गो-माता की अनंत महिमा गाथाश्री गुरुजी के प्रेरक विचार
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इस धरती पर विचरण करने वाले जीव-जन्तुओं में संभवत: गाय ही एकमात्र ऐसी है जिसे देवतुल्य व पूज्य माना गया है। वेदों से लेकर पुराणों तक में ही नहीं तो श्रीमद् भगवत गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने कामधेनु की महत्ता बताई है। केवल हिन्दू धर्म में ही नहीं, अन्य मत-पंथों में भी इसकी महत्ता और पवित्रता को स्वीकार किया गया है। गोसेवा को पुण्य कर्म माना गया है। ऐसी पापनाशिनी, समस्त जगत का कल्याण चाहने वाली गाय की धार्मिक, आध्यात्मिक सांस्कृतिक, आर्थिक एवं औषधीय महत्ता को समेटे हुए हाल में ही एक पुस्तक 'गौ-शाला' प्रकाशित होकर आई है।
कुल बारह अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक में गाय की महत्ता का विस्तार से विवेचन किया गया है। पहले अध्याय 'गो-धर्म' में अनेक उद्धरणों के माध्यम से गाय की महत्ता बताई गई है। साथ ही गाय का गौरवपूर्ण अतीत और उसके अनेक संबोधक नामों की व्याख्या भी की गई है। 'भारतीय धर्म, सम्प्रदाय और गाय' शीर्षक के अन्तर्गत धार्मिक मान्यताओं में गाय की पूजा को रेखांकित किया गया है। साथ ही इसमें यह चिंता भी लेखकद्वय ने प्रकट की है कि 'स्वतंत्र भारत में भी गोवंश की पूर्ण सुरक्षा न होकर उसका उत्तरोत्तर हृास होता जा रहा है। गोधन भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अन्यतम रक्षक है। हमें चाहिए कि हम संगठित होकर समस्त भारत में गोरक्षार्थ रचनात्मक व दृढ़ आंदोलन उपस्थित करें।'
इसी अध्याय में विस्तार से इस्लाम, सिख, जैन, बौद्ध आदि मत-पंथों के साथ ही स्वामीनारायण विचारधारा, रामस्नेही विचारधारा आदि में वर्णित गाय की महत्ता को भी बताया गया है। पुस्तक के तीसरे अध्याय 'मनीषी दृष्टि और गाय' में कई प्राचीन महर्षियों के द्वारा बताई गई या उनके द्वारा की गई गोसेवा का वर्णन किया गया है। किस तरह योगी वशिष्ठ आजीवन गोसेवा करते रहे और दूसरों को गोसेवा के लिए प्रेरित करते रहे, महाराजा दिलीप कैसे गोसेवा की ओर उन्मुख हुए, भगवान श्रीराम गायों के प्रति बचपन से ही कितना अनुराग रखते थे, आदि शंकराचार्य ने अपने लगभग सभी ग्रंथों में गो-महिमा का कैसा विषद वर्णन किया है, महर्षि च्यवन और महाराज ऋतम्भरा गोसेवा के प्रति कितने निष्ठावान थे- इन सभी का विस्तार से और उद्धरण सहित वर्णन किया गया है। चौथे अध्याय में गोदान का फल, गोसेवा के पुण्य और गोदान की विधि का वर्णन किया गया है। इसके बाद के तीन अध्यायों में विभिन्न सभ्यताओं, संस्कृतियों में गाय की महत्ता को रेखांकित किया गया है। साथ ही इस्लाम और जनजातीय समाज में गाय की महत्ता के इतिहास को प्रस्तुत किया गया है।
पुस्तक के आठवें अध्याय 'गो-हत्या और गो-रक्षा' में गोरक्षा के लिए देश व समाज में हुए आंदोलनों और अंग्रेज शासन द्वारा रचे गए षड्यंत्रों की बात की गई है। इसमें कुछ ऐसे गोभक्तों का भी वर्णन किया गया है जिन्होंने गो-रक्षा के लिए अपना जीवन आहूत कर दिया। अगले अध्याय में गायों के प्रकार पर विस्तार से चर्चा की गई है। 'गाय का आर्थिक पक्ष' शीर्षक अध्याय पढ़कर यह स्पष्ट होता है कि गाय से प्राप्त होने वाले उत्पाद न केवल शुद्ध, पवित्र और औषधि तुल्य हैं बल्कि इनका भरपूर आर्थिक महत्व भी है। गाय के दूध और उनसे बनने वाले उत्पादों पर आधारित उद्योग, गोमूत्र एवं गोमय (गोबर)के उत्पादों से न केवल भरपूर आर्थिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है बल्कि यह पर्यावरणीय दृष्टि से भी हानिरहित है। स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि गाय हमेशा से भारतीय संस्कृति, अर्थ व्यवस्था, कृषि तथा धर्म आदि के मूलतत्व में विद्यमान रही है। इससे सिद्ध होता है कि गाय देवतुल्य है और हम सभी को उसके संरक्षण का प्रयास करना चाहिए।
पुस्तक का नाम – गौ-शाला
लेखक – विवेकानंद तिवारी
अर्चना त्रिपाठी
प्रकाशक – कला प्रकाशन
बी-33/33 ए-1
न्यू साकेत कालोनी
बी.एच.यू. वाराणसी-(5) उ.प्र.
