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वैश्विक समस्याओं का समाधान है हिन्दुत्व

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Mar 31, 2012, 12:00 am IST
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इतिहास दृष्टि

दिंनाक: 31 Mar 2012 16:22:07

इतिहास दृष्टि

डा.सतीश चन्द्र मित्तल

भारतीय विद्वानों, दार्शनिकों, समाज सुधारकों तथा साहित्यकारों ने अतीत काल से ही व्यक्ति तथा समष्टि का गहन चिंतन किया है। मनुष्य को परमात्मा का अंश या ईश्वर का अव्यक्त रूप तथा सर्वश्रेष्ठ कृति माना है। किन्तु, व्यक्ति को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए भी उसके समष्टिगत स्वरूप को ही प्राथमिकता दी है। व्यक्ति के अलग अस्तित्व की तुलना में उसके सामाजिक तथा समष्टिगत तत्व को ही प्रधानता दी है। व्यक्ति का यह समष्टिगत रूप ऋग्वेद के आदिपुरुष तथा श्रीमद्भगवत् गीता के विराट स्वरूप में दृष्टिगोचर होता है। समष्टि का यही चिंतन व्यक्ति से आगे बढ़कर परिवार, कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र, विश्व, प्राणीमात्र तथा चर-अचर की सप्तपदी या परिधि में व्यक्त होता है। अत: भारतीय जीवन दर्शन, मानवतावादी, विश्वबंधुता तथा विश्व परिवार की भावना से सदैव आलोकित तथा ओतप्रोत रहा है। वसुधैव कुटुम्बकम्, सर्वे भवन्तु सुखिन:, कृण्वन्तो विश्वमार्यम की शब्दावली अथवा जयनाद इसी भावना को सदैव व्यक्त कर रही है। इसी हेतु भौतिक जीवन के साथ आध्यात्मिक आत्मानुभूति तथा नैतिक जीवन को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। प्राचीनकाल से वर्तमान तक इस विश्व चेतना को सतत वशिष्ठ, वाल्मीकि, वेदव्यास, शुकदेव, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर, रामानुज, माधव, वल्लभ, रामानंद, ज्ञानेश्वर, चैतन्य, कबीर, नानक, तुलसी, तुकाराम, रामदास, गुरू गोविंद सिंह, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद तथा महर्षि अरविंद आदि ने जागृत रखा। इसी विश्व मंगल तथा विश्व कल्याण की सर्वोत्तम आध्यात्मिक तथा धार्मिक चेतना से भारत को जगतगुरू के रूप में जाना गया है।

बिखरता हुआ विश्व

वर्तमान काल में “ग्लोबल” या “ग्लोबलाइजेशन” शब्द प्रचलित है जिसका अर्थ “वैश्वीकरण” बताया जाता है। हिन्दुओं के लिए यह कोई नई बात नहीं है। हां, इसका अर्थ तथा अभिव्यंजना नई है। पश्चिमी जगत में इसकी अभिव्यक्ति सैन्यकरण तथा शस्त्रों की होड़, भूमि हड़पने की महत्वाकांक्षा, मतान्तरण, आर्थिक लूट, दबाव तथा उपभोक्तावादी चिंतन में दिखलाई देती है। यह सत्य है कि ब्रिटिश साम्राज्य, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसके राज में कभी सूर्य नहीं छिपता था, द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात तीसरी श्रेणी की शक्ति बनकर रह गया है। 1917 में क्रूर बोलशेविक क्रांति से स्थापित सोवियत राज्य, 75 वर्ष के कठोर कम्युनिस्ट अधिनायकवाद तथा लगभग 10 करोड़ लोगों के नरसंहार (देखें स्तेफानी कुत्र्वा, द ब्लैक बुक आफ कम्युनिज्म: क्राइम टेरर एंड रिप्रेशन, पृ.4) के पश्चात ढह गया है। 1949 से चीन में स्थापित माओत्से तुंग के “विश्वव्यापी कम्युनिज्म” के नारे से वर्तमान चीन ने न केवल पल्ला झाड़ लिया है बल्कि अब वह नव पूंजीवाद तथा उपभोक्तावाद की दौड़ में, विश्व में नकली माल बेचने, देह व्यापार, शरीर के अंगों की बिक्री, आर्थिक असमानता तथा अपराध जगत में सबसे आगे  है। यही हालत विश्व में दादागिरी करने या चौधरी बनने के इच्छुक संयुक्त राज्य अमरीका की भी है, जो अपने धन और सैनिक बल के आधार पर अपनी मनमानी शर्तों से अन्य राष्ट्रों को नतमस्तक करना चाहता है। लेकिन भौतिक जगत में आगे होते हुए भी वह शिक्षा, संस्कार, परम्परा, निष्ठा, पारिवारिक संरचना तथा जीवन मूल्यों के मामले में बहुत पिछड़ा हुआ है। इसीलिए वह न केवल सामाजिक समस्याओं, अविवाहित माताओं की बढ़ती संख्या, असंख्य तलाकों, कम उम्र में काम-समस्या तथा व्यभिचार आदि समस्याओं से पीड़ित ही नहीं है बल्कि अपने कृत्यों से वह आतंकवाद से सर्वाधिक भयाक्रांत है।

