चर्चा सत्र
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चर्चा सत्र
* डा. विशेष गुप्ता
शिक्षा का अधिकार कानून
उच्चतम न्यायालय ने 'शिक्षा का अधिकार कानून-2009' को संविधान सम्मत मानते हुए उसे वैध करार दिया है। न्यायालय ने 6 से 14 साल के बच्चों की अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा के मौलिक अधिकार को संवैधानिक मानते हुए कहा कि देश भर में सरकारी व गैर सरकारी सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित होंेगी। गौरतलब है कि मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.एच. कपाड़िया, न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की पीठ ने एक के मुकाबले दो के बहुमत के आधार पर पिछले दिनों अपना यह फैसला सुनाया था। इस फैसले में साफ तौर पर कहा गया है कि यह कानून सरकारी और गैर सरकारी सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में समान रूप से लागू होगा। केवल गैर सहायता प्राप्त निजी अल्पसंख्यक स्कूल इसके दायरे से बाहर रहेंगे।
कानून पर बहस
उल्लेखनीय है कि पिछले साल राजस्थान की संस्था 'सोसाइटी फॉर अनएडिड प्राइवेट स्कूल्स' और कई निजी स्कूलों से जुड़े संगठनों द्वारा शिक्षा के कानूनी अधिकार को चुनौती देने वाली याचिकाएं दायर की गयी थीं। इन याचिकाओं में कहा गया था कि निजी शैक्षणिक संस्थानों को अनुच्छेद 19 (1) (जी) के तहत जो रोजगार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं, सरकार उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। इस अधिकार में निजी प्रबन्धकों को सरकार की दखल के बिना अपने संस्थान चलाने की स्वायत्तता दी गयी है। उल्लेखनीय है कि कानून को चुनौती देने वाली विभिन्न निजी शिक्षण संस्थाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले संघों ने इस आधार पर इस कानून की वैधता को चुनौती दी थी कि यह शैक्षणिक संस्थान चलाने के उनके मौलिक अधिकार पर चोट करता है। यह कानून संविधान में अनुच्छेद 21(ए) के प्रावधान के माध्यम से तैयार किया गया था जिसमें साफ उल्लेख है कि सरकार 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करे। याचिकाओं में यह दलील दी गयी थी कि शिक्षा का अधिकार कानून असंवैधानिक है और बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन करता है। इस मामले पर चली लम्बी बहस के दौरान केन्द्र सरकार ने भी इस कानून के पक्ष में अपनी दलीलें प्रस्तुत करते हुए कहा था कि इस कानून का उद्देश्य समाज के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के जीवन स्तर में सुधार लाना है। इस सन्दर्भ में शीर्ष अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि शिक्षा अधिकार कानून संवैधानिक है और तत्काल प्रभाव से उसका अनुपालन अनिवार्य है। ध्यान रहे कि शिक्षा का अधिकार विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद, 27 अगस्त 2009 को भारत सरकार के राजपत्र में प्रकाशित होने के बाद 01 अप्रैल 2010 से लागू कर दिया गया है।
सर्वोच्च अदालत के इस फैसले के बाद शिक्षा अधिकार से जुड़ा कानून किस प्रकार का आकार लेगा तथा किस प्रकार केन्द्र और राज्य सरकारें इस कानून का क्रियान्वयन करेंगी, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। परन्तु इतना जरूर है कि निजी स्कूल प्रबन्धकों ने इस शिक्षा अधिकार कानून का विरोध करते हुए उच्चतम न्यायालय के इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए एक याचिका भी दायर कर दी है। निजी संस्थानों के प्रबंध तन्त्र का कहना है कि हम गरीब व कमजोर तबके के बच्चों को शिक्षा देने के खिलाफ नहीं हैं। उन्होंने सरकार पर आरोप मढ़ा है कि