सरोकार
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स्त्री और लोटा
यूं तो घर में बाबूजी के लोटे की ही अधिक चर्चा होती थी। उस लोटे से घर के सभी सदस्य डरते थे। घर का कोई भी अन्य सदस्य उसमें पानी नहीं पी सकता था। उनका प्यारा पोता ही क्यों न हो। दादी का भी अपना लोटा था। दरअसल हर सदस्य का अपना लोटा होता था। अधिकतर सेरहा। पर बाबूजी का लोटा दोसेरहा था, जिसमें दो सेर पानी या दूध आट जाए। लम्बी गर्दन थी। लोटा तो था। कई कामों में प्रयुक्त होने वाला पात्र। उसकी एक पहचान मेरे मन में अटक गई है। मेरे एक चाचा की पत्नी मर गई थीं। और चाचा जी को अपनी बेटी का कन्यादान करना था। कन्यादान के समय मंडप पर बैठने के पूर्व भी कई रस्में निभानी थीं, जिसमें पति-पत्नी का गांठ जोड़कर बैठना अनिवार्य होता है। चाचा के कंबल पर बैठते ही दादी ने आवाज लगाई-“मंगल! अपने बड़का भैया वाला लोटा ले आना।”
मंगल चाचा अपने बड़े भैया (मेरे बाबूजी) वाला लोटा ले आए। पंडित जी के पास रखा। मेरी दादी चिल्लाई-“पानी भरकर लाओ न। खाली लोटे से गांठ नहीं बंधती। इस लोटे को अभी एक स्त्री का स्थान लेना है। इसके साथ ही गांठ बंधेगी। स्त्री कभी खाली नहीं होती। हमेशा भरी होती है। इस लोटे को भी जल से भरो।”
जल से भर गया लोटा। उसमें सिंदूर का टीका भी लगाया गया। फिर चाचा जी के कंधे पर रखी चादर का एक खूंट लोटे के गले में लपेट कर बांध दिया गया। चाचा जी ने अपनी बाईं ओर मुड़ कर देखा। उनकी आंखें भर आईं। पत्नी की जगह लोटे को देखकर न जाने क्या सोच रहे हों।
मेरे किशोर मन में दो बातें उभरी। एक यह कि पत्नी के मरने के बाद पुरुष अधूरा ही रहता है। किसी यज्ञ में उसकी अकेले की भागीदारी नहीं हो सकती। दूसरी बात कि औरत हमेशा भरी-भरी ही रहती है। वह दूसरों पर प्रेम-स्नेह, वात्सल्य और आशीष लुटा कर भी खाली नहीं होती। इसलिए तो उसके स्थान पर लोटा रखने पर जबतक उसे जल से भरा नहीं गया, गांठ नहीं बंध सकती। जिस प्रकार घड़े में पानी भर जाने पर ही कलश कहलाता है, उसी प्रकार औरत में नेह भर जाने पर ही वह बहन, पत्नी और मां कहलाती है। चाचा जी की पत्नी के स्थान पर लोटा रखना मुझे अटपटा लगा था। पर दादी द्वारा भरे लोटे से स्त्री की तुलना मुझे सुखकर लगी।
एक बात और समझ में आई, दादी की सज्ञानता। दादी पढ़ी-लिखी नहीं थीं। उनके मुख से जब ऐसी बातें निकलतीं, मैं पूछती- “आपको किसने कहा?” दादी किसी न किसी कथावाचक या पंडित जी का नाम लेतीं। उन कथनों के भाव में डूब जातीं। उनके मन में औरत का बड़ा कद था, बड़ी भूमिका। किसी औरत को कष्ट देने वाले पुरुष को वे “पापी” “अधर्मी” कहकर ही पुकारती थीं। कहतीं-“उसने औरत की हाय ले ली। कभी भला नहीं होगा।”
सुन-सुन कर मेरा किशोर मन कसमसा उठता। स्त्री की तुलना भरे लोटे से सुनकर मैं कई दिनों तक कितने उप प्रश्न पूछती रही। मैंने पूछा-“दादी! आज यदि चाची जिन्दा रहतीं, अपनी जगह लोटे को देख वे बहुत दु:खी होती न।”
“क्यों! अब्बल तो उसके जीवित रहते, लोटे से उसके पति की गांठ बंधती ही नहीं। वह स्वयं जो सशरीर मौजूद होती। जल से भरा हुआ लोटा कलश हो जाता है, पवित्र। पंडित जी कहते हैं कि औरत भी पवित्र ही होती है। फिर कलश बनना, पूजा के काम आना भला किसे न भाए।”
दादी कई उदाहरण देकर स्त्री की स्थिति समझाती थीं। उनके मन में स्त्री, पुरुष से बड़ी होती थी। मेरी शादी तय हुई। दादी ही कन्यादान करने वाली थीं। मैंने पूछा-“दादी! इसबार तो आपकी गांठ भी लोटे से बंधेगी?” दादाजी की मृत्यु हो चुकी थी। प्रश्न निकलने के बाद मन में शक उत्पन्न हुआ-“कहीं दादी को बुरा न लग जाए।”
दादी हंसी, बोलीं-“नहीं। पंडित जी कहते हैं औरत अपने आप में पूर्ण होती है। वह विधवा ही क्यों न हो। इसलिए उसकी गांठ नहीं बंधेगी। लोटे से तो नहीं ही। भरा लोटा औरत होती है, पुरुष नहीं।”
दादी ने मेरा कन्यादान किया। मंडप पर बैठे-बैठे पंडित जी को भी विधि-विधान स्मरण दिलातीं रहीं। उनमें अंतनिर्हित भाव भी। पंडित जी के सामने भी भरा लोटा रखा था। दादी पूछ ही बैठीं-“पंडित जी, जल से भरे लोटे को रखे बिना कोई पवित्र काम नहीं संपन्न होता, आखिर क्यों?”
