धरहरा की धरोहर बेटी और वृक्ष
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धरहरा की धरोहर
बेटी और वृक्ष
अरुण कुमार सिंह
आज एक ओर विकास के नाम पर जहां अंधाधुंध पेड़ काटे जा रहे हैं, तो दूसरी ओर कन्या भ्रूण की हत्या मां के पेट में ही की जा रही है। इस कारण एक तरफ पर्यावरण में असंतुलन पैदा हो रहा है, तो दूसरी तरफ स्त्री और पुरुष का अनुपात तेजी से घट रहा है। बेटी और वृक्ष को बचाने के लिए सरकार पानी की तरह पैसा बहा रही है। कई गैर सरकारी संगठन तो बेटी और वृक्ष के नाम पर वर्षों से काम कर रहे हैं। इसके बावजूद जंगल के जंगल साफ हो रहे हैं और एक हजार पुरुषों पर सिर्फ 871 महिलाएं बची हैं। यानी बेटी और वृक्ष को बचाने के लिए सारे प्रयास निरर्थक साबित हो रहे हैं। इन परिस्थितियों में यदि कोई गांव बेटी और वृक्ष को बचा रहा है, तो आप क्या कहेंगे? उस गांव का नाम है धरहरा। यह गांव बिहार में भागलपुर जिले के गोपालपुर प्रखंड में गंगा नदी से उत्तर प्रदेश में है। भागलपुर जिला मुख्यालय से लगभग 33 किमी.और नवगछिया रेलवे स्टेशन से करीब 5 किमी.दूर स्थित इस गांव ने बेटी और वृक्ष बचाकर पूरी दुनिया के सामने एक बेजोड़ और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।
अभियान से जुड़े मुख्यमंत्री
गांव के लोग बेटी के जन्म पर पेड़ लगाते हैं। क्या गरीब, क्या अमीर सभी लोग बेटी के जन्म पर पेड़ लगाना अपने जीवन का परम कर्तव्य मानते हैं। कोई 1 पेड़ लगाता है, तो कोई 10, तो कोई 25-50 तक। यानी लोग अपनी क्षमता के अनुसार पेड़ लगाते हैं। जिस व्यक्ति के पास पेड़ लगाने के लिए अपनी जमीन नहीं है, वह गांव की ठाकुरबाड़ी की जमीन पर पेड़ लगाता है। बेटी और वृक्ष को संवारने के कारण इस गांव की सुगंध दूर-दूर तक फैलने लगी है। विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) के अवसर पर इस गांव में राज्य के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार आते हैं, किसी बेटी के नाम पर पेड़ लगाते हैं, और गांव वालों के इस कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। इस गांव से पूरा देश परिचित हो, इसी उद्देश्य से बिहार सरकार ने धरहरा की वनपुत्रियां नामक एक झांकी बनवाई है। यही झांकी 26 जनवरी को दिल्ली के राजपथ पर आयोजित गणतंत्र दिवस समारोह में भेजी गई थी।
इस झांकी की वजह से धरहरा गांव की चर्चा अब गांव की चौपालों से लेकर संसद तक होने लगी है। स्वाभाविक रूप से इस गांव के बारे में अधिक से अधिक जानने की इच्छा हर व्यक्ति को होने लगी है। यही इच्छा मुझे भी मार्च के प्रथम सप्ताह में धरहरा गांव तक ले गई। गांव का क्षेत्रफल लगभग 1200 एकड़ है। इनमें से 400 एकड़ पर पूरी तरह फलदार पेड़ लगे हैं। इनके अलावा पूरे गांव में कीमती लकड़ी वाले पेड़ इतने हैं कि बाहर से गांव का एक भी घर दिखाई नहीं देता है, जबकि गांव में करीब पांच सौ घर हैं। पूरा गांव किसी उपवन से कम नहीं लगता है। गांव के लोग बेटी के जन्म पर पेड़ क्यों लगाते हैं और कब से