जी का जंजाल
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पारिवारिक मनोरंजन के नाम पर “बुद्धूबक्सा” बना
आलोक गोस्वामी
60 के दशक का “बुद्धूबक्सा” संचार क्रांति के इस दौर में फूहड़ता, अश्लीलता और स्त्री-षड्यंत्रों को घर-घर पहुंचाने का जरिया बन गया है। टेलीविजन पर आजकल दो ही चीजें छाई हैं- एक- खबरिया चैनल, और दो- धारावाहिक। खबरिया चैनलों में एकाध को छोड़कर बाकी सब समय की खानापूर्ति में बेसिरपैर की एक ही खबर को सुबह से शाम छत्तीसियों बार दिखाते हैं, तो कभी दूसरे चैनलों पर दिखाए जा रहे फूहड़ कार्यक्रमों की बेमतलब की झलकियां दिखाकर “टाइम पास” करते हैं। दूसरी तरफ स्टार प्लस, सोनी, जी, इमेजिन, कलर्स, लाइफ ओके जैसे धारावाहिकी चैनल हैं, जो शाम सात बजे से रात साढ़े ग्यारह बजे तक, एक के बाद एक तथाकथित मनोरंजक व पारिवारिक धारावाहिकों, रिएलिटी शो और फूहड़ कामेडी शो के नाम पर परिवार को तोड़ने वाले स्त्री- षड्यंत्र व अश्लीलता परोसते हैं। हैरानी की बात तो यह है कि इन्हीं मसालेदार चीजों को वे अगले दिन सुबह से शाम सात बजे तक एक-एक, दो-दो बार फिर से दिखाते हैं, “उन दर्शकों के लिए जो उन्हें पिछले दिन नहीं देख पाए थे।”
एक दौर था जब रामानंद सागर का बनाया रामायण धारावाहिक हर रविवार की सुबह देशभर की सड़कों-चौराहों पर घंटे भर तक कफ्र्यू का सा दृश्य पैदा करता था। कई घरों में तो धारावाहिक शुरू होने से पहले हाथ-पैर धोकर बाकायदा अगरबत्ती जलाई जाती थी। कमाल की प्रस्तुति, कमाल की अदाकारी और सबसे बढ़कर घर-घर में जीवनमूल्यों व संस्कारों को पहुंचाने की ईमानदार कोशिश थी वह। लोग उसके दीवाने हो गए। फिर एक जमाना आया “महाभारत” धारावाहिक का, जिसके कलाकारों को आज भी दूसरे धारावाहिकों में अभिनय करते देख पुराने लोग कह उठते हैं कि देखो, यह महाभारत का कर्ण है, यह अर्जुन है, यह युधिष्ठर है आदि-आदि। “हम लोग” और “बुनियाद” जैसे पारिवारिक धारावाहिकों ने तो दूरदर्शन को नए आयाम दिए। जो कहानी, अभिनय, प्रस्तुतिकरण वगैरह के लिहाज से ऐसे कसे हुए थे कि घड़ी में अलार्म लगाकर लोग उन्हें देखना सौ टके पक्का करते थे। घर-घर में बसेसर राम (हम लोग) और मास्टर हवेली राम (बुनियाद) के जीवन में घट रहीं घटनाओं पर बातें हुआ करती थीं। साफ-सुथरी, सरल, सादा, सलीकेदार, सटीक प्रस्तुतियों को लोगों ने दोनों हाथ पसार कर अंक में समेटा था। समय आगे बढ़ा। छोटे पर्दे ने धीरे-धीरे मनोरंजन की बुलंदियों को छुआ। “मालागुडी डेज” (और उससे पहले “एक कहानी”) जैसे धारावाहिकों ने परिवारों को साथ बैठकर मनोरंजन के आनंद के साथ ही भावनाओं के समन्दर में हिलोरें भी दिलाईं। सन् 2006 में बालाजी टेलीफिल्म्स ने “क्योंकि सास भी कभी बहू थी” के साथ धारावाहिकों की दुनिया में एक अलग पहलू की शुरुआत की। माता-पिता, भाई-बहन, बहुओं, दामादों, पोते-पोतियों, नाती-नातिनियों से लेकर चाचा-ताऊओं तक के बीच कभी मीठी मनुहार तो कभी मद्धम तकरार, कभी ठसक, कभी प्यार तो कभी तीज-त्योहार के प्रसंग बरबस ही दर्शकों को बांध लेते थे। 8 साल तक अटूट सबसे ज्यादा “टी.आर.