकर बसे तो उनके निवास, आजीविका आदि का प्रश्न मुंह बाए खड़ा हो गया। अत: श्रीभट्ट के मार्गदर्शन में, शासकीय अनुमति और योजना के अंतर्गत प्रशासन में भिन्न-भिन्न स्थानों पर इन्हें नियुक्त कर दिया गया। इन्हें बसाना, इनकी पारिवारिक व्यवस्थाओं/जरूरतों को समयानुसार तत्कालीन शासन व्यवस्था के साथ जोड़ना और इनकी जातिगत पहचान हिन्दुत्वनिष्ठ कश्मीरियत को सुरक्षित रखने जैसे अनेक कठिनतम कार्यों को पंडित श्रीभट्ट ने सुल्तान की मदद से सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लिया।
वर्गविहीन समाज की रचना
इस कालखंड में कश्मीर में अनेक जातियां, उपजातियां, गोत्र और वर्ण इत्यादि थे। मुसलमान शासकों के अत्याचारों से कश्मीर की यह समाज रचना निरर्थक और अव्यावहारिक हो गई थी। बार-बार कश्मीर से पलायन करके बाहर जाकर बिखर जाना और फिर अत्यंत दयनीय परिस्थितियों में वापस लौटने से हुई इस विनष्ट वर्ण व्यवस्था को नया रूप देने की आवश्यकता थी। ऐसी स्थिति में पंडित श्रीभट्ट ने सबको एक ही वर्ण (पंडित) में परिणत कर दिया।
इस तरह एक वैज्ञानिक समाजशास्त्री की भूमिका निभाते हुए श्रीभट्ट ने पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही वर्णविहीन समाज व्यवस्था की स्थापना कर दी थी। आश्चर्य तो यह है कि जिस क्रांतिकारी सुधार के स्वप्न को शतकों के बाद भक्ति आंदोलन ब्रह्मसमाज, आर्य समाज तथा अन्य कई सामाजिक संस्थाओं ने साकार करने का बीड़ा उठाया, उसको युगद्रष्टा पंडित श्रीभट्ट ने सन् 1420-22 ई. में ही त्रिकालद्रष्टा की तरह भांपकर कश्मीर की धरती पर साकार कर दिया था। आज कश्मीर के सभी हिन्दुओं को पंडित कहा जाता है।
उदारवादिता की अपार शक्ति
मध्यकालीन कश्मीर में हिन्दू संस्कृति के इस निर्भीक प्रहरी पंडित श्रीभट्ट का जीवन भारतीय इतिहास का एक उज्ज्वल पृष्ठ तो है ही, यह वर्तमान एवं भविष्य में कट्टरवादी मुस्लिम मानसिकता को राष्ट्र पथ पर लाने हेतु कर्म एवं व्यवहार के लिए दिशानिर्देश भी है। परंतु यह अत्यंत खेद की बात है कि आधुनिक इतिहासकारों की दृष्टि इस प्रकार के महान व्यक्तित्व पर नहीं टिकती।
श्रीभट्ट ने घोर अत्याचारी, निर्दयी और हिन्दुत्व/भारतीयता की जड़ें काटने वाली कट्टरवादी विचारधारा को कश्मीर में तलवार के जोर पर थोपने वाले सुल्तान के परिवार में उत्पन्न मुस्लिम शासक को भी राष्ट्रवादी और हिन्दुत्वनिष्ठ बना दिया। अपनी प्रतिभा और कार्यक्षमता के बल पर पंडित श्रीभट्ट युगधारा को भी बदल डालने का सामर्थ्य रखते थे। जोनराज ने राजतरंगिणी में लिखा है 'सुल्तान जैन- उल-आब्दीन श्री भट्ट की प्रत्येक बात, सुझाव और योजना को उदारवादी प्रथा के रूप में सुनते, देखते और तुरंत कार्यान्वित करने के लिए तत्पर रहते।' अत: पंडित श्रीभट्ट भारतीय इतिहास के एक ऐसे युगपुरुष थे, जिन्होंने अपने विराट व्यक्तित्व के असंख्य गुणों के कारण पूर्णतया हतोत्साहित हो चुके विस्थापित कश्मीरी हिन्दू समाज को फिर से कश्मीर की भूमि से जोड़ा।
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