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पाञ्चजन्य

by
Mar 31, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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सम्पादकीय

दिंनाक: 31 Mar 2012 16:56:12

सम्पादकीय

अनभिज्ञो गुणानां यो न: भृत्यै: अनुगम्यते।

सेवक उस राजा को त्याग देते हैं, जो उनके गुणों की उपेक्षा करता है।  -विष्णु शर्मा (पंचतंत्र, 1/79)

चीन को लेकर धोखे में न रहे भारत

विश्व की लगभग आधी जनसंख्या वाले देशों ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका (ब्रिक्स) के चौथे शिखर सम्मेलन में जो संकेत उभर कर आए हैं, वे अमरीकी दादागिरी व पश्चिमपरस्त आर्थिक नीतियों के लिए एक गंभीर चेतावनी हैं। दुनिया में पैर पसारने की कोशिश कर रहा अमरीकी विस्तारवाद तथा विकसित देशों के इशारे पर नाचने और उनका हित संपादन करने वाली नीतियां बनाने वाले अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन व विश्व बैंक पर निशाना, ईरान व सीरिया के मामलों को टकराव में न बदलने की चेतावनी ब्रिक्स देशों की एकजुटता एवं पश्चिम, विशेषकर अमरीकी दबाव से उबरने की कोशिश ही मानी जानी चाहिए। दरअसल डालर का विकल्प तलाशना और विकास बैंक की जरूरत बताना इन देशों की अमरीकी आर्थिक दबाव से निकलने की छटपटाहट को ही उजागर करता है, क्योंकि यदि अमरीका ईरान से तेल खरीदने पर पाबंदी लगाने और चीन व भारत जैसे देशों को भी पाबंदी के दायरे में लाने का दुराग्रह करता है तो दुनिया को अपने डंडे से हांकने की इस अमरीकी कोशिश का जवाब दिया ही जाना चाहिए। अमरीकी आर्थिक नीतियां किस तरह विकासशील देशों के लिए खतरा हैं, इसे महसूस करते हुए अमरीकी मुद्रा डॉलर का प्रभाव कम करने के लिए इन देशों का स्थानीय मुद्रा में आपसी व्यापार का लेन-देन करने व स्थानीय मुद्रा में ही कर्ज का रास्ता खोलने की शुरूआत किए जाने का निर्णय आपसी व्यापार व निवेश में मील का पत्थर साबित हो सकता है।

लेकिन भारत को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि “ब्रिक्स” का सदस्य होने के नाते चीन जिस अमरीकी विस्तारवाद व आर्थिक संरचना का विरोध कर रहा है, भारत के संदर्भ में इन मुद्दों को लेकर वह स्वयं एक बड़ा खतरा है। यदि आपसी व्यापार व शांति की आड़ में चीनी धोखे से भारत सतर्क न रहा तो देश की संप्रभुता व एकता- अखंडता पर तो चीन का निशाना है ही, चीनी सामान के द्वारा भारत में आर्थिक घुसपैठ कर वह हमारी अर्थव्यवस्था को भी खोखला कर देने पर आमादा है। अमरीकी वर्चस्व को समाप्त कर स्वयं दुनिया का चौधरी बनने की चीन की लालसा किसी से छुपी नहीं है। उसकी विस्तारवादी मानसिकता का दंश भारत पिछले छह दशकों से झेल रहा है। तिब्बत पर जबरन कब्जा करके तो वह भारत की सीमा पर आ ही बैठा है। 1962 में पं.नेहरू के दिवास्वप्न “हिन्दी चीनी- भाई भाई” को तार-तार कर उसने मित्रता की आड़ में भारत की पीठ में छुरा घोंप कर हमारी करीब 40 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि हथिया ली। अब भारत के पड़ोसी देशों में भारत विरोधी हवा बनाकर, विशेषकर भारत को अपना जन्मजात शत्रु समझने वाले पाकिस्तान की पीठ थपथपाकर वह लगातार भारत के लिए गंभीर समस्याएं खड़ी करता रहता है। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में गिलगित-बाल्टिस्तान तक भारतीय सीमा के पास उसने अपनी पहुंच बना ली है। लद्दाख व अरुणाचल को लेकर वह लगातार भारत को आंखें दिखाता है और सारे राजनयिक व कूटनीतिक शिष्टाचार को धता बताकर अपनी शर्तों पर सीमा विवाद सुलझाने की बात करता है, जिसमें भारत के राष्ट्रीय हितों व संप्रभुता का कोई स्थान नहीं है।

भारत की मौजूदा सरकार व देश के प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह चीन के प्रति लगातार नरमी दिखाकर तथा शांति व मित्रता की बात करके उसके हौसलों को और बढ़ाते हैं, जबकि वह खुलेआम भारत को 20-30 टुकड़ों में बांट देने की अपनी योजनाओं को षड्यंत्रपूर्वक प्रचारित करता है। तिब्बत को लेकर भारत के राष्ट्रीय हितों की अवहेलना कर संप्रग सरकार चीन की मिजाजपुर्सी में लगी रहती है और भारत में ही तिब्बती मानवाधिकारों को कुचलने से भी परहेज नहीं करती। “ब्रिक्स” सम्मेलन में आए चीनी राष्ट्रपति हू जिन ताओ के विरुद्ध प्रदर्शन कर तिब्बत की आजादी की आवाज बुलंद करने वाले तिब्बतियों पर भारत की सख्ती की तो चीन प्रशंसा करता है, लेकिन इन प्रदर्शनकारियों को “दलाई लामा के गुर्गे” बताकर अपनी अधिनायकवादी मंशा भी जता देता है। भारत सरकार यदि चीन की इन चालाकियों व षड्यंत्रों को न समझ चीनी विस्तारवाद का मोहरा बनती रही, तो देश के लिए गंभीर खतरा उपस्थित हो सकता है। इसलिए जिस तरह दुनिया के लिए अमरीकी साम्राज्यवादी मानसिकता खतरनाक है, उसी तरह विस्तारवादी चीन का अधिनायकवाद भी। यह समझने में देर नहीं की जानी चाहिए।

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