सत्ता की लालसा
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आजमगढ़ के रास्ते
सत्ता की लालसा
थ् उत्तर प्रदेश चुनाव में कानून मंत्री का गैरकानूनी आचरण
थ् 10 जनपथ की चुप्पी जता गई इससे सहमति
थ् जिहादी आतंकवादियों से प्यार, जांबाज शहीदों को दुत्कार
थ् चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर खड़े हुए सवालिया निशान
द कमलेश सिंह
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मतदाताओं का फैसला तो 6 मार्च को ही पता चलेगा, लेकिन इस बार कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने आदर्श चुनाव आचार संहिता और लोकतांत्रिक मर्यादा का जैसा मखौल उड़ाया, वह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को शर्मसार कर गया। कभी दिल्ली पुलिस के इन्सपेक्टर की शहादत को शर्मिंदा करते हुए सोनिया गांधी के कथित आंसुओं पर वोट मांगे गये तो कभी सामाजिक सौहार्द को दांव पर लगा कर मजहबी आरक्षण के नाम पर। हालांकि कांग्रेस द्वारा संवैधानिक संस्थाओं के अवमूल्यन और अवमानना का इतिहास पुराना है, पर इस बार जिस तरह देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने ही आदर्श चुनाव आचार संहिता की धज्जियां उड़ाते हुए चुनाव आयोग के अधिकार को खुलेआम चुनौती दे डाली, उसकी मिसाल मुश्किल से ही मिलेगी। एक बार फिर वोट बटोरने के लालच में खुर्शीद ने आजमगढ़ के जरिए वोट के लिए मुस्लिमों को फुसलाने और समाज को बांटने की अपनी कांग्रेसी मंशा जाहिर करके जता दिया कि मौके-बेमौके कांग्रेसी नेता आजमगढ़ को भुनाने की अपनी ओछी मानसिकता पर चलने का अपना नेहरू-सिद्ध अधिकार आजमाते रहेंगे।
गैर कानूनी तेवर
बेशक फजीहत बढ़ती देख कांग्रेस और सरकार के इशारे पर खुर्शीद ने आखिरकार अपने आचरण के लिए खेद जताते हुए चुनाव आयोग को पत्र लिख दिया, लेकिन तब तक आदर्श चुनाव आचार संहिता और चुनाव आयोग की शुचिता को पलीता लगा कर चुनावी रोटियां सेंकने की कवायद पूरी की जा चुकी थी। 13 फरवरी को देर रात चुनाव आयोग को भेजे पत्र में खुर्शीद ने अल्पसंख्यक आरक्षण संबंधी अपने बयान से उपजे जिस विवाद को “दुर्भाग्यपूर्ण” मानते हुए भविष्य में पुनरावृत्ति न होने देने की प्रतिबद्धता जतायी है, 10 फरवरी तक उसी की खातिर वह “फांसी पर चढ़ने को तैयार” होने सरीखे भड़काऊ भाषण अपनी पत्नी लुईस के चुनाव क्षेत्र में दे रहे थे।
देश के कानून मंत्री के ये गैर कानूनी तेवर तो तब थे, जब 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण में साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण को दोगुना करने के उनके पिछले भाषण को आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन मानते हुए चुनाव आयोग उनकी निंदा कर चुका था। यह सही है कि चुनाव आयोग के पास निरंकुश राजनेताओं की लगाम कसने के लिए अपेक्षित अधिकार नहीं हैं, पर आदर्श चुनाव आचार संहिता की शुचिता पर न सिर्फ राजनीतिक सहमति है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय भी इस पर मुहर लगा चुका है।
चुनाव आयोग द्वारा केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद के आचरण की शिकायत राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल से किये जाने और राष्ट्रपति द्वारा शिकायती पत्र उचित कार्रवाई के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भेज दिये जाने के बाद भले ही कांग्रेस ने सुनियोजित रणनीति के तहत अपने महासचिव जनार्दन द्विवेदी के जरिये सभी कांग्रेसजनों को कानून और सार्वजनिक जीवन की मर्यादा के दायरे में आचरण की नसीहत दिलवायी हो, पर दूसरे महासचिव दिग्विजय सिंह के साथ-साथ प्रियंका गांधी-वाड्रा द्वारा उनके समर्थन से साफ है कि पार्टी और सरकार ने इस मुद्दे पर दोहरी रणनीति से अधिकाधिक चुनावी लाभ उठाने की कोशिश की।
घोषणा में देरी क्यों?