पिछले दो सालों से उन्हें सरकार की ओर से कोई शुल्क क्षतिपूर्ति नहीं की गयी है। इन संस्थानों का यह भी कथन है कि उनका प्रतिमाह प्रत्येक बच्चे पर 1200 से लेकर 3 हजार रु. तक खर्च आता है। इसलिए शिक्षा के अधिकार कानून के माध्यम से स्कूल में अध्ययनरत अन्य बच्चों पर 10 से 40 फीसदी तक शुल्क वृद्धि का अतिरिक्त अर्थभार पड़ने की संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं। ये स्कूली संस्थान अपनी दबी जुबान से यह भी कह रहे हैं कि सरकार उन 25 फीसदी कमजोर वर्ग के बच्चों के केवल शिक्षण शुल्क के रूप में ही शुल्क क्षतिपूर्ति करेगी। शेष पुस्तकों, वर्दी, क्षेत्र भ्रमण, परीक्षा तथा अन्य रचनात्मक गतिविधियों के संचालन हेतु शुल्क की आपूर्ति किस मद से की जाएगी? इसलिए इन स्कूलों में अध्ययनरत मध्यम व उच्च वर्ग के पालकों और अभिभावकों के बीच शुल्क वृद्धि का एक अनजाना भय भी घर कर रहा है।
शुरू हुई खींचतान
कहना न होगा कि आज देश में लगभग 16 लाख बच्चे कमजोर और पिछड़े वर्गों से हैं। इनमें से लगभग साढ़े चार लाख बच्चे केवल उत्तर प्रदेश से हैं। केन्द्र और राज्य सरकार के 65:35 के अनुपात में राज्य सरकारों को एक बच्चे का वार्षिक खर्च 3716 रू0 वहन करना होता है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा शिक्षा के अधिकार कानून के अन्तर्गत गरीब बच्चों के लिए 25 फीसदी सीटों के आरक्षण के बाद सरकारी और निजी स्कूलों के प्रबन्धन के बीच खींचतान शुरू हो गयी है। सरकार मानती है कि इस से समाज में सामाजिक समरसता से जुड़ा कानून बनेगा। दूसरी ओर निजी स्कूलों से जुड़े प्रबंधक अपने इस सम्पूर्ण कारोबार को लाभ-हानि के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास कर रहे हैं, क्योंकि उनकी नजर में शिक्षा समाज सेवा का नहीं, व्यवसाय का माध्यम बन गई है।
देश की आजादी के बाद का इतिहास गवाह है कि संविधान में सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा की संकल्पना समान स्कूल प्रणाली की अवधारणा से जुड़ी हुयी थी। कोठारी आयोग ने भी इस संदर्भ में अपनी सिफारिशें दी थीं। परन्तु हमारी सरकारों ने संविधान से जुड़ी शिक्षा की इस सार्वभौमिक अवधारणा और कोठारी आयोग के रचनात्मक सुझावों को पृष्ठभूमि में डाल दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि देश की सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था सामाजिक विषमता के खण्डों में बंटती चली गयी। वास्तविक स्थिति यह है कि आज 70-75 फीसदी बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, जहां राज्य सरकारों की बुनियादी शिक्षा की अनदेखी के कारण ढांचागत सुविधाओं का बेहद अभाव है। दूसरी ओर धनाढ्य वर्ग के लिए शिक्षा एक सर्वसुविधा संपन्न व्यवसाय में बदल गयी।
समरसता का तर्क
नि:सन्देह शिक्षा अधिकार कानून के अन्तर्गत निजी शिक्षण संस्थाएं 25 फीसदी गरीब बच्चों को प्रवेश देना अपनी मजबूरी मान रही हैं, इसलिए यह भी चिन्ता का विषय है कि ऐसे में क्या दोनों ही वर्ग के छात्रों के बीच यहां सामाजिक समरसता का माहौल बनेगा? अच्छा तो यह होता कि सरकार नगरों व गांवों में सरकारी-निजी साझेदारी के साथ पुरानी और नई संस्थाओं को पुर्नस्थापित करती। साथ ही वहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को सर्वसुलभ बनाकर स्वस्थ व प्रतिस्पर्धा से परिपूर्ण वातावरण का निर्माण करते हुए सामाजिक समरसता के माहौल का विस्तार करती। दूसरी ओर निजी शिक्षण संस्थानों को भी शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर व्यावसायिक हितों से आगे जाकर अपने सामाजिक दायित्व को भी समझना चाहिए। n
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