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सेना-सरकार में बढ़े तालमेल

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Mar 31, 2012, 12:00 am IST
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चर्चा सत्र

दिंनाक: 31 Mar 2012 16:53:38

चर्चा सत्र

ब्रिगेडियर (से.नि.) बी.डी. मिश्रा

पिछले कुछ दिनों से थल सेना अध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह और केन्द्र सरकार के बीच एक विवाद जैसा चल रहा है। यह उस समय और बढ़ गया जब सेना अध्यक्ष ने फौज की खरीद में भ्रष्टाचार की बात कही। वर्तमान सेनाध्यक्ष की ईमानदारी और निष्ठा को देखते हुए कहा जा सकता है कि उनकी बातों में दम है।

28 मार्च को तब पूरा देश स्तब्ध रह गया जब सेना प्रमुख की वह गोपनीय चिट्ठी उजागर हुई, जिसमें उन्होंने सेना में आवश्यक हथियारों और उपकरणों की गंभीर कमी का उल्लेख किया है। यह पत्र किसने बाहर किया, यह तो जांच का विषय है। किन्तु पत्र में उठाए गए मुद्दे बड़े गंभीर हैं। सेना की सेहत अच्छी नहीं है, यह बात खुद सेनाध्यक्ष कह रहे हैं। इसके बाद आम आदमी के मन में कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। लोग कहते हैं कि जब हर साल सेना के बजट में बढ़ोतरी होती है, तो सेना में जरूरी हथियार और अन्य साजो-सामान की कमी क्यों है? बजट में आवंटित पैसा पहले रख-रखाव, वेतन, भवन मरम्मत आदि पर खर्च होता है। फिर अन्य सामान खरीदा जाता है। सच्चाई तो यह है कि हमारी सेना विदेशों से मंगाए गए उपकरणों और हथियारों पर ही निर्भर रहने लगी है। गोला-बारूद भी विदेश से आता है। 65 वर्ष बाद भी हम अपनी सेना को हथियार और सामरिक साजो-सामान बनाने में स्वावलम्बी क्यों नहीं बना पाए? हथियार और गोला-बारूद बाहर से मंगाने में हमें बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है। विदेशी कम्पनियां हर साल अपने सामान की कई गुना कीमतें बढ़ाती हैं। यही कारण है कि हर साल रक्षा बजट में बढ़ोतरी के बावजूद हमारी सेना कमियों से जूझ रही है। जब भी किसी सामान को बनाने की बात आती है तो सेना की “शोध एवं विकास शाखा” कहती है, वह बना देगी। इसके बाद उस पर काम शुरू होता है। 5 साल तक शोध करने के बाद कहा जाता है कि संबंधित उपकरण नहीं बन पाया। इस कारण वह उपकरण विदेशों से मंगाना पड़ता है।

विदेश पर निर्भरता कम हो

विदेश से हथियार, गोला-बारूद या अन्य सामान मंगाने में मुख्य रूप से दो तरह के नुकसान हैं। पहला नुकसान है कि अधिक पैसा खर्च करना पड़ता है, और दूसरा, हमारे दुश्मन को हमारी ताकत पता रहती है। दुनिया के हथियार बाजार में कोई ऐसा हथियार नहीं है, जिसकी जानकारी सबको न हो। यानी हम जो हथियार या गोला-बारूद विदेशों से मंगाते हैं, उसकी मारक क्षमता क्या है, वह कितना विध्वंसक है, कितना कारगर है, ये सारी जानकारियां हमारे पड़ोसी देशों को हो जाती हैं। इसलिए सेना को दुरुस्त करने के लिए बाहरी हथियारों की निर्भरता कम करनी  होगी। देश में ही सैन्य साजो-समान तैयार हों। सेना में मानव-संसाधन की जो कमी है, उसे पूरा किया जाए। सेना के अन्दर भ्रष्टाचार पर लगाम लगे। कोई भी फैसला सैन्य अधिकारियों की सहमति से हो। और चौथी बात, सेना में जिस भी उपकरण का अभाव है, उसे तुरन्त दिया जाए।

