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जनतंत्र की एक परिभाषा सुनी थी-जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा। बात पुरानी हुई, भूल जाइए उसे। नई परिभाषा याद कर लीजिए-विदेशियों (अमरीका) का, विदेशियों (वालमार्ट) के लिए, विदेशियों (सोनिया) के द्वारा। और भारतीय राजनीति में राष्ट्रहित, पार्टी के सिद्धांत, कथनी-करनी में साम्यता और नैतिकता के दिन भी लद गए। देश के सर्वोच्च सदन में देशहित को सर्वोपरि मानते हुए ही निर्णय लिए जाएंगे, यह बात भी अब सिर्फ संविधान के पन्नों तक ही सीमित है। बहु ब्रांड खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रस्ताव पर लोकसभा और राज्यसभा में जो कुछ हुआ, उसका कम से कम यह स्पष्ट संदेश तो देश की जनता को समझ में आ ही जाना चाहिए।
संसद के वर्षाकालीन सत्र की समाप्ति के तुरंत बाद और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस द्वारा महंगाई और रसोई गैस के सिलेंडरों की संख्या सीमित करने के निर्णय के विरोध में सरकार से समर्थन वापस लेने के अगले ही दिन, जब केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के निर्णय की घोषणा की तभी स्पष्ट हो गया था कि चला चली की बेला में बौखलाई सोनिया-मनमोहन की अल्पमत सरकार का यह देशविरोधी निर्णय किसी विदेशी दबाव का ही परिणाम है। क्योंकि संप्रग-1 के अंतिम दिनों में भी परमाणु संधि के लिए अमरीकी दबाव के आगे सरकार नत-मस्तक हुई थी। तब भारी विरोध के बावजूद सरकार ने जिस तरह समर्थन जुटाया, उसका प्रदर्शन सदन के भीतर नोटों के बंडल लहराकर भाजपा के सदस्यों ने देश-दुनिया को बता दिया था। इस बार कुछ अखबारों ने खुदरा बाजार की बदनाम बहुराष्ट्रीय कंपनी वालमार्ट के सूत्रों को ही छानकर खबर दी है कि उसने भारत में अपने 'मॉल' खोलने के लिए कुछ भारतीय नेताओं और अफसरों को 'मालामाल' कर दिया है। विदेशी निवेश के इस किसान और व्यापारी विरोधी निर्णय के खिलाफ देशभर में आंदोलन चल रहे थे, धरने-प्रदर्शन हो रहे थे, सार्वजनिक मंचों से उसका भारी विरोध हो रहा था। जनता की इस मनोव्यथा को सरकार तक पहुंचाने का काम विपक्ष का था, वह उसने किया भी। लेकिन शीतकालीन सत्र शुरू होते ही संसद में उस पर बहस किस नियम के आधार पर हो, इस पर सरकार आनाकानी करने लगी। भाजपा नियम 184 के तहत ही बहस चाहती थी, जिसमें बहस के बाद मतदान का प्रावधान होता है। पर सरकार चार दिन तक इसे टालती रही, तभी मानी जब उसके सदैव से संकटमोचक रहे मायावती और मुलायम सिंह प्रधानमंत्री के घर जाकर 'भोजन' कर आए। 'डिनर मैनेजमेंट' के बाद जीत के प्रति आश्वस्त सरकार ने साफ कर दिया कि वह अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने को तैयार नहीं है, भले आप इसके कितने भी दुष्परिणाम गिनाएं।
क्या था विपक्ष का प्रस्ताव
विपक्ष जानता था कि सरकार ने संख्या बल जुटा लिया है। इसका अंदेशा तो पहले से ही था, इसलिए भाजपा बहस के बाद मतदान चाहती थी ताकि कुछ दलों की कथनी-करनी का भेद जनता की आंखों के सामने आ जाए। विपक्ष की ओर से उसकी नेता श्रीमती सुषमा स्वराज ने सदन में प्रस्ताव रखा-
ये सभा सरकार से सिफारिश करती है कि वह खुदरा बाजार में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देने संबंधी अपने निर्णय को तत्काल वापस ले।
अपने इस प्रस्ताव के समर्थन में अपने 90 मिनट लम्बे, धाराप्रवाह और तकर्ों-तथ्यों से परिपूर्ण भाषण में श्रीमती सुषमा स्वराज ने जो प्रमुख दस कारण गिनाएं वे इस प्रकार हैं-1-इससे किसानों और उपभोक्ताओं को नुकसान ही होगा, लाभ नहीं।2-इससे बिचौलिये खत्म नहीं होंगे, नए खड़े होंगे। 3-इसके लागू होने से 40 लाख नई नौकरियों के सृजन का दावा एकदम झूठा है। 4-इस क्षेत्र में विदेशी निवेश विकास की सीढ़ी नहीं, विनाश का गढ्ढा है। 5-जहां कहीं भी संगठित बाजार खड़ा हुआ, खुदरा बाजार समाप्त हो गया।6-छोटी दुकानें खत्म होते ही ये मॉल वाले बड़े रिटेलर अपने दाम बढ़ा देते हैं। 7-एफडीआई से सिर्फ चीन के व्यापारी मालामाल होंगे। 8-एफडीआई का तकनीकी क्षेत्र में स्वागत, खुदरा बाजार में नहीं। 9-हम सरकार को हराना नहीं, मनाना चाहते हैं कि वह देशहित में निर्णय करे। 10-सरकार अपनों के बारे में सोचे, गैरों के नहीं।
कहां है आम सहमति?
खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेश निवेश के समर्थन में सरकार द्वारा प्रचारित झूठ पर से श्रीमती सुषमा स्वराज ने एक-एक कर पर्दा उठाया। 4 दिसम्बर को बहस की शुरूआत करते समय श्रीमती स्वराज ने कहा कि यह सरकार परामर्श और आम सहमति की बात करती है, लेकिन इतने बड़े निर्णय से पूर्व विपक्ष से बात करना तो दूर, उसको सूचना तक नहीं दी गई। देश में कुल 28 राज्यों और 7 केन्द्र शासित प्रदेशों में से दिल्ली और गोवा जैसे कुछ छोटे राज्यों सहित कांग्रेस शासित मात्र 9 राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने ही इस निर्णय के समर्थन में सार्वजनिक वक्तव्य दिए हैं। और तो और कांग्रेस शासित केरल ने तो स्पष्ट विरोध किया है और महाराष्ट्र ने भी इसे लागू करने की घोषणा नहीं की है। फिर कहां है आम सहमति? किससे हुआ परामर्श? श्रीमती स्वराज ने खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दुष्परिणामों को गिनाते हुए बताया कि वालमार्ट जैसी कंपनियां पहले अपने बाजार भाव गिराती हैं, जिससे कि छोटे विक्रेता अपना काम बंद कर दें, और जब इनका एकछत्र राज्य हो जाता है तब ये अपने दाम बढ़ाती हैं और उपभोक्ता की मजबूरी हो जाती है कि वह इन्हीं से माल खरीदे। उन्होंने कहा कि बिचौलियों के होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। आखिर चीनी मिलों और गन्ना उत्पादक किसानों के बीच बिचौलिये कहां हैं? फिर गन्ना उत्पादक किसानों की दुर्दशा क्यों है? उन्होंने सदन को बताया कि वालमार्ट के प्रत्येक स्टोर में औसतन 214 कर्मचारी काम करते हैं। इस आंकड़े के अनुसार सरकार द्वारा प्रचारित 40 लाख नौकरियों के लिए देश में कुल 18600 वालमार्ट स्टोर खुलेंगे। चूंकि ये स्टोर 10 लाख की जनसंख्या से ऊपर वाले नगरों में ही खुलने हैं, तो ऐसे बड़े नगरों में 300 से लेकर 600 स्टोर तक खोलने पड़ेंगे, यानी हर चौराहे पर एक, क्या यह संभव है? विदेशी कंपनियां भारतीय बाजारों, किसानों से 30 प्रतिशत ही माल खरीदेंगी, शेष 70 प्रतिशत आयात होगा, ऐसी सूरत में चीन के सस्ते माल से भारतीय बाजार पट जाएगा और भारत का लघु उद्योग बर्बाद हो जाएगा। चीन के कारखानों की आमदनी बढ़ेगी और रोजगार बढ़ेंगे, भारत के 12 करोड़ घरों में अंधेरा छा जाएगा।
एफडीआई बनाम सीबीआई
दो दिन चली बहस के बाद उसका समापन करते हुए और मतदान से पूर्व 5 दिसम्बर की सायंकाल श्रीमती सुषमा स्वराज ने एक बार फिर चेताया कि खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर न आम सहमति है और न ही उसके पक्ष में जनमत है। बहस के दौरान कुछ 18 दलों ने भाग लिया, जिसमें से सपा-बसपा सहित 14 दलों ने एफडीआई के विरोध में भाषण दिया, जबकि विपक्ष के प्रस्ताव के विरुद्ध और सरकार के समर्थन में कुल 4 दलों ने वक्तव्य दिया। भाषण में विरोध करने वाले दलों के सदस्यों की कुल संख्या जोड़कर उन्होंने बताया कि कुल 545 सदस्यों वाले इस सदन के 282 सदस्य एफडीआई के विरोध में हैं और सरकार के समर्थन में कुल 224 सदस्य ही हैं। इससे इस सदन की सोच प्रतिबिंबित होती है। जो भाषण में कहा, वही यदि वोट में परिवर्तित हो जाए तो यह निर्णय लागू ही नहीं हो पाएगा।
