अघोषित आपातकाल
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किसके इशारे पर राजधानी दिल्ली में थोपा गया
गृह मंत्रालय? दिल्ली सरकार? दिल्ली पुलिस?
नरेन्द्र सहगल
गैरकानूनी, असंयमित और अनैतिक सरकारी हथकंडे
आपातकाल का पूर्वाभ्यास
वोट और सत्ता के लोभी माया-मुलायम जैसी स्वकेन्द्रित राजनीतिक शक्तियों की बैसाखियों पर टिकी सोनिया निर्देशित केन्द्र सरकार की नीतियां और राजनीतिक व्यवहार अब पूरी तरह स्पष्ट हो गया है। जनता की सुरक्षा और कल्याण से संबंधित प्रत्येक मोर्चे पर अपनी जगहंसाई करवा रही सरकार की अकर्मण्यता के विरुद्ध प्रकट हो रहे प्रत्येक जनाक्रोश को बर्बरता से कुचला जा रहा है। पिछले दिनों भ्रष्टाचार और कालेधन को समाप्त करने के लिए समाजसेवी अण्णा हजारे और स्वामी रामदेव द्वारा शुरू किए गए जनांदोलनों को कुचल देने में लगभग सफल रही सरकार के हौंसले सातवें आसमान को भी पार कर चुके हैं। पुलिस बल समेत प्राय:सभी अर्द्धसैनिक बलों का इस्तेमाल करके सरकारी विफलताओं के विरुद्ध सड़कों पर उतरे युवाओं, महिलाओं, वृद्धों की आवाज को लाठियों और गोलियों से खामोश करने पर तुली इस निरंकुश सरकार पर कहीं भी अंकुश लगता दिखाई नहीं दे रहा है।
गत 16 दिसम्बर की अर्द्धरात्रि को घटित हुए अत्यंत जघन्य सामूहिक बलात्कार के हादसे के बाद उमड़े युवा आक्रोश को दबाने के लिए सरकार ने जो सोचे समझे अमानवीय और अलोकतांत्रिक हथकंडे अपनाए उनसे 1975 में लगे आपातकाल की याद ताजा हो गई। समाचार पत्रों और टीवी चैनलों को निर्देश देना, बिना चेतावनी दिए अश्रुगैस के गोले और लाठियां बरसाना, युवा छात्राओं को भगा-भगाकर पीटना, बिना सबूतों के अनेकों प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार करके उनके खिलाफ झूठी और बेबुनियाद एफआईआर दर्ज करना, स्थानीय एसडीएम पर पुलिस के निर्देशानुसार पीड़ित के बयान दर्ज करने का दबाव, पत्रकारों की पिटाई और बाबा रामदेव, जनरल वी.के.सिंह और वृंदा कारत पर दंगा भड़काने के तर्कहीन आरोप लगाना जैसी एकतरफा सरकारी हरकतों से तो यही लगता है कि यह सरकार 1975 में थोपे गए एकतरफा आपातकाल को एक बार फिर घोषित करने का पूर्वाभ्यास कर रही है। मुख्य विपक्षी दल भाजपा द्वारा संसद का विशेष सत्र और सर्वदलीय बैठक की उठाई गई मांग को ठुकराकर तो सरकार ने यही संकेत दिया है।
अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए किया गया
दिल्ली पुलिस का इस्तेमाल
सामूहिक बलात्कार की शिकार लड़की के लिए न्याय मांगने, आरोपियों को शीघ्रातिशीघ्र फांसी की सजा दिलवाने, भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने की पुख्ता व्यवस्था बनाने और महिलाओं के सम्मान की रक्षा के लिए ठोस कानून बनाने जैसी मांगें कर रहे निहत्थे युवाओं पर अत्याचार करने का दोषी कौन है? एक प्रकार का अघोषित आपातकाल लागू करके सारी शक्तियां दिल्ली पुलिस को सौंपने के निर्देश किसके थे? दिल्ली की सरकार, दिल्ली की पुलिस और केन्द्र का गृह मंत्रालय किसके इशारे पर चलते रहे? इनमें तालमेल बिठाकर बेकाबू हालात को संभालने की जिम्मेदारी किसकी थी? नौ मैट्रो स्टेशनों को बंद करने, इंडिया गेट, जनपथ, सफदरगंज, रामलीला मैदान, कनाट प्लेस इत्यादि सार्वजनिक स्थानों की पुलिसिया किलेबंदी करने की रणनीति में दिल्ली सरकार को अंधेरे में किसने रखा? दिल्ली की असहाय परंतु पैंतरा बदलने में कुशल मुख्यमंत्री शीला दीक्षित द्वारा गृहमंत्रालय को लिखे पत्र को नजरअंदाज करने का सीधा अर्थ यही है कि सोनिया निर्देशित सरकार लोकतंत्र का गला घोटकर इंदिरा गांधी की तरह तानाशाह बनने जा रही है।