पी.” बटोरने वाले “क्योंकि…” के पात्र घर-घर के अपने सगे जैसे हो गए। धारावाहिक “कहानी घर-घर की” की पार्वती और उसके इर्द-गिर्द घूमते परिवार के रिश्तों की महक आज भी दर्शक महसूस करते हैं। फिर तो जैसे बाढ़ आ गई “पारिवारिक” धारावाहिकों की। हर दूसरे धारावाहिक की लगभग एक सी कहानी, एक से चरित्र, एक सी ठसक। बड़े-बड़े सेट, सजावट, हीरे-जवाहरात की लकदक, आलीशान तिलस्मी घर। कथानक और अभिनय गायब हुए तो उस जगह को भरा महंगे कपड़ों- जेवरों, लंबी गाड़ियों और नितांत फूहड़ अंतरंग दृश्यों ने। फिल्मी गीतों की धुनों पर झूमते कलाकारों ने दर्शकों से न केवल दूरी बढ़ा ली, बल्कि परिवार का साथ बैठकर टेलीविजन देखना दूभर कर दिया। लगभग हर धारावाहिक में एक-दूसरे के प्रति महिलाओं की साजिशें, जिन्होंने फिल्मी खलनायकों को भी मात दे दी और स्त्री की ममतामयी छवि को ही ध्वस्त कर दिया। रूमानी दृश्यों ने सीमाएं लांघनी शुरू कर दीं। “कामेडी” का “सर्कस” बना दिया गया, द्विअर्थी संवादों और शालीनता को धता बताने की होड़ लगी। 2006 में इंग्लैंड के “बिग ब्रदर” की तर्ज पर आया “बिग बॉस” दूसरे चरण से आगे मात्र और मात्र अश्लीलता का खुला पिटारा रह गया है। उसके पांचवें चरण ने तो सारी हदें ही पार कर दीं। एम.टी.वी. पर तथाकथित शहरी बिंदास लड़के-लड़कियों को लुभाने के लिए दिखाया जा रहा “रोडीस” देखा है आपने? हद दर्जे का वाहियातपन।
आज जितने भी पारिवारिक धारावाहिक चल रहे हैं उनमें “पारिवारिक” जैसा कुछ नहीं दिखता। सोनी पर “बड़े अच्छे लगते हैं” ठीक-ठाक चल रहा था कि अचानक उसमें मुख्य पात्रों की अंतरंगता, फिल्मी गानों पर रोमांस और नाच के बीच हदें तोड़ती नजर आई, जिसे देखकर बच्चे-बड़े एक दूसरे से आंखें चुराते रहे। भले ही राम कपूर इसे “अपने बच्चों के साथ बैठकर देखने लायक” बताएं, पर भारत चंद महानगरों तक सीमित नहीं है जहां पश्चिमीकरण के पैरोकार इसे ही “समाज की पसंद” बताकर परोस दें। टीवी की पहुंच तो आज गांव-कस्बों तक घर-घर में है। वहां इस “पसंद” को कैसे पचाया जा सकता है? जी टीवी का “साथ निभाना साथिया” में घर की महिलाओं के प्यार को पलीता लगाने के प्रकरणों को राशी और उसकी मां उर्मिला बेन के बहाने जिस तरह तूल देकर दिखाया जा रहा है, वह परिवार भाव के लिए एक चुनौती है। भले ही अंत में सच्चे का बोलबाला हो, पर तब तक झूठे का मुंह इतना ज्यादा “उजला” दिखा दिया जाता है कि जहर असर कर चुका होता है। “साथिया” ही क्यों, पारिवारिक के नाम पर दिख रहे ज्यादातर धारावाहिकों में महिला किरदारों को हर समय ब्यूटी पार्लर से सज-संवर कर आईं दिखाने के अलावा परिवार में एक-दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र रचने वाली ही दिखाया जाता है। इस तरह मनोरंजन के नाम पर टीवी जी का जंजाल बन गया है जो न छोड़ते बनता है, न देखते। “इसी तरह की कहानी देखना चाहता है समाज”, ऐसे तर्क देने वाले भले अपनी पीठ थपथपा लें, पर उनकी कहानियां, पात्र सामाजिक मन का बड़ा भारी नुकसान कर रहे हैं। आज के धारावाहिकों, कार्यक्रमों, विज्ञापनों और इसके विरुद्ध जागरूकता के बारे में हमने “क्योंकि सास भी कभी बहू