पर विपक्ष की नेता जानती थीं कि प्रधानमंत्री का 'भोज खा चुके' सपा और बसपा के नेता सरकार की बैसाखी बनने को ही तैयार हैं। खुदरा बाजार में अधिकांश मुस्लिम वर्ग के ही काम करने की सचाई को जानते हुए भी एफडीआई के दुष्परिणामों को बयान करने वाले मुलायम की सरकार को समर्थन देने की मजबूरी को उन्होंने मतदान से पूर्व ही यह कहकर स्पष्ट कर दिया कि जब मामला एफडीआई बनाम सीबीआई हो तो सपा-बसपा मजबूर हो ही जाती हैं। इन दोनों दलों द्वारा सरकार का विरोध करने और बचाने की रणनीति पर विपक्ष की नेता ने तीखे प्रहार किये। कहा 'मुलायम सिंह जी, भले आज लोहिया, जे.पी.या गांधी न हों, अगर आप चाहें तो भी सरकार यह निर्णय नहीं कर सकती है।' मायावती को भी लताड़ा, “जब पदोन्नति में आरक्षण की बात हो तो वे मेरे घर आकर कहती हैं, 'बहन, उन राज्यसभा वाले भइया (अरुण जेटली) को भी बुला लो, ताकि दोनों भाई-बहन से एक साथ बात हो जाए।' और अब विदेशी निवेश के मुद्दे पर सीबीआई के डर से हमें साम्प्रदायिक बता रहीं हैं।” उन्होंने चेताया कि यहां बहस विदेशी निवेश पर हो रही है, सेकुलर बनाम साम्प्रदायिकता पर नहीं।
दर्द पता था, पर दवा नहीं की
भले विपक्ष की नेता सहित 14 दलों के नेताओं ने खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के विरुद्ध भाषण दिया हो, भले तृणमूल कांग्रेस के नेता सौगत राय ने इसे अमरीका का दबाव बताया हो, भले डा.मुरली मनोहर जोशी ने कहा हो कि सरकार अपनी गर्दन कटवाए, देश की नहीं, भले कांग्रेस प्रवक्ताओं और सरकार का पक्ष रखने वाले वक्ताओं के तकर्ों में दम न दिखा हो, भले केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल के इस बयान की खिल्ली उड़ी हो कि वालमार्ट तो बड़ी बड़ी गाड़ियों वाले ही जाएंगे, आम आदमी नहीं, भले दो दिन तक 4 करोड़ लोगों की रोजी और बीस करोड़ लोगों की रोटी की दुहाई दी गई हो, भले बताया गया हो कि अकेले वालमार्ट का आय-व्यय (टर्नओवर) 21 लाख करोड़ रुपए प्रतिवर्ष का है-यह भारत के साढ़े दस लाख करोड़ (लगभग आधे) रुपए के खुदरा बाजार को लील जाएगा… पर अंतत: मनमोहन सरकार ने 'जुगाड़ टेक्नालॉजी' अपनाकर सदन में जीत हासिल कर ली। सपा और बसपा के बहिर्गमन के बाद कुल उपस्थित 471 सदस्यों में से 218 ने देश के किसानों, व्यापारियों/उपभोक्ताओं को बचाने के लिए वोट दिया तो 253 ने सरकार को बचाने का काम किया।
देश चुकाएगा कीमत
6 दिसम्बर को राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने भी कहा कि सरकार ने लोकसभा में जिस तरह जीत हासिल की उसकी बड़ी कीमत उसे और देश को चुकानी होगी। भाजपा प्रत्यक्ष पूंजी निवेश (एफडीआई) के पूरी तरह से विरोध में नहीं है, लेकिन देखना यह है कि उसे किस क्षेत्र में अनुमति दी जाए, किसमें नहीं। खुदरा बाजार में इसे अनुमति देने के अमरीकी दबाव पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या कुछ पश्चिमी देश भारत की आर्थिक नीतियों का मानदंड तय करेंगे। उन्होंने कहा कि अगर वालमार्ट के आने से किसान खुशहाल हो जाएंगे तो अमरीका के किसान अब तक बदहाल क्यों हैं? क्यों अमरीका अपने किसानों को भारी सब्सिडी दे रहा है? यदि उपभोक्ताओं को लाभ होता है तो मैनहट्टन के लोग वालमार्ट के विरोध में सड़कों पर क्यों हैं? पर इन गंभीर प्रश्नों का उत्तर देने की बजाय लोकसभा में दीपेन्द्र सिंह हुड्डा वालमार्ट के लिए 24 इंच (2 फीट) का आलू उगाते नजर आए तो अपनी विदूषक प्रवृत्ति का परिचय देते हुए लालू यादव बेसिर पैर के शेरों-शायरी पढ़ते। इस पूरे परिदृश्य को देखकर भारत के मन में यही उभर रहा होगा-
प्रजातंत्र के ये रखवाले।
देश की नैया राम हवाले।।
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