मूल्य – मुद्रित नहीं पृष्ठ – 582
दूरभाष – (0542)-2310682ú
श्री गुरुजी के प्रेरक विचार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक के द्वितीय सरसंघचालक, महान तत्ववेत्ता, लोकचिंतक और अप्रतिम संगठनकर्ता श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जी पिछली सदी के विलक्षण महापुरुष थे। 'श्री गुरुजी' के उपनाम से विख्यात हुए रा.स्व.संघ के दृष्टा द्वारा व्यक्त विचार केवल उस काल में ही नहीं तो आज भी और आने वाले समय में भी बेहद प्रासंगिक रहेंगे, इसमें संदेह नहीं। इसीलिए बारह खण्डों में प्रकाशित 'श्रीगुरुजी समग्र' से चुने गए कुछ मूल्यवान विचारों का संकलन 'श्रीगुरुजी उवाच' हाल में ही प्रकाशित होकर आया है। इसे पढ़ते हुए यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि श्रीगुरुजी के चिंतन का क्षेत्र कितना व्यापक था। संस्कृति, राष्ट्रचिंतन, अध्यात्म, चरित्र निर्माण, शिक्षा, दर्शन, इतिहास, राजनीति, विज्ञान और विश्व पटल सहित अनेक विषयों पर उनके द्वारा सर्वथा नए आयामों को सामने लाया गया। इन विचारों को पढ़कर यह भी सिद्ध होता है कि कोई भी व्यक्ति अपने विचारों और जीवन दर्शन से ही महान व पूज्य बनता है।
संस्कृति संरक्षण के बारे में श्रीगुरुजी का मानना था, 'संस्कृति संरक्षण का अर्ध प्रतिगामी होना नहीं है। वह तो राष्ट्र को अमर बनाए रखने के निमित्त आचरणीय एवं अनिवार्य कर्त्तव्य है।' इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि किसी भी देश की संस्कृति उसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अति आवश्यक है। यही वह तत्व है जो अनंत काल तक उस देश की पहचान विश्व पटल पर बनाए रखता है। यहां एक बात और भी स्पष्ट होती है कि किसी भी शब्द, संकल्पना या सिद्धान्त की व्याख्या करने या उसे अमल में लाने से पहले उसके मूल अर्थ और भाव को समझना सबसे जरूरी है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ होने और उससे गलत संदेश प्रसारित होने का भय बना रहता है, जो किसी भी समाज या राष्ट्र के लिए हितकारी नहीं है। आज के दौर में जब भारत में रहने वाला एक बड़ा वर्ग तमाम संत्रासों के बीच जीने के लिए अभिशप्त है, सक्षम और देश का नेतृत्व संभालने वाले लोग स्वार्थोन्मुख हो रहे हैं, ऐसे में राष्ट्रजीवन और उसके विकास के लिए सक्रिय वर्ग को चेताते हुए श्री गुरुजी ने कहा था, 'यदि किसी राष्ट्र का भविष्य उज्जवल करना है तो वह जिनका है, उनको पता होना चाहिए कि हमारा राष्ट्र जीवन क्या है। इसका ज्ञान न रहने पर उत्कर्ष की आशा करना व्यर्थ है।' श्री गुरुजी की इस उक्ति से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि देश का नेतृत्व संभालने वाले अधिकतर लोगों को संभवत: यह भी पता नहीं है कि राष्ट्र जीवन क्या है और वास्तव में इस देश का भविष्य उज्जवल कैसे बन सकता है? भारतीयकरण और हिन्दू-मुस्लिम एकता के संबंध में श्री गुरुजी के विचार बहुत व्यावहारिक हैं। उन्होंने कहा था, 'हम सभी को यह सत्य समझ लेना चाहिए कि हम (हिन्दू-मुस्लिम) इसी भूमि के पुत्र हैं। अत: इस विषय में अपनी निष्ठा अविचल रहना अनिवार्य है। हम सब एक ही मानव समूह के अंग हैं। हम सबके पूर्वज एक ही हैं। इसलिए हम सबकी आकाक्षाएं भी एक समान हैं। इसे समझना ही सही अर्थों में भारतीयकरण है।'
अनेक विषयों पर श्री गुरुजी के द्वारा व्यक्त विचार एक ज्योतिपुंज की तरह हैं। लेखक दामोदर शांडिल्य ने श्री गुरुजी समग्र का गहन अध्ययन करके उसके सार-रूप में यह पुस्तक तैयार कर एक सराहनीय कार्य किया है। इस पुस्तक या ऐसी दूसरी पुस्तकों की सार्थकता तभी सिद्ध हो सकती है जब इन्हें पढ़ने वाला हर पाठक इन अमूल्य विचारों को अपने जीवन और व्यवहार में लाए। इन बीजरूपी विचारों को पढ़ते हुए मन में श्री गुरुजी समग्र को पढ़ने की इच्छा बलबती होती है। पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए लेखक ने हर उक्ति के साथ समग्र के संबधित अध्याय की भी चर्चा की है।
पुस्तक का नाम –श्री गुरुजी उवाच
लेखक – दामोदर शांडिल्य
प्रकाशक – श्री भारती प्रकाशन
डा. हेडगेवार भवन परिसर
महाल, नागपुर (महाराष्ट्र)
पृष्ठ – 183
मूल्य – 125 रुपए
फो. – 0712-2723803, 2720801
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