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बुद्ध जयंती (6 मई) पर विशेष
करुणावतार भगवान बुद्ध-1
आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व भारत की इसी पवित्र भूमि पर एक ऐसे महामानव का अवतरण हुआ था जिसने दूसरों के दु:ख को दूर करने को ही अपने जीवन का उद्देश्य माना। दु:खी प्राणियों के दु:ख को देखकर उसका अन्तर्मन अतिशय क्लान्त हो उठा। विश्वभर को प्रेम और करुणा का संदेश देने वाला यह परिव्राजक मानवता के दु:ख को दूर करने के लिए राजमहल को छोड़ भिक्षु बन गया। बड़े-बड़े राजा-महाराजा उसके चरणों की रज पाने को लालायित रहते थे किंतु उसने दरिद्रता को ही चुना। अतीव सुंदर पत्नी, पुत्र और राजपाट का वैभव उसको महलों में रोक न सका। वह निकल पड़ा दु:ख से पीड़ित मानवता के कष्ट को दूर करने के लिए। देखते ही देखते हजारों और लाखों अनुयायी उसके मार्ग पर बढ़ते चले गये। उसकी विचारधारा ने महाप्रवाह का रूप धरा और उसके शिष्यों ने मानवीय करुणा के उस पवित्र संदेश को गिरि-पर्वतों, नदी-कंदराओं और समुद्रों के भी पार दूरस्थ स्थानों पर पहुंचा दिया। हिंसा, घृणा और दु:ख में डूबी मानवता के लिए यह अमृत वर्षा जैसा था। निरंतर भ्रमण करता हुआ यह श्रमण भिक्षु अपनी मृत्यु सन्निकट जान कुशीनगर के शालवन में सभी प्रकार के सुख, वैभव और यश प्रतिष्ठा से दूर एकांत स्थान पर वृक्ष के नीचे चिरनिद्रा में अकेला ही सो गया। उसी को हम भगवान बुद्ध कहते हैं। भगवान बुद्ध विश्व के एक ऐसे विचारक थे, जिनका विचार और प्रभाव किसी अद्वितीय कहा जा सकता। विश्व की विचारधाराएं उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहीं और आज भी उनका स्थान महत्वपूर्ण है।
हिन्दुत्व का स्वभाव तथा इसकी दीर्घकालीन यात्रा बड़ी ही विचित्र है। परिस्थितियों की आवश्यकतानुसार बदलने को यह तत्पर रहता है। आश्चर्य की बात यह है कि परिस्थितियों के अनुरूप जितना यह परिवर्तित होता है उतना ही अपने मौलिक सिद्धांतों के अधिक निकट आ पहुंचता है। ईसा के पूर्व छठी शताब्दी आते-आते भारत में सामाजिक भेदभावों तथा धार्मिक कर्मकांडों का अतिरेक होने लगा था। समाज के कुछ वर्गों को प्रतिष्ठा और अन्य वर्गों की उपेक्षा ने आपसी दूरियों तथा वैमनस्य को बढ़ा दिया था। निरर्थक रुढ़ियों तथा धार्मिक पूजा-पाठ के आडम्बरों ने सामान्यजन के अंदर असंतोष का निर्माण कर दिया था। जटिल बन चुकी पूजा-पद्धतियों के कारण भी समाज में एक बेचैनी और छटपटाहट बढ़ती ही जा रही थी। सामान्यजन किसी ऐसी धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था की बाट जोह रहा था जहां किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो तथा जो सर्वजन के लिए सरल और सुलभ हो। भगवान बुद्ध इन परिस्थितियों की स्वाभाविक उत्पत्ति थे। भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को