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राष्ट्र संघ में फिलिस्तीन को पर्यवेक्षक का दर्जा

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Dec 8, 2012, 12:00 am IST
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राष्ट्र संघ में फिलिस्तीन को पर्यवेक्षक का दर्जा

दिंनाक: 08 Dec 2012 13:55:13

दूसरे महायुद्ध के पश्चात् दुनिया में दो नए देश अस्तित्व में आए। चर्चिल, स्टालिन, डिगाल एवं रूजवेल्ट ने मिलकर जब आने वाली दुनिया पर विचार किया तो उन्हें ऐसा लगा कि एशिया में यदि उन्हें अपने पांव मजबूत रखने हैं तो उनके लिए दो देशों का बंटवारा अनिवार्य है। उनमें एक था भारत और दूसरा था फिलिस्तीन। भारतीय उपखंड में अपना हस्तक्षेप बनाए रखने के लिए भारत को विभाजित करना उनकी दूरगामी नीति का लक्ष्य था। इसी प्रकार एशिया के मुस्लिम राष्ट्रों पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए भी कोई न कोई स्थायी बंदोबस्त करना अनिवार्य था। जब भारत में मुसलमानों ने अपने लिए एक नए देश की मांग उठाई तो अंतत: पाकिस्तान अस्तित्व में आया। मांग तो कुछ भी उठ सकती है लेकिन महाशक्तियों का जिसमें स्वार्थ था उसी को तो वे क्रियान्वित करने में उत्सुक थे। भारत को जिस दिन उपखण्ड का शब्द दिया गया उसके पश्चात् विश्व को यह बताने का प्रयास हुआ कि भारत एक उपमहाद्वीप है इसलिए इसमें एक नहीं अनेक देश हैं। इस आधार पर ब्रिटिश सत्ताधीशों ने 1939 के एक्ट के तहत ब्रह्म प्रदेश (म्यांमार), श्रीलंका, नेपाल, भूटान और तिब्बत को अलग देशों की मान्यता दे दी। चूंकि बौद्ध मत भारतीय विचारधारा का एक भाग था। इसलिए भारत टूट तो गया लेकिन उसमें कोई अलगाववाद जन्म नहीं ले सका। इसलिए जब मोहम्मद अली जिन्ना ने भारत के भीतर ही एक नए मुस्लिम राष्ट्र की मांग उठाई तो उन्होंने पाकिस्तान के आन्दोलन को न केवल समर्थन दिया, बल्कि समय आने पर उसे क्रियान्वित भी कर दिया। इसी प्रकार यूरोप और एशिया में बसे यहूदियों के साथ भी गोरी जनता का व्यवहार हमेशा ही अभद्र बना रहा। मुस्लिम राष्ट्रों में भी स्वतंत्रता की ललक ने जब करवट लेनी शुरू की तो इन महाशक्तियों के मन में मुस्लिम राष्ट्रों के बीच एक यहूदी राष्ट्र बनाने का विचार आकार लेने लगा। यहूदियों का मजहबी और सांस्कृतिक स्थल हमेशा येरुशलम के आस-पास रहा है। इसलिए इस क्षेत्र के बंटवारे की बात भी जोर पकड़ने लगी। अंतत: 1949 में इन ताकतों के समर्थन से इस्रायल अस्तित्व में आ गया। हिन्दू समाज खुलेपन का हिमायती रहा है। इसलिए अंग्रेजों को हिन्दुस्थान की ही भूमि पर पाकिस्तान बनाने में कोई बहुत कठिनाई नहीं हुई। 14 अगस्त 1947 को मजहबी आधार पर एक बार फिर भारत का बंटवारा हो गया और भारत की भूमि पर एक नया मुस्लिम देश पाकिस्तान अस्तित्व में आ गया। अंग्रेजों को सबसे बड़ी सफलता तो उस समय मिली जब स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस ने उनकी बात मान ली। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने और मुस्लिम नेताओं ने भारत से पाकिस्तान को मान्यता भी दिलवा दी। इसलिए भारतीय उपखंड में छुटपुट घटनाओं के अतिरिक्त कोई अधिक प्रभाव देखने को नहीं मिला।

