बात बेलाग
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बात बेलाग
उत्तर प्रदेश समेत देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव संपन्न हो गए। मतदाताओं ने राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों का भाग्य इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में कैद कर दिया। किसके हिस्से क्या आया, इसका पता तो छह मार्च को चलेगा, लेकिन इस बार चुनाव प्रचार में कांग्रेस ने लोकतांत्रिक मर्यादाओं और संवैधानिक प्रावधानों की जैसी धज्जियां उड़ायीं, उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। ओबीसी आरक्षण में अल्पसंख्यक आरक्षण साढ़े चार प्रतिशत से बढ़ाकर नौ प्रतिशत कर दिए जाने के लॉलीपॉप से शुरू हुआ खतरनाक खेल राष्ट्रपति शासन की धमकी तक पहुंच गया। स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों के लिए विश्व भर में प्रतिष्ठा अर्जित करने वाले चुनाव आयोग ने आदर्श चुनाव आचार संहिता के इस उल्लंघन पर तीन केन्द्रीय मंत्रियों-सलमान खुर्शीद, बेनीप्रसाद वर्मा और श्रीप्रकाश जायसवाल-को नोटिस भी जारी किया। जबाव आए और निंदा-फटकार के बाद मामला रफा-दफा भी कर दिया गया। लेकिन इसमें इस बात को नजरअंदाज कर दिया गया कि यह सब इरादतन भी था और साजिशन भी। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में इस बार “युवराज” की दांव पर लगी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए कांग्रेस ने साम-दाम-दंड-भेद, हर हथकंडा अपनाया। उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक मतदाताओं की बड़ी संख्या के मद्देनजर चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से ठीक पहले ओबीसी आरक्षण में अल्पसंख्यक आरक्षण के कोटे का कार्ड चला गया और फिर खुर्शीद व वर्मा के जरिए उसे दोगुना करने का दांव चला गया। आरक्षण का लॉलीपॉप कहीं बेकार न जाए, इसलिए सात चरणों वाले मतदान के बीच श्रीप्रकाश जायसवाल से मतदाताओं को धमकवाया गया कि अगर कांग्रेस सरकार नहीं बनी तो उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाएगा। अंतिम दो चरणों के मतदान से पहले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह से भी यह धमकी फिर दोहरवायी गयी। इस बेशर्मी के बावजूद कांग्रेस की विधानसभा सीटें 50 का आंकड़ा पार कर पाएंगी-खुद कांग्रेसी भी आश्वस्त नहीं हैं।
हाथ और हैंडपंप
अतीत गवाह है कि हैंडपंप कभी किसी का सगा नहीं हुआ, पर राजनीति में अवसरवादी गठबंधनों का प्रयोग कभी बंद नहीं होता। वर्ष 2007 तक हैंडपम्प सपा की साइकिल के पीछे रखा हुआ था तो वर्ष 2009 में भाजपा के कमल को खिलाने चला गया और अब वर्ष 2012 में वह कांग्रेस के हाथ के साथ है। अब स्वार्थ के रिश्तों में कौन किसके साथ होता है? गठबंधन की खातिर कांग्रेस ने राष्ट्रीय लोकदल प्रमुख अजित सिंह को केन्द्र में नागरिक उड्यन मंत्री तो बना दिया, पर सीटों के बंटवारे से शुरू हुई खींचतान चुनाव प्रचार के दौरान भी जारी रही। रालोद के हिस्से महज 46 सीटें आयीं। रालोद की परम्परागत मानी जाने वाली कई सीटें भी कांग्रेस ने हथिया लीं, पर हैंडपंप ने हसीन सपने देखना-दिखाना नहीं छोड़ा। खुद रालोद प्रमुख अजित सिंह ने अपने सांसद बेटे जयंत चौधरी को विधानसभा चुनाव मैदान में ही नहीं उतारा, बल्कि मुख्यमंत्री पद का दावेदार भी बता दिया। जयंत को उम्मीदवार बनाने से ही खार खाए बैठी कांग्रेस उन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताने पर आपा खो बैठी। रालोद के प्रभाव क्षेत्र में मतदान से ठीक पहले ही दिग्विजय ने कटाक्ष कर दिया कि 403 सदस्यीय विधानसभा में 46 सीटों पर चुनाव लड़ने वाले दल का मुख्यमंत्री कैसे बन सकता है? तर्क में दम है, पर सपने देखने-दिखाने में क्या जाता है। फिर झारखण्ड में तो कांग्रेसी कुनबे ने एक निर्दलीय मधु कौड़ा को ही मुख्यमंत्री बना दिया था।
रहस्यमयी सोनिया
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् की अध्यक्ष के नाते एक लोकतांत्रिक निर्वाचित सरकार को भी नियंत्रित करने वाली कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी सत्ता सुख और अधिकारों का तो हर संभव उपयोग करना चाहती हैं, पर निजता की आड़ में जिम्मेदारी और जवाबदेही से अक्सर बच निकलती हैं। पिछले साल अगस्त में “ऑपरेशन” कराने अमरीका गयीं तो उनकी “बीमारी” और “ऑपरेशन” पर हुआ खर्च तक छिपाया गया। हाल ही में किसी ने सूचना के अधिकार के तहत उनके आयकर का विवरण मांगा तो फिर निजता का लबादा ओढ़ लिया गया, और अब जब वह अपने सामान्य “मेडिकल चेकअप” के लिए एक बार फिर विदेश गयी हैं तो “चेकअप” का विवरण तो छोड़िए, विदेशी गंतव्य तक गोपनीय रखा गया है। यह रहस्यमयी आचरण उस कांग्रेस की अध्यक्षा का है, जो पारदर्शिता और सूचना के अधिकार के लिए अपनी और अपनी सरकार की पीठ थपथपाते नहीं थकती।
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