भारत की वर्तमान दशा का कारण

दुर्भाग्य से भारत विभाजन के पश्चात अंग्रेज जानबूझकर भारत का राज्य उन व्यक्तियों को सौंप गये जिन्होंने हजारों वर्षों के भारतीय अनुभवों, अनुभूतियों को तिलांजलि देकर, आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य जगत का अंधानुकरण किया। देश की मूल पहचान छोड़कर इसे “इंडिया दैट इज भारत” कहा तथा हजारों सालों से चले आये राष्ट्र को “राज्यों का संघ” कहा। यूरोपीय “रिलीजन” की तर्ज पर भारतीय संविधान में “सेक्युलरिज्म” शब्द जोड़कर भारत की उद्देशिका को बदला। आर्थिक जगत में सोवियत संघ की नकल कर पंचवर्षीय योजना अपनाई तथा इसे एक परम्परा बना दिया। भारतीय शिक्षा पद्धति की उपेक्षा कर, पाश्चात्य पद्धति को स्थापित किया। 

इसके परिणाम विनाशकारी हुए। सैकड़ों आंकड़े तथा सरकारी शोध इस बात के प्रमाण हैं कि बेकारी-बेरोजगारी बढ़ी है। हजारों किसानों ने आत्महत्या की तथा गरीबी दूर होने की बजाय बढ़ती गई, बाल कुपोषण के कारण हम विश्व में शर्मनाक स्थिति में पहुंच गए हैं। उच्च  तथा प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर भी हम पिछड़ गए। उधर हमारा देश काले धन तथा भ्रष्टाचार में आगे बढ़ा। यह विश्व में भ्रष्टाचार की सूची में 87 से बढ़कर 95वें स्थान पर पहुंच गया। इधर, चीन तथा पाकिस्तान के रवैये तथा आंतरिक असुरक्षा ने स्थिति को  और भी भयावह बना दिया है। मुस्लिम तुष्टीकरण, आतंकवाद तथा वर्तमान चुनावी राजनीतिक व्यवस्था ने इसकी स्थिति और भी दयनीय बना दी है। आखिर विश्व तथा भारत की दयनीय स्थिति का हल क्या है? मेरी दृष्टि में एक शब्द में इसका हल है- हिन्दुत्व की भावना।

विश्व कल्याण का मार्ग

भारत की राष्ट्रीय पहचान है हिन्दुत्व। इसी भांति यह विश्व चेतना तथा लोक कल्याण की भी पहचान हैं। हिन्दुत्व एक भाववाचक संज्ञा है। यह संस्कृत के दो शब्दों-हिन्दूतत्व  से बना है। संस्कृत के शब्द मनुष्यत्व के पर्यायवाची के रूप में यह प्रयोग में आया है। हिन्दुत्व भारतीय समाज के दर्शन, परम्परा, संस्कृति तथा विरासत की सामूहिक अभिव्यक्ति है। यह भारतीय ज्ञान-विज्ञान की विश्व को देन को व्यक्त करता है। यह विविधता में एकता का परिचायक तथा विश्व में “जियो और जीने दो” के सिद्धांत में पूरी आस्था रखता है। हिन्दुत्व देवत्व, विश्वत्व तथा मानवीयता का संयोग है। यह सेवा, संस्कार, समर्पण, समरसता तथा सह अस्तित्व का    पोषक है।

