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Feb 4, 2012, 12:00 am IST
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आवरण कथा

दिंनाक: 04 Feb 2012 16:35:34

देश के लिए नहीं, पैसे के लिए खेल

क्रिकेट पर बवाल

*कन्हैया लाल चतुर्वेदी

खेल में हार-जीत तो होती रहती है,मैदान में आपने डटकर संघर्ष किया, फिर भी हार गये, तो उसे कोई अन्यथा नहीं लेता। लेकिन पिछले कुछ समय के दौरान जिस तरह से भारत की किक्रेट टीम विदेशी धरती पर हारी है वह न केवल शर्मनाक है, बल्कि भारतीय क्रिकेट कन्ट्रोल बोर्ड, धन बटोरने की इसकी मंशा तथा खुद किक्रेट के खेल पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है ।

बीते साल जून-जुलाई में इंग्लैण्ड के भ्रमण पर गई हमारी क्रिकेट टीम की ऐसी दुर्गति हुई कि हमने दौरे का प्रत्येक मुकाबला बुरी तरह से हारा। आस्ट्रेलिया जाने से पहले कहा जा रहा था कि इंग्लैण्ड की हार एक बुरे सपने की तरह थी, जिसे भुलाया जा चुका है और आस्ट्रेलिया की “लड़खड़ाती टीम” को हम निश्चित फतह करेंगे। हुआ इसके विपरीत। कंगारुओं ने हमारी गेंदबाजी तथा बल्लेबाजी, दोनों के बखिये उधेड़ दिये। हमारे गंेदबाजों की उदारता से रिकी पोंटिंग तथा माइक हसी का डूबता कैरियर किनारे पर आ लगा तथा बल्लेबाजों के लचर प्रदर्शन के कारण आस्ट्रेलिया के मामूली और औसत स्तर के गेंदबाज भी खतरनाक बन गये। ऐसी बुरी गत तो भारत की स्वतंत्रता मिलने के तुरन्त बाद भी नहीं हुई, जब लाला अमरनाथ के नेतृत्व में हमारी क्रिकेट टीम पहली बार आस्ट्रेलिया गई थी। तब डॉन ब्रेडमेन, नील हार्वे, लिण्डवाल और मिलर जैसे दिग्गज और महान् खिलाड़ी आस्ट्रेलिया की ओर से खेल रहे थे, जब कि भारत के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज विजय मर्चेंट खराब सेहत के कारण दौरे पर जा ही नहीं पाये थे।

देश की किरकिरी

उस पहले दौरे में विजय हजारे ने एक ही टेस्ट की दोनों पारियों में शतक ठोके और वीनू मांकड ने फिरकी गेंदों से ब्रेडमेन तक को चकरा दिया। दौरे के बाद ब्रेडमेन ने मांकड को लिखित संदेश भेजा, जिसमें एक ही पंक्ति लिखी थी- “वेल बोल्ड वीनू (तुमने शानदार गंेदबाजी की वीनू)”। लेकिन आठ महीने पहले तक टेस्ट क्रिकेट की प्रथम पायदान पर जमी हुई वर्तमान भारतीय टीम ने बुरी तरह आत्मसमर्पण कर देश की खूब किरकिरी कराई है। लगा ही नहीं कि हमारे खिलाड़ी देश की प्रतिष्ठा के लिये खेल रहे हैं। पूरी टीम खेमों में बंटी हुई दिख रही थी, बल्लेबाज मात्र खानापूर्ति कर रहे थे और गेंदबाजों को समझ में ही नहीं आ रहा था कि चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में किस दिशा और लम्बाई की गेंद फेंकी जायें। सबसे दयनीय स्थिति कप्तान धोनी की रही जो न तो टीम इंडिया को एकजुट रख पाये, न मैदान में सही निर्णय ले पाये और न ही अपने खेल से कोई उत्साह पैदा कर पाये।