लेकर विश्व के प्रथम संघबद्ध सम्प्रदाय की स्थापना की, जो अपने से पूर्व सम्प्रदायों की तुलना में अधिक सुव्यवस्थित तथा कर्मकांडों की जटिलताओं से मुक्त था। अपनी साधना पद्धति में भगवान बुद्ध ने धन, पद, जाति, कुल, गोत्र आदि प्रचलित मान्यताओं को कोई स्थान नहीं दिया। देखते ही देखते बौद्ध मत भारत की सीमाओं से पार जाकर चीन, तिब्बत, मंगोलिया, जापान, कोरिया, वियतनाम, लाओस, म्यांमार, श्रीलंका, ईरान, अफगानिस्तान तथा पूर्वी यूरोप के अनेक देशों में अपने पूर्ण वैभव के साथ प्रचलित हो गया। करोड़ों लोगों ने श्रद्धा के साथ उस मत को स्वीकार किया। आज के ईरान, अफगानिस्तान, बंगलादेश आदि देशों के मुसलमानों के पूर्वज बौद्ध मत के प्रकांड विद्वान तथा प्रचारक थे। विश्व के इतिहास में यह एक अभूतपूर्व धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति थी जिसके प्रणेता भगवान बुद्ध थे।
जन्म और बाल्यावस्था
भगवान बुद्ध का जन्म ईसा से 563 वर्ष पूर्व वैशाख पूर्णिमा (इस वर्ष 6 मई) के दिन लुम्बिनी (वर्तमान नेपाल क्षेत्र) में हुआ था। कपिलवस्तु के क्षत्रिय शाक्यवंशीय राजा शुद्धोधन का यह पुत्र बचपन से ही परिवार के लिए सर्वार्थ सिद्धि वाला होने के कारण सिद्धार्थ नाम से प्रसिद्ध हो गया। जन्म के एक सप्ताह बाद ही मां मायादेवी का स्वर्गवास होने के कारण मौसी महाप्रजापति गौतमी के दूध से ही इनका पालन हुआ, फलस्वरूप वे गौतम कहलाने लगे। जन्मकुंडली बनाने वाले ज्योतिषी असित ने बत्तीस लक्षणों वाले बालक को देखते ही उसके सार्वभौम बनने की घोषणा कर दी। प्रसन्न हो राजा शुद्धोधन का पितृहृदय बोला-'सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट'। पर ज्योतिषी ने राजा को कहा-'सार्वभौम परिव्राजक!'
एक दिन राज प्रासाद के बगीचे में सहसा चीत्कार करता एक हंस सिद्धार्थ के सामने आ गिरा। सिद्धार्थ ने दौड़कर उसे उठा लिया। अरे किसने इस निरीह पक्षी को बाण मार दिया? रक्त बहता देख संवेदना से सिद्धार्थ का हृदय भी रो पड़ा। सिद्धार्थ की आंखों से टप-टप अश्रु बह चले। घायल पक्षी को लेकर सिद्धार्थ सरोवर पर आया। बाण निकालकर पक्षी का घाव धोया। कुछ जल पक्षी के मुंह में डाला और हंस जी उठा। उसी समय देवदत्त ने आकर कहा 'हंस मेरा है, मुझे दे दो।' सिद्धार्थ ने देवदत्त को उपेक्षा की दृष्टि से देखा और कहा 'नहीं यह हंस तुम्हारा नहीं, अब यह मेरा है।' शिकार पर अधिकार शिकारी का-नियम तो यह मान्य था। हंस पर अधिकार देवदत्त का ही बनता था। बात दरबार में पहुंच गई। सिद्धार्थ ने कहा 'राजन आप ही बताएं, अधिकार मारने वाले का या बचाने वाले का? राजन बोलिए न हंस किसका?' राजा शांत हो गये। विद्धानों की राजसभा स्तब्ध थी, निरुत्तर भी। सिद्धार्थ का प्रश्न 'हंस मारने वाले का या जीवन देने वाले का?' सभी के हृदय में देर तक गूंजता रहा। यह एक नई परिभाषा थी। स्थापित नियम बदल गये, शिकार पर अधिकार शिकारी का न रहा। जीवन देने वाला मारने वाले से बड़ा हो गया। हिंसा पर अहिंसा की विजय हुई। सिद्धार्थ हंस को लेकर प्रसन्न था। जीवन को एक दिशा मिल गयी-'दु:खी और पीड़ित का कष्ट दूर करने में ही विजय है।'
