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भारत कैसे बना रहे भारत-3

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Feb 26, 2012, 12:00 am IST
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मंथन

दिंनाक: 26 Feb 2012 19:34:12

मंथन

देवेन्द्र स्वरूप

नमक सत्याग्रह से घबरायी ब्रिटिश सरकार

5 मार्च, 1931 को हस्ताक्षरित गांधी- इर्विन समझौता गांधी जी के नेतृत्व में प्रारंभ हुए स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में निर्णायक मोड़ जैसा महत्वपूर्ण स्थान रखता है। लाहौर अधिवेशन द्वारा अंगीकृत पूर्ण स्वराज्य के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 12 मार्च, 1930 को डांडी मार्च के साथ आरंभ हुआ नमक सत्याग्रह तब तक का विशालतम शांतिपूर्ण अहिंसक सत्याग्रह था। पूरा देश इस आंदोलन में सम्मिलित था। एक लाख से अधिक सत्याग्रही जेलों में पहुंच चुके थे। ब्रिटिश सरकार भारतीय राष्ट्रवाद के इस विराट रूप को देखकर स्तंभित रह गयी थी। आंदोलन का एक मुख्य नारा विधान परिषदों एवं गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार था। जून 1930 में साईमन कमीशन की रिपोर्ट पाने के बाद ब्रिटिश सरकार गोलमेज सम्मेलन की तैयारियों को लगभग पूरा कर चुकी थी। कांग्रेस के सहभाग के बिना गोलमेज सम्मेलन का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा यह ब्रिटिश शासकों को स्पष्ट दिखायी दे रहा था। अत: 2 जुलाई 1930 को भारत सचिव ने वायसराय को तार भेजकर आंदोलन के स्वरूप और व्याप की सही जानकारी भेजने को कहा। इस तार के उत्तर में वायसराय की ओर से 14 जुलाई 1930 से हर पखवाड़े सत्याग्रह के बारे में विस्तृत रिपोर्ट भेजी गयी।

ऐसी कल्पना नहीं थी

14 जुलाई की रिपोर्ट में वायसराय ने स्वीकार किया कि “इस आंदोलन को इतना व्यापक जन समर्थन प्राप्त होगा इसकी कल्पना ब्रिटिश सरकार तो क्या स्वयं उसके नेताओं ने भी नहीं की थी। भारत के शिक्षित वर्गों में अधिकतम राजनीतिक स्वतंत्रता पाने की तीव्र आकांक्षा और राष्ट्रवाद का जाग्रत भाव ही इस व्यापक सफलता के लिए जिम्मेदार है। भले ही अशिक्षित जनसमूह संविधान रचना की समझ न रखता हो, किंतु स्वाधीनता प्राप्ति के व्यापक प्रचार से वह भी प्रभावित हुआ है।”

वायसराय आगे लिखते हैं कि, “यह सविनय अवज्ञा आंदोलन मूलत: हिन्दू आंदोलन है और शहरी, शिक्षित व मध्यम वर्ग ही उसका मुख्य जनाधार है। कुल मिलाकर मुसलमान उससे अलग रहे हैं। सीमा प्रांत के अलावा और कहीं उनके सम्मिलित होने की संभावना नहीं है। साईमन रिपोर्ट के कारण दोनों समुदायों के बीच खायी कम होने के बजाए चौड़ी हुई है।”

“सविनय अवज्ञा आंदोलन को युवा वर्ग का बहुत तगड़ा समर्थन मिल रहा है। इस कांग्रेसी आंदोलन का एक अनपेक्षित पहलू यह है कि महिलाएं बहुत उत्साह और आग्रह के साथ उसमें भाग ले रही हैं। अधिकांश महिलाएं अच्छे परिवारों से आती हैं। उनके कूद पड़ने से आंदोलन को गति मिली है और पुरुषों में मैदान में जमे रहने का उत्साह भर गया है।”