लगाते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर दिया ग्रामीण श्री वशिष्ठ नारायण सिंह ने। उन्होंने बताया कि गांव में पुत्री के जन्म पर पेड़ लगाने की परंपरा बहुत पुरानी है। इसकी शुरुआत हमारे बड़े-बुजुर्गों ने ही की थी। बेटी की पढ़ाई और विवाह के लिए फलदार पेड़ (आम, अमरूद, लीची, बेल आदि) और सागवान, शीशम जैसे महंगे पेड़ लगाए जाते हैं। बेटी के नाम पर लगाए गए फलदार पेड़ों से सालभर में जो आमदनी होती है उसे उसी के नाम से जमा रखा जाता है। वह राशि उसकी पढ़ाई और विवाह में खर्च की जाती है। सागवान और शीशम जैसे पेड़ बेटी के विवाह के समय बेचे जाते हैं और पुराने वृक्ष की जगह नए पेड़ अवश्य लगाए जाते हैं। श्री वशिष्ठ नारायण सिंह खुद इस परंपरा को वर्षों से निभा रहे हैं। 6 जून, 2010 को उन्होंने अपनी पोती लवी कुमारी (पुत्री श्रीमती प्रियंका देवी और श्री सौरभ सिंह) के नाम से मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के हाथों वृक्षारोपण का शुभारंभ कराया था। इसके बाद उन्होंने अपनी पोती के नाम से 25 पेड़ लगाए हैं। उनकी अपनी तीन बेटियां हैं, जिनका विवाह हो चुका है। अपनी बेटियों की शादी के लिए भी उन्होंने 1955-56 में 26 पेड़ लगाए थे। उन्हीं पेड़ों की आय से उनकी बेटियों को अच्छी शिक्षा मिली और अच्छे परिवारों में शादी भी हुई। कोशी परियोजना में कार्यरत रहे ग्रामीण श्री सियाराम सिंह कहते हैं, “बेटी के जन्म पर पेड़ लगाने से गांव वालों को मुख्य रूप से दो फायदे हैं। एक, बेटी की पढ़ाई और शादी के खर्च के बारे में लोगों को सोचना नहीं पड़ता है। जब तक बेटी 5-7 साल की होती है तब तक उसके नाम पर लगाए पेड़ भी फल देने लगते हैं। यानी जब खर्च की जरूरत होने लगती है तभी पेड़ आमदनी भी देने लगते हैं। इससे गांव की बच्चियों को ऊंची शिक्षा प्राप्त करने में बड़ी मदद मिलती है। दूसरा फायदा है हरे-भरे वृक्षों से आसपास का पर्यावरण बिल्कुल ठीक रहता है। वृक्षों में सदैव फल लगे रहने से आसपास चिड़ियों की चहचहाहट और कौवों की कांव-कांव होती रहती है। इससे गांव का माहौल मधुर और जीवंत बना रहता है। जो गांव प्रकृति की गोद में बसा हो, वहां सुमंगल ही सुमंगल होता है। गांव से व्याधि दूर रहती है, और बच्चे पढ़- लिखकर गांव का नाम गुंजाते रहते हैं।”
धरहरा गांव में बेटियों के प्रति बड़ा आकर्षण है। चाहे अमीर हो या गरीब सभी अपनी बेटियों को ऊंची शिक्षा दिलाते हैं। ग्रामीण
श्री महेन्द्र दास आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं और खुद पढ़े-लिखे नहीं हैं। किंतु उन्होंने भी अपनी बेटी बबली को 10वीं तक की शिक्षा दिलाई है। उसके नाम से एक पेड़ भी लगवाया है। वे कहते हैं, “इस गांव में बेटा और बेटी के नाम पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता है।” इन दिनों गांव में श्रीमती नीलम सिंह की बड़ी चर्चा होती है। इसकी वजह है लड़कियों के प्रति उनका अथाह प्रेम। उनके तीन लड़के और एक लड़की है। लड़की मीनाक्षी बी.ए.