महाभिनिष्क्रमण
ईश्वर ने भी सिद्धार्थ को दूसरों के दु:ख से दु:खी होने का वरदान दिया था। दुखी प्राणी का दु:ख दूर करने में ही उसको सुख था। करुणा के संवेगों से वह आप्लावित था। अस्वस्थ, असहाय और वृद्ध लोगों को देख वह सोचता रहता था कि इनका दु:ख किस प्रकार दूर हो सकता है। जीव जगत की व्यथा निवारण हेतु ही वह जन्मा था। उधर ज्योतिषी असित की घोषणा 'सार्वभौम परिव्राजक' ने राजा को व्यथित कर रखा था। शुद्धोधन इस बात को भूले नहीं थे। उस समय की परम सुंदरी गुणवान यशोधरा के साथ सिद्धार्थ का विवाह कर वे प्रसन्न हो गये। पुत्र राहुल के जन्म ने तो राजमहल की प्रसन्नता को शतगुण बढ़ा दिया। लोगों को क्या पता था कि राहुल का आगमन शुभ नहीं है। एक दिन रात्रि को जब सभी गहन निद्रा में थे, सिद्धार्थ ने विलक्षण रूप सम्पन्न यशेधरा और राहुल को एकक्षण देखा और तत्काल महल छोड़ दिया। कपिलवस्तु के महल का ऐश्वर्य और सुख-वैभव, इस महायोगी ने उन्तीस वर्ष की आयु में ही सदैव के लिए त्याग दिया और जंगल की राह पकड़ ली। करुणावतार दु:खी दुनिया के आंसू पोंछने के लिए निकल पड़ा। इसी को हम भगवान बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण के नाम से जानते हैं। सिद्धार्थ ने जंगल में जाकर अपने सुंदर केशों को अपने ही खड्ग से काट कर फेंक दिया और रत्नजड़ित वस्त्राभूषणों को साथ में आये सेवक छंदक को देकर वापस कर दिया। अब वे पिता-पत्नी-पुत्र-परिवार-राजपाट आदि के सभी दायित्वों से सर्वथा मुक्त थे। ज्योतिषी की भविष्यवाणी सच निकली। सिद्धार्थ परिव्राजक हो गये। सत्य की खोज हेतु उनकी यात्रा प्रारंभ हो गयी। दारिद्रता और जंगल का अप्रतिष्ठित जीवन उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया था। आलार कालाम नामक विद्वान का गुरूकुल वैदिक शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था। सिद्धार्थ ने वहीं कुछ समय रहकर अध्ययन किया। शास्त्र तो कंठस्थ हो गये किंतु अर्न्तमन की प्यास न बुझी। रामपुत्त के आश्रम में भी सिद्धार्थ गये और विद्वानों के मध्य रहे। शास्त्रों को और गहराई से पढ़ा तथा समझा किंतु दु:खियों के दु:ख दूर करने का समाधान न मिला। सिद्धार्थ ने कठोर साधना का मार्ग अपनाया और शरीर को कृशकाय कर लिया। अशक्त शरीर बेसुध होने लगा। वृक्ष के नीचे शक्तिहीन हो रहे सिद्धार्थ (साधक) को देख एक ग्रामवासिनी बालिका सुजाता खीर का पात्र लेकर आयी और बोली-'महाराज भिक्षा ग्रहण करें। शरीर रहेगा तो साधना भी सधेगी।' सुजाता की उस आत्मीय वाणी ने सिद्धार्थ को अंदर तक हिला दिया। सिद्धार्थ ने खीर खायी और पुन:साधना में लीन होने लगे। अब उन्होंने शरीर को अति कठोर कष्ट देने वाले तप को त्याग दिया। सिद्धार्थ को लगा कि 'वीणा के तारों को बहुत कसने से वह टूट जाते हैं। बहुत ढीला करने से स्वर नहीं निकलते।'