इस्रायल का जन्म

लेकिन इस्रायल, जो उस समय फिलीस्तीन एवं आस-पास के कुछ अन्य मुस्लिम देशों की सरहदों के कुछ भागों को मिलाकर बनाया गया, को मुस्लिम राष्ट्रों ने मान्यता नहीं दी। फलस्वरूप दोनों के बीच युद्ध प्रारम्भ हो गए। 1949 से लेकर 1973 तक यहूदी और मुसलमानों के बीच चार बड़े युद्ध हुए। यद्यपि मुस्लिम देश इसमें बुरी तरह से पराजित हुए। लेकिन 21वीं सदी आने तक लेबनॉन और सीरिया ने मिलकर इस्रायल की नाक में दम कर दिया। हमास नामक संगठन ने इस्रायल को अनेक मोर्चों पर मात भी दी। यासर अराफात के बाद का फिलिस्तीनी नेतृत्व मजबूत भी हुआ। आज तो ईरान, तुर्की और कतर ने मिलकर इस्रायल को लोहे के चने चबवा देने की स्थिति बना दी है। उधर पिछले दिनों इस्रायल का सबसे बड़ा पड़ोसी देश और जिसने केम्पडेविड समझौते के बाद उसे मान्यता दे दी थी, उस इजिप्ट (मिस्र) का राजनीतिक वातावरण बदल जाने से इस्रायल संतप्त है। दूसरी ओर विश्व में चल रही मंदी ने अमरीका से लेकर यूरोप तक के देशों में निराशा का वातावरण पैदा कर रखा है। इसलिए दुनिया के मुस्लिम राष्ट्र इन दिनों इस्रायल पर सैनिक और राजनीतिक दबाव डालकर फिलीस्तीन को राष्ट्र संघ से मान्यता दिलाकर दुनिया के मानचित्र पर हमेशा के लिए इस्रायल की छाती में खंजर भोंक देने के सपने देख रहे हैं। इस्रायल अपनी ताकत से इन सबका लोहा ले रहा है। अमरीका भी उसका पक्षधर है। लेकिन फिर भी अब दस साल पहले वाली बात नहीं है। इसलिए मुस्लिम राष्ट्र चाहते हैं कि इस्रायल को इतना मजबूर कर दिया जाए कि वह फिलीस्तीन को मान्यता दे दे। यदि इस्रायल स्वयं मान्यता दे तब तो पिछले 63 साल से चला आ रहा विवाद समाप्त हो जाता है। इस्रायल ईरान को परमाणु बम के उपयोग की धमकी देता है तो अब ईरान भी वही हथियार उपयोग करने में सक्षम है। अमरीका के लिए यह संकट की घड़ी है। वह अपनी आर्थिक हालत को देखकर कोई पंगा नहीं लेना चाहता है। एक समय था कि इस्रायल के दबाव के कारण कुछ मुस्लिम देश जैसे जोर्डन मिस्र, मोरक्को, अल्जीरिया, और लेबनॉन इस्रायल के प्रति नरम रवैया रखते थे लेकिन मिस्र में आई क्रांति के बाद इन देशों की भी नजरें बदल गई हैं। समय आने पर अमरीका और यूरोप के देश इस्रायल को कितनी सहायता करेंगे यह फिलहाल तो गर्भ में है। इसलिए फिलिस्तीन को लेकर मुस्लिम देशों के हौसले बुलंद हैं। वे येन-केन प्रकरेण दुनिया में मुहिम चला रहे हैं कि फिलिस्तीन की अनदेखी अब नहीं की जा सकती है। इस्रायल को अब पुराना रवैया छोड़कर फिलिस्तीन को मान्यता दे देनी चाहिए।

गत 30 नवम्बर को फिलिस्तीन ने एक जंग और जीत ली। इस जीत से उसे कितना राजनीतिक लाभ मिलेगा यह तो समय ही बताएगा लेकिन राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली में उसने भले ही लड़ाई नहीं जीती हो लेकिन उसने मोर्चा अवश्य जीत लिया है, यह तो हर किसी को स्वीकार करना ही पड़ेगा।

राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली ने फिलिस्तीन को सदस्यता तो नहीं दी लेकिन उसे महासभा में पर्यवेक्षक के रूप में बैठने की स्वीकृति प्रदान कर दी है। अमरीका और स्वयं इस्रायल ने इसका सख्ती से विरोध तो किया, लेकिन दुनिया के कुल 193 सदस्यों में से 138 ने हिमायत में वोट देकर यह सिद्ध कर दिया कि अब फिलिस्तीन को राष्ट्र संघ का सदस्य बनने से कोई नहीं रोक सकता। अमरीका और इस्रायल ने इसका डटकर विरोध किया। लेकिन दुनिया के अधिकतर देशों ने अपने समर्थन देकर इस्रायल को यह समझा दिया है कि अब वह अपनी जिद छोड़कर फिलिस्तीन के अस्तित्व को मान्यता प्रदान कर दे। हमास के नेता खालिद मशअल ने कहा है कि महमूद अब्बास के प्रयासों से प्राप्त की गई फिलिस्तीनी रियासत की स्वीकृति को इस्रायल के साथ चल रहे गाजा के युद्ध के साथ मिलाकर देखा जाना चाहिए। मशअल ने कहा कि इस मर्यादित युद्ध ने महमूद अब्बास की सफलता की इबारत लिख दी है।