में पढ़ती है। मीनाक्षी के नाम पर उन्होंने एक एकड़ जमीन पर पेड़ लगवाए हैं। किंतु इतने में उनका मन नहीं भरा और पिछले साल राह चलते उन्हें एक झाड़ी के पास नवजात बच्ची मिल गई। वह उस बच्ची को उठाकर घर ले आईं और बाद में विधिवत् गोद ले लिया और उसका नाम रखा अंशु राज। अब उन्होंने अंशु राज के नाम से भी एक एकड़ जमीन पर फलदार पेड़ लगवाए हैं। नीलम सिंह कहती हैं, “धरहरा में प्रकृति और लड़की की प्रधानता है। गांववासी जितने प्रकृति- पूजक हैं, उतने ही लड़की-पूजक हैं। हम लोग प्रकृति की पूजा इसलिए करते हैं कि इसके बिना जीवन संभव नहीं और लड़की की पूजा इसलिए करते हैं कि यह शक्ति की प्रतीक है।”
प्रकृति-पूजक इस गांव में प्रकृति के कई रूप साक्षात् देखने को मिलते हैं। गांव के बीचोंबीच बहुत पुराना पीपल का एक पेड़ है। इस पर बड़े चमगादड़ हजारों की संख्या में रहते हैं। ग्रामीण श्री शंकर सिंह बताते हैं कि वर्षों से यह पेड़ चमगादड़ों का डेरा है। इतनी बड़ी संख्या में एक जगह शायद ही और कहीं चमगादड़ रहते हों। इस कारण मीडिया की सुर्खियों में भी यह पेड़ रहता है। एक अन्य सज्जन श्री चन्द्रकिशोर सिंह ने बताया कि ग्रामीणों की मान्यता है कि चमगादड़ों के रहने से गांव में हैजा जैसी बीमारी नहीं होती है। चमगादड़ इस बात के भी सबूत हैं कि गांव में इतने फलदार वृक्ष हैं कि उनमें से किसी न किसी में सब दिन फल लगे रहते हैं जिनके भरोसे ही ये चमगादड़ पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं। धरहरा में केंचुआ खाद का भी चलन खूब बढ़ रहा है। ग्रामीण धीरे-धीरे रासायनिक खाद छोड़ रहे हैं, और केंचुआ खाद ज्यादा इस्तेमाल करने लगे हैं। गांव में ही कई किसान केंचुआ खाद तैयार करते हैं। गांव में एक ठाकुरबाड़ी भी है, जिसके परिसर में भव्य शिवालय, पार्वती जी का मंदिर और ठाकुर जी का सुंदर दरबार है। ठाकुरबाड़ी के पास लगभग पांच एकड़ जमीन है। जिन ग्रामीणों के पास बेटी के जन्म पर पेड़ लगाने के लिए जमीन नहीं है, वे ठाकुरबाड़ी की जमीन पर पेड़ लगाते हैं। ऐसे ही पेड़ों की आय से ठाकुरबाड़ी का खर्च पूरा होता है। ठाकुरबाड़ी की सेवा के लिए स्थाई पुजारी रखे गए हैं, जबकि अन्य ग्रामीण मंदिरों में शायद ही पुजारी रखे जाते हैं। गांव में प्राथमिक से उच्चतर माध्यमिक तक विद्यालय, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, पशु चिकित्सालय भी हैं। प्राय: हर घर में शौचालय की भी व्यवस्था है। इन सब विशेषताओं को देखते हुए ही धरहरा को “आदर्श गांव” कहा जाने लगा है। भागलपुर जिला भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और भाजपा की बिहार इकाई की कार्यकारिणी के सदस्य श्री अभय वर्मन कहते हैं,”धरहरा के लोग जो कार्य कर रहे हैं, उसका अनुकरण अन्य गांव के लोग भी करें, तो कन्या भ्रूण हत्या जैसा घिनौना कृत्य रुक जाएगा और आज की सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण प्रदूषण पर भी नियंत्रण पाया जा सकता है।”थ्
(छाया: अरविन्द कुमार सिंह एवं ललन कुमार राय)
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