भारत में क्रिकेट बाकी सब खेलों को लील रहा है। किक्रेट कंट्रोल बोर्ड, संचार  माध्यमों और धनपतियों की दुरभिसन्धि ने हॉकी, फुटबाल, कबड्डी, बालीबाल, बॉस्केटबाल आदि खेलों को रसातल में पहुंचा दिया है। बीसीसीआई विश्व के सर्वाधिक धनी खेल संगठनों में से एक है तथा अरबों रुपयों की दौलत इसने एकत्रित कर रखी है। कई बड़े राजनेता विभिन्न स्तरों पर क्रिकेट संगठनों से जुड़े हुए हैं। राजनीतिक और पैसे की ताकत पर मीडिया को प्रभावित कर क्रिकेट को भारत का प्रमुख खेल जैसा बना दिया गया है। अन्य खेलों के अन्तरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों को शायद ही कोई जानता-पहचानता होगा, लेकिन क्रिकेट के राज्य स्तर के खिलाड़ी का भी दबदबा होता है। उसे खेल की एवज में पैसा भी खूब मिलता है और नाम व पैसे के कारण नौजवान क्रिकेट की ओर ही आकर्षित होते हैं।

पैसे की बरसात

रही-सही कसर “इंडियन प्रीमियर लीग” के क्रिकेट “तमाशे” ने पूरी कर दी है। बीस ओवरों की मारामार क्रिकेट फ्रीस्टाइल कुश्तियों के तमाशों की तरह है जिसका पदार्पण “रिंग का किंग” के रूप में भारत में भी हो चुका है। भारी शोर-गुल, चमक-दमक और भौंडे अंग-प्रदर्शन के बीच दो पहलवान रिंग में उस कुश्ती के दांव-पेंच दिखाते हैं जिसका निर्णय पहले ही से तय होता है। इस नूरा-कुश्ती को देखने के लिये दर्शकों की भीड़ जुटती है। आम दर्शकों की जेबें खाली होती हैं और पहलवानों, आयोजकों की जेबें भरती जाती हैं। आईपीएल में भी क्रिकेट खिलाड़ियों पर पैसे की बरसात होती है। जब तमाशा करने से ही “पांचों अंगुलियां घी” में हो जाती हैं तो गम्भीर टेस्ट क्रिकेट खेलने की मानसिकता भी नहीं रहती, इच्छा भी नहीं रहती और क्षमता भी नहीं बचती।

टेस्ट क्रिकेट में भारत की दुर्दशा के प्रमुख कारण इंडियन प्रीमियर लीग, उससे मिलने वाला अकूत पैसा तथा विज्ञापनबाजी ही हैं। खिलाड़ी जैसे ही कुछ नाम कमाता है विज्ञापन कंपनियां उसे घेर लेती हैं, बैठे-बिठाये करोड़ों की आमदनी होने लगती है, परिणाम स्वरूप “खेल” के स्थान पर अपनी प्रसिद्धि को भुना अधिक से अधिक पैसा कमाकर भविष्य सुरक्षित करना प्राथमिकता बन जाती है। समाचार-पत्र और टीवी-चैनल भी मामूली से प्रदर्शन पर खिलाड़ी को आसमान में चढ़ा देते हैं और आकाश में गया व्यक्ति पुन: जमीन पर आने में घबराता है। परिणाम यह होता है कि वह त्रिशंकु बन जाता है। हमारे तेज गेंदबाज इशांत शर्मा के साथ यही हुआ। बारहवीं कक्षा में पढ़ते हुए उन्होंने टेस्ट क्रिकेट में दस्तक दी। लम्बा कद होने के कारण प्रारंभिक दौर में उनकी गेंदबाजी में धार थी। उन्हंे ठीक से विकसित किया जाता तो वे भारतीय टीम के मारक गेंदबाज बन सकते थे, लेकिन मीडिया ने उनकी प्रशंसा के पुल बांधने शुरू कर दिये। उनकी तुलना आस्ट्रेलिया के खतरनाक तेज गेंदबाज ग्लेन मेकग्रा से की जाने लगी। बेचारे इशांत ग्लेन मेकग्रा तो बन ही नहीं पाये, बल्कि इस चक्कर में इशांत शर्मा भी नहीं रह पाए।