देश और सेना के हित में इन मुद्दों का तुरंत हल निकाला जाना चाहिए। रक्षा मंत्रालय का दायित्व है कि वह इन मुद्दों को लेकर एक “विशेषज्ञ समिति” बनाए। यह समिति जो सिफारिश करे, उस पर ईमानदारी और शीघ्रता से काम होना चाहिए। जो भी जांच हो वह पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ और समयबद्ध तरीके से हो। एक और बात परेशान करती है। वह है सेना मुख्यालय और रक्षा मंत्रालय के बीच तालमेल की कमी। इस वजह से समय-समय पर अनेक समस्याएं पैदा होती रहती हैं। सेना अध्यक्ष केवल सिफारिश कर सकते हैं, फैसला नहीं ले सकते हैं। कोई भी फैसला रक्षा मंत्रालय लेता है। जबकि विश्व के अनेक देशों में सेना अध्यक्ष कई निर्णय भी ले सकते हैं। भारत की एक विशाल सेना है। स्वाभाविक रूप से इसमें कुछ न कुछ कमियां रहती हैं। उनका तीव्र निदान सेना अध्यक्ष और सरकार की सहमति से ही हो सकता है। इसलिए आपसी तालमेल जरूरी है। यदि इन दोनों के बीच सामंजस्य बना रहेगा तो सेना की सेहत ठीक रहेगी। इसके लिए सबसे पहली जरूरत है रिक्त पदों को भरना।

निर्णयों में देरी गलत

आज थल सेना में 13 हजार अधिकारी कम हैं। जिस सेना में इतनी बड़ी संख्या में अधिकारियों की कमी हो, वह पूरी दक्षता के साथ काम कैसे कर पाएगी? इस कमी को खत्म करने के लिए जितनी जल्दी हो निर्णायक कदम उठाए जाने चाहिए। सेना के आला अधिकारियों की पदोन्नति के लिए गठित “प्रमोशन बोर्ड” की सिफारिशों पर भी समय-सीमा के अन्दर कार्रवाई होनी चाहिए। देश की रक्षा में सेना अच्छी तरह लगी रहे, इसकी चिन्ता देश को सदैव होनी चाहिए। रक्षा मंत्रालय से सेनाध्यक्ष जो मांगते हैं या वे जो रपट भेजते हैं, उस पर तुरन्त निर्णय लिया जाना चाहिए, क्योंकि वर्तमान विवाद के पीछे रक्षा मंत्रालय की लेट-लतीफी भी बहुत हद तक जिम्मेदार है। अभी एक मामला विदेशों से मंगाई जाने वाली गाड़ियों का उजागर हुआ है। समाचारों के अनुसार इन गाड़ियों के लिए हर साल करार का नवीनीकरण होता था। पिछले साल सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह ने करार पर हस्ताक्षर करने से यह कहते हुए मना कर दिया कि इन गाड़ियों में काफी कमियां हैं और दाम भी बहुत ज्यादा है। इसकी पूरी जांच रक्षा मंत्रालय को करानी चाहिए थी, किन्तु ऐसा हुआ नहीं। अब खबर आ रही है कि यह सौदा भारत की ही कुछ कम्पनियां करना चाहती हैं और वही कम्पनियां विदेशों से सेना के लिए गाड़ियां मंगाएंगी। यदि ऐसा हुआ तो वही गाड़ियां फिर से आ सकती हैं, जिन में कमियां पाई गई हैं। इस तरह के सौदे बड़े महंगे होते हैं। सौदा तय करने के लिए कम्पनियां खूब पैसा बहाती हैं। जाहिर है इस पैसे की वसूली सौदे से ही की जाएगी। ऐसी नौबत क्यों आती है? रक्षा मंत्रालय को देखना चाहिए।द

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