वायसराय की रिपोर्ट कहती है, “एक और भी विशेषता है जिसकी पूर्व कल्पना नहीं थी। वह है व्यवसायी एवं व्यापारी वर्ग की ओर से, विशेषकर बम्बई में प्राप्त हो रहा समर्थन। इसके पीछे गांधी के व्यक्तित्व का प्रभाव तो मुख्य कारण है ही, साथ ही, भारत की आर्थिक और वित्तीय नीतियों के दिशा-निर्धारण को अपने हाथ में लेने की आकांक्षा भी है।” वायसराय ने यह भी माना कि प्रत्येक प्रांत कमोवेश मात्रा में आंदोलन से प्रभावित है, बम्बई की स्थिति सर्वाधिक खराब है। बम्बई शहर में समूचे मध्यम वर्ग पर आंदोलन का उन्माद सवार है। गुजरात के प्रत्येक जिले में आंदोलन फैल गया है। निश्चय ही वहां गांधी का प्रभाव बहुत अधिक है और शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश जनसंख्या आंदोलन को सक्रिय समर्थन दे रही है।…हमारी सरकार एक ओर आंदोलन से लड़ रही है दूसरी ओर संवैधानिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए गोलमेज सम्मेलन को सफल बनाने के प्रयास में लगी है। मुसलमान गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने को उत्सुक हैं, पर अभी तक यह नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस गोलमेज सम्मेलन में आएगी या नहीं।”

कांग्रेसी नियंत्रण

29 अगस्त, 1930 को प्रेषित चौथी रिपोर्ट में गुप्तचर विभाग के प्रमुख पेट्री के शब्दों में बम्बई का हाल बताया गया है, “हर प्रकार के कार्यकलापों पर कांग्रेस ने अपना पूरा नियंत्रण स्थापित कर लिया है। जिस किसी चीज पर वह रोक लगा देती है वह नहीं ही हो सकता, उनकी निषेधाज्ञा का पूरी तरह पालन होता है, बम्बई का कार्य व्यापार ठहर जाता है। स्थिति में सुधार के कोई लक्षण दिखायी नहीं दे रहे। इस गतिरोध से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। व्यापारिक फर्मो की भारी हानि हुई है, उनमें से कई तो दिवालिया हो गयी हैं…गुजराती वर्ग इस दिशा में बहुत आगे है जिसका कारण उन पर गांधी का गहरा प्रभाव है।”

14 सितम्बर, 1930 को पांचवीं रिपोर्ट कहती है “बम्बई शहर में कांग्रेस अभी भी बड़ी ताकत है और गुजरात में जनसंख्या का बड़ा हिस्सा उसके पीछे खड़ा है। विदेशी वस्त्रों का आम बहिष्कार पूरी तरह लागू है और जब तक यह लागू रहेगा कांग्रेस की ताकत और प्रभाव बने रहेंगे। हमें आशा करनी चाहिए कि गोलमेज सम्मेलन के समय वे इंग्लैंड के जनमत को प्रभावित करने के उद्देश्य से अपने आंदोलन को और तेज करें।…संतोष की बात यह है कि कांग्रेस अभी तक सेना और पुलिस को प्रभावित नहीं कर पायी है।”

29 सितम्बर, 1930 को छठी रिपोर्ट में कहा गया है “आन्दोलन को चलते लगभग छह महीने हो गए। …सीमा प्रांत में बड़ी संख्या में मुसलमान सरकार का विरोध कर रहे हैं। पर यह होते भी कांग्रेस अन्य प्रांतों में मुसलमानों को अपने साथ नहीं ला पायी है। हिन्दुओं का मध्यम वर्ग पूरी तरह उसके साथ खड़ा है। सच यह है कि पिछले छह महीनों में सरकार को एक ऐसे विशाल और प्रबल आंदोलन से जूझना पड़ रहा है जिसकी सफलता से समूचे राजनीतिक और सामाजिक ताने-बाने को गंभीर खतरा पैदा हो जाएगा। प्रांतीय सरकारों के सहयोग से भारत सरकार इस आंदोलन को परास्त करने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा रही है।”