एकजुट अरब

इस्रायल अपने हर मोर्चे पर कमजोर होता जा रहा है। केवल युद्ध के मैदान में ही नहीं बल्कि कूटनीतिक आधार पर भी वह कमजोर हुआ है जिसका नतीजा यह हुआ है कि राष्ट्रसंघ के वर्तमान अधिवेशन में फिलिस्तीन  की ताकत बढ़ गई। वे 193 देशों में से 138 का समर्थन जुटाने में सफल हो गए। इस्रायल, अमरीका और कनाडा सहित 9 देशों ने इस प्रस्ताव के विरोध में मतदान किया जबकि 41 देश इस मामले में तटस्थ रहे। फिलिस्तीनी नेता महमूद अब्बास ने कहा कि अब वह दिन दूर नहीं जब राष्ट्र संघ फिलिस्तीन के जन्म का प्रमाणपत्र देने के लिए मजबूर हो जाएगा। महमूद अब्बास का कहना था कि 65 वर्ष पूर्व आज ही फिलिस्तीन को दो भागों में बांटकर इस्रायल के जन्म का प्रमाणपत्र दिया था। इस्रायल के प्रतिनिधि ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि इससे शांति की प्रक्रिया को कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। यहूदी लोगों का इस्रायल से चार हजार साल पुराना रिश्ता है जिसे राष्ट्रसंघ का कोई प्रस्ताव समाप्त नहीं कर सकता। फिलिस्तीनियों को बहुत शीघ्र पता चल जाएगा कि इससे शांति प्रक्रिया को बहुत बड़ा झटका लगा है। इससे इस्रायल के बुनियादी आधार पर कोई परिवर्तन नहीं होने वाला है। इस्रायली प्रधानमंत्री का कहना था कि फिलिस्तीनी रियासत की प्रगति में अवरोध खड़े होंगे और आज तक शांति प्रक्रिया में जो प्रगति हो रही थी वह हमेशा के लिए रुक जाएगी।

कनाडा ने इस फैसले के कारण न्यूयार्क और जिनेवा में काम कर रहे अपने प्रतिनिधियों को अस्थायी तौर पर बुला लेने का फैसला कर लिया है। अमरीका के सभी देश फिलिस्तीन को पर्यवेक्षक बनाने के विरुद्ध थे लेकिन इस मामले में यूरोप बंटा हुआ था। केवल 14 देशों ने फिलिस्तीन का समर्थन किया। जर्मनी और ब्रिटेन ने मतदान में भाग नहीं लिया। अरब देशों ने एकजुट होकर इसका समर्थन किया। तुर्की के प्रतिनिधि ने अपने जोशीले भाषण में कहा कि अब फिलिस्तीन को राष्ट्र संघ का सदस्य बनने से कोई नहीं रोक सकता है। उनका कहना था कि जब तक फिलिस्तीन हमारे झंडे के बराबर अपना झंडा नहीं लहराएगा तब तक हम इस मुद्दे पर संघर्ष करते रहेंगे। अब यह बात तय है कि अमरीका फिलिस्तीनी अथॉरिटी को जो भारी भरकम आर्थिक सहायता देता रहा है वह अब नहीं देगा। इससे फिलीस्तीन की आर्थिक स्थिति बिगड़ेगी।

मुस्लिम राष्ट्रों का कहना है कि 1948 से पहले फिलिस्तीन मौजूद था। फिर पश्चिमी देशों ने अपने स्वार्थों के कारण फिलिस्तीन के दो टुकड़े कर दिए। फिलिस्तीन के जब दो टुकड़े करके इस्रायल बना दिया गया उसे लेकर मुस्लिम राष्ट्र संघर्ष कर रहे हैं और आंसू बहा रहे हैं। लेकिन इसी प्रकार भारत का विभाजन एक मुस्लिम राष्ट्र के लिए कर दिया गया इस पर अफसोस करने वाला आज कोई भी नहीं है। भारत ने पाकिस्तान को मान्यता भी तत्काल दे दी और पश्चिमी ताकतों ने जो कुछ किया उसे स्वीकार करने वाला कोई नहीं है। यदि भारत ने पाकिस्तान बनाने के लिए इनकार कर दिया होता तो क्या पाकिस्तान इतनी सरलता से बन जाता? इसके बावजूद अनेक मुस्लिम राष्ट्र अब भी भारत के सामने आंखें निकालने में पीछे नहीं हैं। पाकिस्तान स्वीकार कर लेना भारत का बड़प्पन था या फिर कायरता इसका फैसला तो भविष्य ही कर सकेगा।

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