समय और शक्ति का अपव्यय

देश में यह मानने वालों की संख्या भी कम नहीं है कि पांच दिनों की टेस्ट क्रिकेट समय और शक्ति का पूरा अपव्यय है। जब ब्रिटिश साम्राज्य का परचम आधी दुनिया पर लहरा रहा था, उस समय इंग्लैण्ड के धन-कुबेरों के पास कोई काम नहीं बचा था, इसलिये वे और उनका परिवार अपना समय क्रिकेट खेलने और देखने में बिताते थे। इंग्लैण्ड का मौसम भी ऐसा है कि सूर्यदेव वहां कम ही दिखाई पड़ते हैं। मई से अगस्त तक के चार महीनों में घनी वर्षा के बीच सूरज निकलता है। क्रिकेट मैच देखते हुए खुले मैदान में दिनभर धूप संेकने का आनन्द भी लिया जा सकता है। वर्षा आई तो छतरी है ही। तीन और पांच दिनों के इस उबाऊ खेल को उन देशों ने भी अपना लिया जो अंग्रेजों के गुलाम थे। आज भी वही डेढ़ दर्जन देश क्रिकेट खेलते हैं जो कभी न कभी अंग्रेजों के अधीन रहे थे।

ऐसा खेल इस समय भारत का प्रमुख खेल बन गया है, साथ ही उसका पूरा व्यवसायीकरण भी कर दिया गया है। क्रिकेट खिलाड़ी “भगवान” बन गये हैं। इसके बाद भी भारत से बाहर भारतीय टीम की जो दुर्दशा हो रही है वह एक प्रकार की कड़वाहट उत्पन्न करती है तथा देश की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाती है। भारतीय जनता का जो समय, शक्ति और पैसा इस क्रिकेट में बर्बाद हो रहा है उसका उपयोग अन्य खेलों के विकास में क्यों नही किया जा सकता? जो खेल वास्तव में ही व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक क्षमता का विकास करने में सक्षम हैं और जो जन सामान्य के लिये अत्यंत सुलभ हैं, ऐसे खेलों को बढ़ावा क्यों नहीं दिया जाता? और देश की पूरी खेल ऊर्जा क्रिकेट में लगा देने के बावजूद हमारी उपलब्धि क्या है? सन् 1932 में हमने टेस्ट-क्रिकेट में कदम रखा। इस अस्सी साल के इतिहास में भारत ने दो बार एक दिवसीय विश्व-कप जीता और हम एक बार मारामार क्रिकेट (टी.-20) के विश्व-विजेता बने। कुछ समय के लिये टेस्ट मैचों में भी भारतीय टीम  पहले नम्बर की टीम बन गई। बस यही हमारी उपलब्धि है।

तिजोरी भरने में लगा है बोर्ड

हमारा दुनिया की पहले क्रमांक की टेस्ट-टीम होना भी मात्र आंकड़ों में ही था। इन आंकड़ों की कलई भी इंग्लैण्ड तथा आस्ट्रेलिया में सफाये के बाद पूरी तरह खुल गई। इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो गया कि किक्रेट का झण्डा उठा कर घूमने वाले क्रिकेट बोर्ड की रुचि अपनी तिजोरी भरने में है, भविष्य की उसे कोई चिन्ता नहीं है। खिलाड़ियों को सिर्फ नये कीर्तिमान बनाने और पैसा कमाने से मतलब है, देश की इज्जत से नहीं है। उधर भविष्य की कोई सुविचारित योजना भी क्रिकेट प्रशासकों के पास नहीं है। फटे पर पैबन्द लगाने में ही उनका विश्वास है। क्रिकेट बोर्ड की नीतियां घड़ी के पेण्डुलम की तरह हैं जो एक सिरे से दूसरे सिरे तक घूमती रहती हैं। लम्बे समय तक हमने तेज गेंदबाजी पर ध्यान नहीं दिया, इसलिये प्रारंभिक दौर के मोहम्मद निसार तथा अमर सिंह के बाद एक अच्छा तेज गेंदबाज हमें पचास साल बाद कपिल देव के रूप में मिल पाया। तब तक हम फिरकी गेंदबाजों के भरोसे ही चलते रहे। अब हमने तेज गेंदबाजी पर जोर देना शुरू किया है तो स्पिन गंेदबाज उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं। विश्वस्तरीय तेज गंेदबाज भी एक सौ बीस करोड़ की आबादी वाला यह देश पैदा नहीं कर पा रहा है। इशांत शर्मा, जहीर खान जैसे तेज गेंदबाजों के बीच तो इंग्लैण्ड-आस्ट्रेलिया के बल्लेबाज छोटे से बड़े होते हैं। तेज और सनसनाती गंेदों के बीच ही वे अपनी बल्लेबाजी पर धार चढ़ाते हैं। इसलिए भारत के उक्त तेज गेंदबाज उनमें घबराहट पैदा नहीं कर सकते।