महाबोधि की प्राप्ति
साधना चलती रही और एक वैशाख पूर्णिमा का दिन ऐसा आया कि अश्वत्थ वृक्ष के नीचे बैठे ध्यानस्थ सिद्धार्थ को लगा कि उन्हें वह मिल गया जिसको वे ढूंढ रहे थे। वे आनंदित हो उठे। महाबोधि वृक्ष की छाया में उन्हें सम्यक् सम्बोधि की प्राप्ति हुई। अब वे सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध हो गये। बुद्ध आत्मविश्वास से परिपूर्ण और प्रसन्न थे। साधना में प्राप्त अनुभवों और ज्ञान को शीघ्र ही वे सभी को बताना चाहते थे। योग्य शिष्यों की खोज में वे काशी के निकट सारनाथ आ गये। सारनाथ (मृगदाव) में अपने पुराने पांच शिष्यों के मध्य बैठकर उन्होंने अपने अनुभवों के साथ अध्यात्म चर्चा की। पहले तो ये शिष्य उनके ऊपर विश्वास ही नहीं कर रहे थे किंतु शीघ्र ही उनकी श्रद्धा जगी और शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी। सारनाथ में ही उनका प्रथम प्रवचन हुआ और भगवान बुद्ध के इन प्रथम प्रवचनों को ही धर्मचक्र प्रवर्तनाय के नाम से प्रसिद्धि मिली। बुद्ध ने कहा 'अत्यधिक तप का मार्ग ठीक नहीं। अत्यधिक भोग का मार्ग भी उपयुक्त नहीं। हमको मध्य मार्ग अपनाना होगा। न अधिक भोग विलास का और न अत्यंत कठोर साधना का।' यही मार्ग बुद्ध की साधना का आधार बना। सारिपुत्त, मोग्गलान, आनंद आदि प्रमुख शिष्य श्रद्धाभाव से उनके साथ आ गये। बुद्ध ने बुद्ध-संघ की स्थापना की और अपने शिष्यों को दूरस्थ स्थानों पर भेजना प्रारंभ किया। भिक्षु सम्प्रदाय ने जन्म लिया और श्रमणों की संख्या बढ़ने लगी।
अब वे सम्बोधि प्राप्त बुद्ध थे। जीर्णशीर्ण त्यक्त वस्त्रों को साफ कर स्वयं के हाथों बनाया चीवर उन्होंने धारण कर लिया तथा भिक्षापात्र लिये वे ग्राम-ग्राम भ्रमण करने लगे। एक दिन अपनी शिष्यमंडली के साथ कपिलवस्तु की गलियों में वे भिक्षा मांग रहे थे। राजा शुद्धोधन को जब यह पता चला कि सम्पूर्ण राज्य का स्वामी राजकुमार सिद्धार्थ इसी नगर में भिक्षा मांग रहा है, तब व्यथित शुद्धोधन ने समाचार भेजा 'राजकुमार ऐसा कर लज्जित न करें।' तथागत ने शांतभाव से कहलवाया कि 'मैं राजकुमार नहीं, भिक्षुक हूं।' बड़ी कठिनाई से बुद्ध ने राजमहल में आने का निमंत्रण स्वीकार किया। बुद्ध के स्वागत हेतु मार्ग में दूर तक सुंदर कालीन बिछा दिये गये। बुद्ध ठिठक गये। आनंद ने महल के सेवकों को कहा 'कालीन हटा लो।' तब तथागत आगे बढ़े।
अद्भुत भिक्षु–विलक्षण भिक्षा