वैसे अगर पूरे घटनाक्रम को बारीकी से देखें तो सब कुछ कांग्रेस की अल्पसंख्यक मतों के साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण की सुनियोजित रणनीति के अनुरूप खेला गया नाटक नजर आता है, जिसमें जाने-अनजाने चुनाव आयोग भी इस्तेमाल हो गया। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा निश्चय ही आयोग का विशेषाधिकार है, पर इस तथ्य को नजरअंदाज तो नहीं किया जा सकता कि उसने मीडिया में लगायी जा रहीं अटकलों के दो दिन विलंब से पांच राज्यों के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा की। यह भी कि इसी अवधि का लाभ उठा कर मनमोहन सिंह सरकार ने 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण के अंदर अल्पसंख्यकों को साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण का चुनावी कार्ड चल दिया।
देर से ही सही, चुनाव आयोग ने सरकार की मंशा भांप कर इस आरक्षण पर चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक अमल पर रोक लगा दी। आयोग के इस फैसले की प्रशंसा भी की गयी, पर आखिरकार क्या सरकार और कांग्रेस अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो गयी? पिछले दो दशकों से उत्तर प्रदेश में अपने पैरों पर खड़ी होने को बेताव कांग्रेस अरसे से अल्पसंख्यक मतदाताओं को रिझाने में लगी है, जो राज्य में 100 से अधिक विधानसभा सीटों पर प्रभावी भूमिका निभाते हैं तथा फिलहाल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच बंट गये हैं।
मजहब आधारित विभाजनकारी आरक्षण जिन कांग्रेसियों के दिमाग की उपज है, उनमें खुर्शीद भी शामिल हैं, पर उनके द्वारा मोर्चा संभालने के दो अन्य कारण भी हैं। एक, सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के दबाव में, कभी उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर रहे सलमान खुर्शीद अब अल्पसंख्यकों के मसीहा बन कर मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं। दो, फर्रुखाबाद से कांग्रेस टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ रहीं खुर्शीद की पत्नी लुईस की पराजय दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ नजर आ रही है। खुर्शीद ने एक ही तीर से दो निशाने साधने के लिए अपनी पत्नी के चुनाव क्षेत्र में ही यह दांव चला कि अगर कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सत्ता में आयी तो 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण के अंदर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण को बढ़ा कर दो गुणा कर दिया जायेगा।
आचार संहिता का उल्लंघन
संविधानसम्मत ओबीसी आरक्षण में मजहब आधारित असंवैधानिक आरक्षण की इस सेंधमारी के विरुद्ध हंगामा तो होना ही था। भाजपा समेत कई राजनीतिक दलों ने चुनाव आयोग से खुर्शीद की शिकायत की, तभी उन्हें और उनकी पत्नी को कारण बताओ नोटिस दिया गया। जवाब में भी वही अहमन्यता झलकी, जो वह बाद में चुनाव सभाओं में भी दिखाते रहे कि अल्पसंख्यक आरक्षण तो कांग्रेस के घोषणा पत्र का हिस्सा है, जिसके बारे में बोलना कतई गलत नहीं है। ऐसे जवाब से आयोग संतुष्ट हो ही नहीं सकता था। सो, आयोग ने उन्हें आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी करार देते हुए उनकी निंदा भी की, जिसके जवाब में बड़े ही अवमाननापूर्ण ढंग से फिर अपनी पत्नी की ही चुनाव सभा में ऐलान किया कि चाहे उन्हें “फांसी पर चढ़ा दिया जाये”, पर वह लोगों को हक दिलवाने के लिए संघर्ष करते रहेंगे।
आजमगढ़ की चुनाव सभा में तो खुर्शीद तमाम हदें पार गये। दिल्ली के बटला हाउस में सितम्बर, 2008 में हुई मुठभेड़ में जो आतंकी मारे गये थे, वे आजमगढ़ के ही मूल निवासी थे। उस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के इन्सपेक्टर मोहन चंद शर्मा शहीद हुए थे, जिन्हें बाद में कांग्रेस के ही नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने वीरता पुरस्कार दिया। उस मुठभेड़ को साम्प्रदायिक रंग दे कर सियासी रोटियां सेंकने का खतरनाक खेल सबसे पहले कांग्रेसी दिग्गज अर्जुन सिंह ने शुरू किया था। उनके निधन के बाद वह विरासत संभालने को दिग्विजय सिंह बेताब नजर आते हैं। हालांकि कांग्रेस के ही नेतृत्व वाली सरकार मुठभेड़ को बार-बार वास्तविक बताते हुए जांच की जरूरत से भी इनकार कर चुकी है, लेकिन दिग्विजय सहित कई कांग्रेसी साम्प्रदायिक राजनीति से बाज नहीं आ रहे।
फिर आजमगढ़
आजमगढ़ में खुर्शीद ने सबसे आगे निकलने की उतावली में कह दिया कि जब उन्होंने बटला हाउस मुठभेड़ की तस्वीरें दिखायी थीं तो सोनिया गांधी की आंखों से आंसू फूट पड़े थे। वैसे तो कांग्रेस की ही सरकार द्वारा शहीद पुलिस इन्सपेक्टर को वीरता पुरस्कार दिया जाना ही इस तथाकथित रहस्योद्घाटन को हास्यास्पद बना देता है, लेकिन लगभग चार साल बाद किया जाने वाला यह “खुलासा” कांग्रेस की साम्प्रदायिक राजनीति की पोल भी खोल देता है। हैरत की बात देखिए कि दिग्विजय ने तो इसका खंडन करते हुए कटाक्ष किया कि “खुर्शीद अपना वाकया बयान कर रहे हैं”, पर सोनिया ने अपनी रहस्यमयी चुप्पी नहीं तोड़ी। जाहिर है, पूरा खेल सुनियोजित ढंग से खेला जा रहा है, बिना यह विचार किये कि दांव पर देश ही लगा है।
अतीत का अनुभव बताता है कि खुर्शीद के खेद के साथ ही देश के कानून मंत्री के गैर कानूनी आचरण और आदर्श चुनाव आचार संहिता के मखौल के इस मामले का पटाक्षेप तो हो जायेगा, पर इस चुनाव में सरकार और कांग्रेस की खतरनाक वोट बैंक राजनीति तथा बच्चों के साथ नेहरू परिवार और रिश्तेदारों के रोड शो से संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता, लोकतांत्रिक मयार्दा और राजनीति की गंभीरता को उत्पन्न खतरों को नजरअंदाज करने की देश को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। द
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