थी” की केन्द्रीय पात्र तुलसी के रूप में घर-घर का प्यार पाने वाली स्मृति ईरानी से बात की, जो अब राजनीति में हैं और भाजपा महिला मोर्चा की अध्यक्ष हैं। राज्यसभा सांसद स्मृति भी मानती हैं कि चमक-दमक ने कला को आहत किया है। पर तड़क-भड़क और अश्लीलता परोसने वाली चीजें कोई छाप नहीं छोड़तीं और वक्त के गर्त में समा जाती हैं। स्मृति का कहना सही है, क्योंकि धारावाहिक हों या फिल्में, जब तक दिल को नहीं छुएंगी तब तक दिल में नहीं बसेंगी। साफ-सुथरे कार्यक्रम तभी लौटेंगे जब फूहड़ता का विरोध आम आदमी करेगा। शिकायतें करने और मंचों पर भाषण देने भर से नहीं चलेगा। कदम उठाना पड़ेगा। स्मृति ने पाञ्चजन्य से बातचीत में जो कहा, उसके मुख्य बिन्दु नीचे दिए जा रहे हैं। पर सौ बात की एक बात, पारिवारिक हो तो वो दिखाओ जो सब साथ बैठकर देख सकें।
जो आपत्तिजनक लगे उसकी शिकायत करें
-स्मृति ईरानी, सांसद एवं अध्यक्ष, भाजपा महिला मोर्चा
थ् एक जमाना था जब गिनती के धारावाहिक होते थे, परिवार के साथ बैठकर देखे जाते थे। आज के धारावाहिक परिवार के साथ बैठकर नहीं देखे जा सकते। आपका क्या कहना है?
द हम लोग जब धारावाहिक किया करते थे, तब प्रमुख रूप से कहानी पर ज्यादा जोर दिया जाता था। हमारे पारंपरिक मूल्यों के इर्द-गिर्द उन धारावाहिकों की कहानियां चला करती थीं। यही वजह थी कि हमारे टेलीविजन धारावाहिकों को परिवारिक धारावाहिक कहा गया था।
थ् आज की तुलना में तब के कलाकार ज्यादा विश्वसनीय लगते थे, आज ऐसा महसूस क्यों नहीं होता?
द जब आदर्शों, परंपराओं के इर्द-गिर्द बुनी कहानियां हुआ करती थीं, तब उन धारावाहिकों के लिए ऐसे कलाकारों का चयन किया जाता था जिनमें इतनी प्रतिभा होती थी कि वे एक चरित्र को पर्दे पर जीवंत कर दें। लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे ध्यान कहानी से, अच्छे कलाकारों से दूर हुआ वैसे-वैसे टेलीविजन में ऐसी चीजों का चलन शुरू हुआ जो अरुचि पैदा करता गया। पारिवारिक के नाम पर धारावाहिकों में अरुचिकर दृश्यों का होना इस बात का संकेत देता है कि धारावाहिक बनाने वाले लोगों का ध्यान अब “कंटेन्ट” (विषयवस्तु) पर नहीं है।
थ् कला के मायने भी बदल गए लगते हैं!
द आजकल कला मात्र कलाकार की लिप्स्टिक तक सीमित रह गई है। एक वक्त था, कम से कम मैंने जब अभिनय किया था, तब बिना साज-सज्जा के या उस पर उतना ध्यान दिए बिना, भावनाओं को, आदर्श को जीवंत कर दिखाने के लिए कलाकार मेहनत किया करते थे।
थ् क्या आज के धारावाहिकों में से किसी में ऐसा दिखता है?
द आज जितने भी धारावाहिक दिखाए जा रहे हैं उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो आपको हफ्ता भर बाद याद रह जाए। अब उनका ध्यान बनावटी चीजों पर ज्यादा है।
थ् इसीलिए बहुत ज्यादा चमक-दमक, बड़े-बड़े सेट, टीम-टाम दिखाई देती है?
द अंग्रेजी में कहते हैं न कि जब “मैटर” में “हार्ट” न हो तो वह बहुत बनावटी लगता है। जब दिल से काम नहीं होगा तो बनावट आएगी।
थ् इसके पीछे धारावाहिक बनाने वाले तर्क देते हैं कि यह प्रतियोगिता का जमाना है जिसमें यह करना पड़ता है। क्या यह सही है?