14 अक्तूबर, 1930 की सातवीं रिपोर्ट बताती है “हिन्दुओं में अभी भी यह भावना प्रबल है कि कांग्रेस अपनी कई भूलों और ज्यादतियों के बावजूद देश के व्यापक हितों के लिए संघर्ष कर रही है और यही कारण है कि इस आंदोलन को इतना अधिक और प्रबल समर्थन प्राप्त हुआ। इसी से स्पष्ट होता है कि कांग्रेस का अभी भी हिन्दुओं के मध्यम और व्यापारी वर्ग पर इतना प्रभाव क्यों है। हिन्दू व्यापारी कांग्रेस के आदेशों का उल्लंघन करेंगे इसका अभी कोई संकेत नहीं है। कांग्रेस का प्रभाव बना रहने के सत्य को झुठलाना भूल होगी।”

गांधी जी का प्रभाव

28 नवम्बर, 1930 को दसवीं रिपोर्ट में कहा गया है कि “नागपुर के दो चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस के अनुरोध पर 97 और 93 प्रतिशत मतदाताओं ने चुनाव का बहिष्कार किया। कई स्थानों पर हिन्दू मतदाताओं के बहुमत ने मतदान में भाग नहीं लिया। आबकारी राजस्व में भारी गिरावट से भी संकेत मिलता है कि आंदोलन में अभी बहुत शक्ति मौजूद है।”

वायसराय लार्ड इर्विन की ओर से भारत सचिव को भेजी गयी इन गोपनीय और अधिकृत रिपोर्टो के कुछ अंश यहां इस अभिप्राय से दिये गये हैं कि पाठक यह जान सकें कि गांधी जी का प्रभाव हिन्दू समाज पर कितना व्यापक और गहरा था। ब्रिटिश शासक उससे कितना अधिक भयभीत और चिंतित थे। वे इस प्रभाव को राष्ट्रवाद के जागरण के रूप में देखते थे और इस जागरण को कुंठित करने के लिए गोलमेज सम्मेलन जैसा चक्रव्यूह रच रहे थे। वे यह समझ गये थे कि कांग्रेस के सहभाग के बिना गोलमेज सम्मेलन का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। इसीलिए वायसराय की इन रिपोर्टों में कांग्रेस को 13 नवम्बर, 1930 से लंदन में आरंभ होने वाले पहले गोलमेज सम्मेलन में ले जाने के प्रयत्नों का भी विस्तृत वर्णन मिल जाता है।