अर्द्वसैनिक बलों, गुप्तचर एजेंसियों और जांच आयोगों पर अपना शिकंजा कसती जा रही केन्द्र सरकार को चेतावनी देते हुए दिल्ली की मुख्यमंत्री ने गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे को भेजे अपने पत्र में गंभीर और सनसनीखेज आरोप लगाते हुए लिखा है 'दिल्ली पुलिस के तीन अफसरों ने सामूहिक दुष्कर्म की शिकार युवती का बयान दर्ज करवाने वाली एसडीएम उषा चतुर्वेदी से न केवल बदसलूकी की बल्कि उन्हें धमकाया भी और बयान की 'वीडियोग्राफी' भी नहीं होने दी।' उधर एसडीएम ने कहा है कि 'पुलिस ने पहले से ही तैयार प्रश्नावली के आधार पर सवाल पूछने को कहा। यही नहीं पीड़िता की मां की आपत्ति का हवाला देकर 'वीडियोग्राफी' की इजाजत नहीं दी।' किसी भी सभ्य इंसान के रोंगटे खड़े कर देने वाले पीड़िता के चीत्कार (बयान) को पुलिसिया कहर से प्रभावित करने और उसे सार्वजनिक न होने देने का कदम किसके आदेश से उठाया गया? इससे यही आभास होता है कि गृह मंत्रालय अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए दिल्ली पुलिस का इस्तेमाल कर रहा है।
खुल रही है कांग्रेस सरकार की पोलपट्टी
कटघरे में गृह मंत्रालय
बलात्कार की इस घटना ने दिल्ली सरकार, केन्द्र की सरकार और दिल्ली पुलिस को जनता के कटघरे में खड़ा कर दिया है। इन तीनों के हाथ पांव फूल रहे हैं। गृह मंत्रालय द्वारा गठित जस्टिस वर्मा कमेटी ने इस दर्दनाक हादसे की जांच करने से मना कर दिया है। संभवतया सरकार और पुलिस की गैरजरूरी दखलअंदाजी इसकी वजह है। अब यह काम दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश उषा मेहरा को सौंपा गया है। परंतु उषा मेहरा भी बलात्कार जैसी घटना के संबंध में पुलिस अधिकारियों की लापरवाही की जांच करेंगी।ध्यान देने की बात है कि मध्य दिल्ली को पुलिस छावनी में बदलकर सैकड़ों युवाओं पर बर्बर जुल्म करने वाली पुलिस की कार्रवाई की जांच के लिए गृह मंत्रालय तैयार नहीं है। यह इसलिए क्योंकि इस तरह की जांच से सरकार की अपनी पोल खुलने का खतरा है। स्वामी रामदेव के अनुयायियों पर ढाए गए पुलिसिया कहर (गृहमंत्रालय के इशारे पर) का संज्ञान तो सुप्रीम कोर्ट ने लिया था। लगता है कि इस मामले में भी न्यायालय को ही पहल करनी पड़ सकती है। केन्द्र की सरकार निरंकुश है। दिल्ली की सरकार कठपुतली है और दिल्ली पुलिस बेलगाम है। यही समस्या की जड़ है।
दिल्ली के आला पुलिस अधिकारी अपनी साख को सुरक्षित करने में माहिर हैं, नागरिकों की सुरक्षा भले ही न हो। युवकों से हुए संघर्ष के समय बेहोश हुए सिपाही सुभाष चंद्र की मौत पर भी राजनीति की जा रही है। दिल्ली पुलिस का कहना है कि युवकों द्वारा लगाई गई चोटों से मौत हुई है जबकि राम मनोहर लोहिया अस्पताल के डाक्टर टी.एस.सिद्धू कहते हैं कि सदमे से सिपाही को हार्ट अटैक हुआ था। शरीर में कहीं भी गंभीर चोट के निशान नहीं थे। पुलिस ने सुभाष चंद्र की मौत पर हत्या का मामला दर्ज कर दिया है जबकि पांच जून 2011 को स्वामी रामदेव के शिष्यों पर हुए एकतरफा पुलिस हमले में घायल राजबाला की मृत्यु हो जाने के बाद भी किसी पुलिसकर्मी पर आज तक गैर इरादतन हत्या का केस भी दर्ज नहीं किया गया। उल्लेखनीय है कि रामदेव के आंदोलन और अब युवा आक्रोश दोनों प्रसंगों पर किए गए अत्याचारों को यह कहकर जायज ठहराया गया कि इनमें असामाजिक तत्व और आतंकवादी घुस आए थे। इससे ज्यादा लचर तर्क और क्या होंगे?