सारा परिवार भगवान बुद्ध के चरणों में विनत होकर बैठ गया। किंतु यशोधरा नहीं आयी, बुलाने से भी नहीं। बुद्ध समझ गये। यशोधरा से बिना पूछे ही जंगल को चले गये थे, इसी कारण वह नाराज है। बुद्ध विनम्र हो यशोधरा के कक्ष में आ गये। यशोधरा जीत गई। बुद्ध के चरणों में बैठकर खूब रोयी। आज वह प्रसन्न थी। उसका पति जगत का जनक होकर भी उसके उसी कक्ष में आकर बैठा था जहां से वह एक रात्रि को चुपचाप चला गया था। भिक्षुक ने कहा 'भिक्षा नहीं दोगी?' यशोधरा ने कहा 'क्यों नहीं?' यशोधरा ने एक क्षण विचारा और राहुल को याचक के हाथों में सौंप दिया। अद्भुत भिक्षुक और विलक्षण भिक्षा। परिवारीजन अवाक् रह गये। शुद्धोधन बिलख पड़े। भिक्षुक से याचना करने लगे 'ऐसा न करें तथागत!' भगवान ने कहा 'भिक्षा पर अधिकार भिक्षुक का ही है।' राहुल भी परिव्राजक बन गया। शुद्धोधन का परिवार धन्य हो गया। बुद्ध संघ बढ़ता गया और हजारों शिष्य प्रवज्या पाकर संघ में प्रशिक्षित होने लगे। भिक्षुओं की साधना बड़ी कठोर थी। सम्पत्ति के नाम पर पुराने वस्त्रों से बना चीवर और भिक्षापात्र। वृक्ष के नीचे शयन और ग्राम-ग्राम भ्रमण। सीधी-सरल साधना पद्धति लोगों को रास आ रही थी। यहां कर्मकांड, मंत्र, विद्वतापूर्ण विवाद और शास्त्रों की जटिलता नहीं थी। तर्क और शास्त्रार्थ का अहंकार भी नहीं। शील, विनम्रता, संयम और त्याग को बुद्ध ने पुनर्प्रतिष्ठित कर दिया था। बुद्ध ने संस्कृत के स्थान पर लोकभाषा पालि को अपने प्रवचनों के लिए चुना। संस्कृत तो विद्वानों की भाषा थी। बुद्ध ने ज्ञान, तर्क तथा भक्ति के स्थान पर कर्म और आचार को महत्व दिया। बुद्ध ने बहुत विचार के बाद ही मनुष्य के श्रेष्ठ कर्मों को अपने पंथ का आधार बनाया था। बौद्धसंघ में जातिगत भेद को कोई स्थान नहीं मिला, वहां सभी जातियों और वर्णों के लोगों को प्रवज्या का प्रावधान था। जन्मना जाति परम्परा को बुद्ध ने सिरे से नकार दिया। जातिगत अहंकार और तिरस्कार को वहां कोई मान्यता नहीं थी। बुद्ध ने श्रमणों (शिष्यों) को कहा 'जिस प्रकार सभी नदियां अपना-अपना अस्तित्व छोड़कर महासमुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न जाति-वर्णों में पैदा हुये भिक्षुक गण अपने-अपने नाम, गोत्र व जाति को त्याग कर बुद्ध संघ में शामिल हो गये हैं।'
आचरण की शुद्धता और शील सम्पन्न जीवन ही बुद्ध संघ का आधार बना। इसी कारण अजातशत्रु तथा बिम्बसार जैसे बड़े-बड़े महाराजा बुद्ध के शरणागत हो रहे थे। श्मशान में काम करने वाले सोपाक तथा सुप्पिय (डोम), झाड़ू लगाने वाले सुणीत और लूटपाट करने वाले अंगुलिमाल जैसे लोग भी शील सम्पन्न श्रमण बनकर बौद्धसंघ में प्रतिष्ठा पा गये। समाज के जो वर्ग जितना अधिक दु:खी, पीड़ित और प्रताड़ित थे उतनी ही तेजी के साथ बौद्धमत की ओर आकर्षित होने लगे। अनेक प्रकार से जीर्ण-जर्जरित समाज के लिए यह एक पीयूष वर्षा की तरह ही था। क्रमश:
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