पंडित जी बोले-“आखिर पूजा-अर्चना में जल की आवश्यकता तो होती ही है न! इसलिए लोटे में जल भरकर रखा जाता है।”
दादी ने पंडित जी को स्मरण दिलाया-“यह तो ठीक है। पर लोटा, पत्नी का स्थान भी ले लेता है। इसलिए मेरी समझ से जिस प्रकार लोटे के बिना कोई पवित्र काम पूरा नहीं हो सकता, उसी प्रकार स्त्री के बिना भी नहीं। हर घर में, हर पुरुष के हाथ में एक लोटा होता है, उसी प्रकार संगसाथ में एक स्त्री भी। वह उसकी मां, बहन, पत्नी या पुत्री ही क्यों न हो। स्त्री के बिना वह नहीं रह सकता।”
पंडित जी मुस्कराए। दादी के दिल से निकले भाव और भाषा से चकित थे। बोले-“यह तो दोनों ओर के लिए है। स्त्री को जैसे पुरुष का संगसाथ चाहिए, वैसे ही पुरुष को स्त्री का। दोनों एक-दूसरे की जरूरत हैं। ईश्वर ने ही ऐसा विधान बना दिया है। अभी ही देखिए। आपके आंगन में बने मंडप पर स्त्री-पुरुष की एक नई जोड़ी बन रही है। दोनों एक-दूसरे की जरूरत हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा ही है।
दादी द्वारा पंडित जी से वार्तालाप के बीच हमारी कन्यादान की रस्म भी पूर्ण हो गयी थी। पंडित जी ने कहा-“अब आप दोनों दादी को प्रणाम कर आशीष लीजिए।” हम दोनों दादी के पांव पर एक साथ झुके। दादी ने दोनों के सिर पर हाथ रखकर कहा “युग-युग जीओ।” “यह जोड़ी अमर हो जाए। शिव-पार्वती की जोड़ी बनी रहे।”
पर मुझे ससुराल के लिए विदा करती हुई दादी ने कान में कहा था-“तुम अपने पति के बराबर नहीं हो। बराबरी के लिए कभी हठ मत करना। तुम उससे बड़ी हो। बड़ा होने के लिए बहुत सहना पड़ता है। तभी तो घर संसार तुम्हारा होगा। बड़े होकर देना भी पड़ता है। सदा देती रहना। तुम्हारा भण्डार कभी खाली न हो। घरभरनी तुम्हीं कहलाओगी।”
मैंने धीरे से कहा-“लोटा जो हूं मैं। जल से भरा लोटा। है न दादी।”
यह सुनकर दादी की आखें भर आईं। वे मुझे गले से लगाकर बोलीं-“लोटा बनकर ही रहना। भरी-भरी रहना। औरत रीतती नहीं, तभी तो लक्ष्मी कहलाती है।”
मेरे वैवाहिक जीवन के भी बावन वसंत बीत गए। कभी-कभी पतझड़ भी आए। दादी की सीख मेरी संगिनी बन गई है। भरा लोटा बने रहने में कभी-कभी खीझ भी होती है, पर आनंद अधिक आता है। देते रहने का आनंद। पुरुष से बड़ी होने का आनंद। उसे खिला कर स्वयं अघा जाने का आनंद। पुरुष का संबल बनने का सुख। किसी भी शास्त्र-पुराण में स्त्री की तुलना लोटे से नहीं की गई है। यह तो दादी द्वारा दी गई सीख थी, जो मेरे मन पर छाई रही, व्यवहार को संचालित करती रही। स्वयं दादी बनकर पोतियों को देती रहती हूं, लोटा बने रहने की सीख। देते रहने, रीतते-रीतते भरते रहने की सीख।द
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