दूर दृष्टि का अभाव

इंग्लैण्ड, आस्ट्रेलिया, वेस्टइण्डीज, दक्षिण अफ्रीका की क्रिकेट टीमों की ताकत तेज गंेदबाजी ही है। उसी प्रकार एशियाई देशों भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बंगलादेश आदि की ताकत स्पिन गेंदबाजी है। अब तक हमने जो सफलताएं प्राप्त की हैं उनका आधार फिरकी गेंदबाजी ही रही है। भारतीय क्रिकेट के मठाधीशों को यह समझ में नहीं आता कि तेज गेंदबाजों के भरोसे कंगारुओं को मात नहीं दी जा सकती, जब तक कि हमारे तेज गेंदबाज उत्कृष्ट कोटि के न हों। आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज घबराते हैं ऑफ-स्पिन तथा बांये हाथ के फिरकी गेंदबाजों से, इसलिये भारत को उन्हें स्पिन के जाल में उलझाने की रणनीति बनानी चाहिये थी, लेकिन इसके एकदम विपरीत पर्थ में खेले गये टेस्ट में तो हमने चार तेज गेंदबाज मैदान में उतार दिये। यह निर्णय इतना हास्यास्पद था कि इसने पारी से हारने का हमारा रास्ता साफ कर दिया। हमें दो अच्छे तेज गेंदबाज अवश्य चाहिये, प्रत्येक टीम को चाहिये, लेकिन हमारे मारक शस्त्र फिरकी गंेदबाज ही हो सकते हैं। इसलिये दो या तीन अच्छे स्तर के स्पिन गेंदबाज टीम में होने ही चाहिये। त्रासदी यह है कि भारत में न तो अच्छे तेज गेंदबाज पनप रहे हैं और चन्द्रशेखर, बेदी, मांकड, सुभाष गुप्ते या अनिल कुम्बले की कोटि के स्पिन गेंदबाज भी आगे नहीं आ रहे हैं।

दूरदृष्टि का अभाव, लम्बी अवधि की योजना का न होना तथा तात्कालिक उपाय का स्वभाव क्रिकेट में हमारी दुर्गति के प्रमुख कारण हैं। आईपीएल ने भी खेल की गम्भीरता को भंग कर दिया है। क्रिकेट के हमारे हुक्मरानों को चाहिये कि या तो वे टेस्ट मैचों में न खेलने का निर्णय कर लें और यदि पांच दिनों की क्रिकेट खेलते रहना तय करते हैं तो देश की प्रतिष्ठा पर आंच न आने दें। अन्य खेलों का भक्षण कर पहले ही क्रिकेट देश का काफी बड़ा नुकसान कर चुकी है। पिछले दिनों इंग्लैण्ड तथा आस्ट्रेलिया में हुई दुर्गति एक सामयिक चेतावनी है कि कम से कम अब तो क्रिकेट का पागलपन हटा कर हमें अन्य खेलों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिये।द

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