द ऐसे तर्क देने वालों को मैं अक्सर कहती हूं कि हमने भी प्रतियोगिता झेली, पर हमने अच्छे “कंटेन्ट” के आधार पर प्रतियोगिता में भाग लिया और इसीलिए इतिहास बना पाए। हम टेलीविजन धारावाहिकों के क्षेत्र में अपने काम से प्रमाण दे चुके हैं कि आप साफ-सुथरे पारिवारिक धारावाहिक बनाकर भी नम्बर एक रह सकते हैं। हम लगातार 8 साल नंबर एक पर रहे। और अपनी बात करती हूं कि कम से कम मैंने अपने जीवन में टेलीविजन पर जितना काम किया वह अपनी मर्यादा में रहकर, अपनी शर्तों पर किया। ऐसा नहीं है कि उससे मेरे “कैरियर” का कोई नुकसान हुआ। असल में तो दर्शकों ने उसे और भी सराहा।
थ् आज टेलीविजन देखते हुए आपको कुछ दृश्य जरूर खटकते होंगे। कोई उदाहरण दे सकती हैं?
द सच बताऊं तो समाचारों के अलावा टेलीविजन देखने के लिए मेरे पास ज्यादा समय ही नहीं बचता। लेकिन कुछ मौकों पर जरूर महसूस हुआ। जैसे “रिलायंस टीवी एवाडर््स” की मैं जज बनी थी तो मैंने उनसे कहा कि मैं किस आधार पर और किसको एवार्ड दूं? अगर प्रतिभा के आधार पर दूं तो वैसे कलाकार आजकल कहां हैं जो अपनी प्रतिभा के आधार पर समाज में जगह बनाते हैं? कहानी के आधार पर दूं तो कहां है वैसी कहानी जो दूसरी कहानियों से अलग लगे? इसीलिए आज कई कलाकार लंबे अंतराल के बाद टेलीविजन पर लौटे हैं। उनका लौटना इस बात का संकेत है कि दर्शक भी स्तरहीन चीजों को ज्यादा पसंद नहीं करते और वे चाहते हैं कि टेलीविजन पर मनोरंजन तो हो, पर पूरे परिवार के लिए हो।
थ् विज्ञापनों में नारी का भौंडा प्रदर्शन किया जाता है, उन पर आपका क्या कहना है?
द मैंने कई बार महिला मोर्चा के जरिए और महिला समन्वय की बैठकों में इस विषय को उठाया है कि आज अगर हमें किसी विज्ञापन में महिला का चित्रण या “कंटेन्ट” आपत्तिजनक लगता है तो हम इस बारे में शिकायत कर सकते हैं। लोगों को यह बताने की जरूरत है कि आप अपनी ओर से शिकायत कर सकते हैं। टेलीविजन पर दिखाई सामग्री, विज्ञापन आदि आपत्तिजनक चीजों की शिकायत की जानी चाहिए। महिला मोर्चा की तरफ से हमने सूचना व प्रसारण मंत्रालय में शिकायतें दर्ज कराई हैं। विशेष रूप से, जो फिल्में “ए” या “यू” प्रमाणपत्र के साथ सिनेमा हाल में दिखाई जाती हैं, वे फिल्में टेलीविजन पर उसी प्रमाण पत्र का संदर्भ देते हुए, पारिवारिक दर्शकों को ध्यान में रखते हुए न दिखाई जाएं, दुबारा सेंसर के दिशानिर्देश लागू किए बिना दिखाएं तो यह गलत है।
थ् आम दर्शक किसका दरवाजा खटखटाए?
द आप चैनल देखें तो नीचे एक पट्टी चलती है जिस पर संबंधित संस्था का पता होता है, उस पर आप “कंटेन्ट” के आपत्तिजनक होने की शिकायत कर सकते हैं। कई बार संगठन के माध्यम से भी हमें जो आपत्तिजनक लगता है, उसके खिलाफ हम चिट्ठी लिखते हैं।
थ् क्या कभी सुनवाई हुई?
द हां, हुई है। मैंने संसद में भी मामला उठाया, जिसका मंत्रालय से जवाब मिला है। चुपचाप तमाशा देखने से स्वयं कदम उठाना बेहतर है। द
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