ब्रिटिश कूटनीति की कार्यशैली को समझने के लिए खुले सम्मेलनों और वात्र्ताओं से अधिक पर्दे के पीछे व्यक्तिगत संबंधों की राजनीति को जानना ज्यादा उपयोगी है। वायसराय लार्ड इर्विन को एक बहुत ही उदार, धर्मनिष्ठ ईसाई, विनम्र और व्यवहार कुशल प्रशासक छवि मिल गयी है। गांधी जी उसकी इस छवि से बहुत प्रभावित थे। वे उसे बहुत प्रामाणिक और भारत हितैषी व्यक्ति मानते थे। इर्विन के मित्र इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर ग्रिमवुड मीयर्स के लिबरल नेता तेज बहादुर सप्रू और मोतीलाल नेहरू से घनिष्ठ संबंध थे। इर्विन ने इन संबंधों का लाभ उठाते हुए जुलाई 1930 में तेज बहादुर सप्रू और एम.आर.जयकर को यरवदा जेल में गांधी जी से भेंट करके कांग्रेस को गोलमेज सम्मेलन में लाने की कोशिश शुरू की। गांधी जी को निर्णय पर पहुंचाने के लिए नैनीताल जेल से मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू को भी यरवदा जेल ले जाया गया। सरदार वल्लभ भाई पटेल को भी बुला लिया गया। जवाहरलाल और सरदार पटेल के कड़े विरोध के कारण यह प्रयास विफल हो गया। गांधी जी ने गोलमेज सम्मेलन में जाने के लिए जो शर्ते प्रस्तुत कीं उन्हें मानने से वायसराय ने इनकार कर दिया। इस प्रकार कांग्रेस के सहभाग के बिना ही पहला गोलमेज सम्मेलन 19 जनवरी, 1931 को समाप्त हो गया। उसकी उपलब्धि मात्र इतनी रही कि विभिन्न धड़ों में बिखरा हुआ मुस्लिम नेतृत्व अपनी पृथकतावादी मांगों के साथ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पीछे एकजुट हो गया। सिख, एंग्लो इंडियन, भारतीय ईसाई, यूरोपीय उद्योगपति आदि छोटे- छोटे समूह अल्पसंख्यकवाद के नाम पर शक्तिशाली मुस्लिम पृथकतावाद के शिविर में खड़े हो गये, देश भर में गांव-गांव, मुहल्ले-मुहल्ले में बिखरे हुए गरीब, अशिक्षित और अबोध वंचित वर्गों के एकमात्र प्रवक्ता के रूप में डा.भीमराव अम्बेडकर को मान्यता दे दी गयी और छुआछूत व जाति भेद के आधार पर राष्ट्रवाद की आधारभूमि हिन्दू समाज को दो फांक करने की व्यूह रचना तैयार हो गयी। तीसरे, भारतीय नरेशों को संवैधानिक प्रक्रिया का अंग बनाने हेतु संघवाद या भारतीय संघ का सिद्धांत निरूपित किया गया।

उनकी कमजोरी का लाभ

प्रथम गोलमेज सम्मेलन के समापन दिवस 19 जनवरी, 1931 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैकडानाल्ड ने सम्मेलन के निष्कर्षों की सूत्रबद्ध घोषणा करके कांग्रेस को अगले गोलमेज सम्मेलन में आने का सार्वजनिक निमंत्रण दे दिया। पता नहीं क्यों तेज बहादुर सप्रू, एम.आर.जयकर और वी.एस.श्रीनिवास शास्त्री आदि लिबरल नेता इस गोलमेज सम्मेलन की कार्रवाई और ब्रिटिश प्रधानमंत्री मैकडानाल्ड द्वारा उद्घोषित निष्कर्षों से बहुत अधिक गद्गद् थे। उन्हें निकट भविष्य में भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य मिलने का विश्वास हो गया। ये लिबरल नेता बहुत बुद्धिमान, देशभक्त और प्रामाणिक व्यक्ति थे किंतु पता नहीं क्यों ब्रिटिश शासकों की न्यायप्रियता और लोकतांत्रिक सिद्धांतवाद पर उन्हें जरूरत से ज्यादा विश्वास था। ब्रिटिश शासक उनकी इस कमजोरी का पूरा लाभ उठाते थे। इर्विन ने इन्हीं लिबरल नेताओं को माध्यम बनाकर गांधी जी और कांग्रेस को गांधी-इर्विन वार्ता के जाल में फंसाया।

मैकडानाल्ड ने कांग्रेस को अगले सम्मेलन में आने का सार्वजनिक निमंत्रण दिया कि 24 जनवरी को इर्विन ने प्रतिबंधित कार्यसमिति के सदस्यों को रिहा करने की घोषणा की। 26 जनवरी की रात में 10.30 बजे गांधी जी को रिहा किया गया। 2 जनवरी को इलाहाबाद में कांग्रेस कार्यसमिति में गोलमेज सम्मेलन को राष्ट्रवाद विरोधी बताकर अगले सम्मेलन के बहिष्कार का प्रस्ताव तैयार कर लिया। पर लिबरल नेताओं ने लंदन से तार भेजा कि हमारे भारत वापस लौटने और हमारी बात को सुनने तक कोई प्रस्ताव सार्वजनिक न किया जाए। फलत: मृत्युशय्या पर पड़े मोतीलाल नेहरू के आग्रह पर उस प्रस्ताव को रोक लिया गया।द

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