बलात्कारियों को फांसी का मुद्दा लटकाकर
सूली पर टांगा लोकतंत्र
चौंकाने वाली बात तो यह है कि प्रधानमंत्री सहित पूरी सरकार ने पुलिस के कहर को जायज ठहराने की कोशिश की। गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने तो यह कह दिया कि मानो जलती आग पर तेल छिड़क दिया 'कल नक्सली भी हथियारों के साथ इंडिया गेट पर प्रदर्शन के लिए आ सकते हैं तो क्या हम उनसे भी बात करेंगे।' शिंदे साहब ने निहत्थे और बेकसूर युवाओं की तुलना देशद्रोही हथियार बंद नक्सलियों से करके शर्मिंदगी के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। टीवी चैनलों को दो 'एडवाइजरी' जारी करके प्रेस की स्वतंत्रता को समाप्त करना चाहा। इसी आदेश के बाद पुलिस द्वारा महिला पत्रकारों सहित सभी को मारा पीटा गया। कईयों के कैमरे तोड़े गए। यहां तक कि मंत्रालयों के कामकाज की रपट लिखने वाले पत्रकारों को नार्थ/साउथ ब्लाक तक जाने ही नहीं दिया गया। पुलिस आयुक्त नीरज कुमार ने पुलिस कार्रवाई को जायज ठहराते हुए कह दिया कि 'इंडिया गेट पर प्रदर्शन को असामाजिक तत्वों ने 'हाईजैक' कर लिया था। पुलिस आयुक्त महोदय की नजर में स्वामी रामदेव, जनरल वी.के.सिंह और वृंदा कारत असामाजिक तत्व हैं जिन पर केस दर्ज करके अपने पापों पर पर्दा डाला जा रहा है।
सारे देश को संसार भर में शर्मसार करने वाले दुष्कर्म के आठ दिन बाद मौनी बाबा प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने अपना मौन तोड़ते हुए मात्र शिष्टाचार निभाया 'दिल्ली में सामूहिक बलात्कार के घिनौने अपराध पर लोगों में गुस्सा जायज है। 'तीन लड़कियों का पिता होने के नाते मैं भी आप सभी की तरह इस मामले को संजीदगी से महसूस करता हूं।' प्रधानमंत्री ने यह कहकर साबित कर दिया कि वे भी एक साधारण भारतीय की तरह बेबस और शक्तिहीन हैं। देश की जनता यह उम्मीद कर रही थी कि तीन तीन बेटियों के पिता डा.मनमोहन सिंह और सुशील कुमार शिंदे किसी ऐसी व्यवस्था का ऐलान करेंगे जिससे बलात्कारियों को बहुत शीघ्र मौत की सजा दी जा सके। 'फास्ट ट्रेक कोर्ट' महिलाओं के लिए हेल्पलाइन नंबर और देशभर के पुलिस प्रमुखों की बैठक के घिसेपिटे आश्वासन दे दिए गए हैं। वैसे पहले भी कई बार कानून मंत्रालय ने ऐसे 'फास्ट ट्रेक कोर्ट' बनाने के सुझाव दिए हैं। सरकार ने कभी इनका गठन नहीं किया। जरूरत इस बात की है कि सरकार जनता के आक्रोश को ठोस कार्रवाई से शांत करे न कि लोकतंत्र को फांसी देकर।
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