अनेक बार राजनीतिक संकीर्णता अथवा व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के वशीभूत बिना किसी आधार के हिन्दुत्व को इस्लाम या ईसाई विरोधी, उच्च वर्ग का समर्थक या पिछड़े वर्गों का विरोधी, महिलाओं के विकास में बाधक, स्वतंत्र चिंतन का विरोधी तथा प्रगति में बाधक बतलाया गया है। परंतु उपरोक्त अवधारणा असत्य, अविवेकपूर्ण तथा तर्कहीन है। वस्तुत: हिन्दुत्व जीवन का एक मार्ग है जिसने न किसी पैगम्बर का अपमान किया, न किसी ग्रंथ, विचार या पूजा-पद्धति को अमान्य किया। यह सबको जोड़ता है, तोड़ता नहीं है। इसीलिए भारत में यूरोप की भांति कभी भी सतत क्रूसेड या जिहाद (मजहबी हिंसा) नहीं हुआ। हिन्दुत्व तो आस्तिकों तथा नास्तिकों को भी जोड़ता है। यह विभिन्न मत-पंथों को एक ही सत्य का विभिन्न भाषाओं तथा विधियों में प्रकटीकरण मानता है। यह सभी मत-पंथों के प्रति सहिष्णु ही नहीं है बल्कि सबका सम्मान भी करता है। हिन्दुत्व पर आधारित हिन्दुओं का एकमात्र देश भारत ही है जो प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आस्था के अनुसार पूजा की गारंटी देता है। संक्षेप में हिन्दुत्व में ही विश्व का एकमात्र आध्यात्मिक प्रजातंत्र है। हिन्दुत्व एक विश्व चेतना, विश्व दृष्टि तथा विश्व कल्याण का मार्ग है।

विद्वत् जगत की अनुभूतियां

विश्व के अनेक विद्वानों ने विश्व की वर्तमान समस्याओं का समाधान हिन्दुत्व तथा भारतीय नेतृत्व में अनुभव किया है। फ्रांसीसी विद्वान रैने दिकार्ते ने व्यथित होकर कहा है कि, “कुरान, बाइबिल, यहूदी के नाम पर कट्टरवाद फैलाया जा रहा है।” अमरीकी विद्वान सीलींग हैरीसन का चिंतन है कि विज्ञान तकनीकी से आशंकाएं बढ़ी हैं। जापान के मासाकी निकाया का विश्वास है कि भारत तीसरी दुनिया की आवाज है। अमरीका के विश्वविख्यात विद्वान विल डयूरैंट ने सभ्यता की कहानी में लिखा, “भारत की सहनशीलता, परिष्कृत मस्तिष्क, सादगी की भावना से सम्पूर्ण विश्व मानव मात्र में एकता, शांति तथा प्रेम का पाठ सीख सकता है। विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नाल्ड टायन्वी का कथन है कि, “जिस अध्याय का प्रारंभ पाश्चात्य जगत में हुआ, उसकी समाप्ति भारत में होगी। इस आणविक युग में मुक्ति का मार्ग भारत का मार्ग है।” अल्वर्ट आइंसटीन ने भी कहा था, “सचमुच मन की शांति चाहते हो तो आपको पूरब की ओर देखना होगा, विशेष तौर पर भारत की ओर।”

समय की आवश्यकता

अत: आवश्यकता है कि भारत का नेतृत्व चरित्र सम्पन्न, व्यापक दृष्टि तथा गतिशील चिंतन से युक्त हो, जो भारत के गौरवमयी अतीत में आस्था रखता हो तथा उससे प्रेरणा लेता हो। जो तथाकथित सेकुलरवादियों तथा कम्युनिस्टों की संस्कृतिविरोधी चुनौतियों को स्वीकार करे तथा उच्च और निम्न हिन्दू की संकीर्ण राजनीति से मुक्त हो। यह आवश्यक है कि देश की सामाजिक तथा आर्थिक रचना का पुनर्निर्माण राष्ट्रीय चेतना के प्रकाश में हो, भारतीय राजनीति की जड़ें उदात्त हिन्दुत्व में निहित हों। हिन्दुत्व का विचार ही विश्व व्यापी आतंकवाद को समाप्त करेगा। हिन्दुत्व पर आधारित व प्रेरित जीवन प्रणाली ही विश्व में परस्पर सहयोग, सहअस्तित्व तथा समरसता की भावना विकसित करेगी। इसी से विश्व बंधुत्व तथा विश्व का कल्याण होगा।द

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