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धुनिक युग की नारी हर क्षेत्र में अपना भरपूर योगदान दे रही है। यह समय की मांग भी है और महंगाई व तंगी के दौर की आवश्यकता भी कि गृहस्थी के भार को हलका करने में नारी भी अधिक सहयोग करे। कुछ वर्ष पहले मेरा परिचय एक ईसाई युवती सुजेन (काल्पनिक नाम) से हुआ, जो मेरे बेटे की अध्यापिका है। सुजेन अंग्रेजी साहित्य में एमए तक पढ़ी है। जीवन में आगे बढ़ने की ललक व परिवार की जरूरतों को देखते हुए उसने कई बार नौकरी बदली। कभी विज्ञापन कंपनी में काम किया, तो कभी स्कूल में अध्यापन। सुजेन संयुक्त परिवार में रहती है, पति की नौकरी अस्थाई है, एक बेटा है और तीन अविवाहित ननदें हैं। ससुर सेवामुक्त हो चुके हैं।
पिछले वर्ष सुजेन को सऊदी अरब के एक कालेज से प्राध्यापिका की नौकरी का प्रस्ताव मिला और उसकी नियुक्ति भी वहां हो गई। वेतन इतना आकर्षक था कि और सब चीजें उसके सामने गौण हो गईं। दिल्ली में सुजेन 25,000 रु. मासिक पाती थी और वहां उसे 11,500 सऊदी रियाल (1,25,000 रु.) मिलने लगे।
सुजेन सऊदी अरब के छोटे से शहर हफर-अल-बातिन में अपने पति व बच्चे के साथ पहुंची। हफर-अल-बातिन सऊदी अरब का एक छोटा सा, कम आबादी का शहर है। यहां से सऊदी अरब की राजधानी रियाद तीन सौ किलोमीटर है और कुवैत भी आधे घंटे का रास्ता है। यहां सुजेन की नियुक्ति कालेज ऑफ एज्युकेशन हफर-अल- बातिन में हुई थी। वहां पहुंचते ही सुजेन का पासपोर्ट सरकारी विभाग ने ले लिया और उसे इकहामा (वर्क परमिट) दे दिया गया, जो एक पहचान पत्र की तरह है। इकहामा पर विदेश से आने वाले हर नागरिक का विवरण अरबी भाषा में लिखा रहता है। हर छोटी-बड़ी जगह पर इकहामा देखा जाता है और उसे हर समय अपने साथ रखना जरूरी होता है।
सऊदी अरब में प्रशासनिक कार्यों में ज्यादातर मिस्र के लोग कार्यरत हैं। एशियाई जिनमें भारत, इंडोनेशिया, फिलिपींस इत्यादि के नागरिक हैं, उन्हें हेय व कमतर दृष्टि से देखा जाता है। पर सुजेन की मुश्किल और ज्यादा रही क्योंकि वह भारतीय है और ईसाई भी। हर जगह उसका इकहामा देखते ही सामने वाला उस पर घृणा भरी दृष्टि डालता था क्योंकि उस पर उसके मजहब का विवरण था। उसे देखते ही सामने वाला कहता था, ओ तुम मसीही हो? पढ़े-लिखे व्यक्ति से लेकर, उससे कहीं कनिष्ठ और यहां तक कि छात्र भी उसके पंथ को लेकर घृणा भरी दृष्टि से देखते और जो लोग उसकी भाषा नहीं समझते वे इशारे से गलत का निशान बना कर उसे समझाते कि उसका पंथ गलत है, उसे मतान्तरण कर लेना चाहिए।
इस कारण कुछ ही दिनों में वहां का जीवन इस बुद्धिजीवी लड़की को मानसिक रूप से क्षुब्ध करने लगा। घृणा से भरी हुईं नजरों का सामना करते-करते उसका आत्मविश्वास डगमगाने लगा।
अध्यापकों को वेतन दिया जाता है पर पढ़ाई के स्तर को कोई महत्व नहीं दिया जाता। छात्रों को पढ़ने के लिए पैसे मिलते हैं। अध्यापकों से वे मुलाजिम की तरह पेश आते हैं। शिक्षिकाएं जरूरी कागजातों को अपने थैले में लिए घूमती हैं। आलमारी व मेज तक की बुनियादी सुविधा नहीं है। 'पेपर लीक' हो जाए तो सजा कर डर हर वक्त बना रहता है। सामाजिक जीवन शून्य के बराबर है। घरों के बाहर मोटे पर्दे हैं, बन्द खिड़कियों और सन्नाटे से भरा हुआ वातावरण। भावना-शून्य शहरों में जलवायु भी पूरा कहर ढाती है। शुष्क रेतीली जमीन पर चलती हुई गर्म हवाएं जीवन को और अधिक कठिन बना देती हैं। धन है, गाड़ियां हैं, मोबाइल व लेपटाट हैं, पर गुलाम शरीर व आत्मा इन सबका क्या करेगी? अपनी मानसिक पीड़ा की बात फोन पर या किसी अन्य माध्यम से करते हुए भी सुजेन डरती थी क्योंकि वहां की दंडात्मक पद्धति निरंकुश है। नजदीक ही खफजी नामक स्थान पर एक महिला को कोड़े मार कर दंडित किया गया क्योंकि उसके बुर्के में से उसके उड़ते हुए बाल दिख रहे थे। वहां नैतिकता के कथित रखवाले हर वक्त ऐसी ही घटनाओं को तलाशते रहते हैं। सुजेन नकाब में जमीन तक ढके होने पर भी चलते-चलते सिहर जाती थी कि कहीं अनजाने में उससे कोई गलती तो नहीं हो रही, कहीं उसके बाल या पैर तो नही दिख रहे। महिलाएं गाड़ी नहीं चला सकतीं, पिता, पति या बेटे के बिना बाहर नहीं जा सकतीं। वहां की व्यवस्था के अनुसार मेहराम (मेहर देने वाला) के बिना कहीं भी बाहर जाना अनैतिक है।
सुजेन तो कालेज में पढ़ाने जाती थी, पर उसके पति, छोटे से डेढ़ वर्ष के बच्चे के साथ इस घुटन भरे माहौल में जूझते हुए मधुमेह और उच्च रक्तचाप के शिकार हो गए। एक दिन बेहोश होकर वे घर में गिर गए। सुजेन स्वयं गाड़ी चला कर पति को अस्पताल ले जा सकती थी, पर आपातकाल में भी कोई महिला घर से अकेली नहीं निकल सकती। चालक के आने पर सुजेन अपने पति को लेकर अस्पताल पहुंची। विदेश में अकेली सुजेन, बीमार पति, छोटा बच्चा, ऊपर से दहशत भरा माहौल। सोचा पति के ठीक होने पर थोड़ा घूम लें तो शायद उनहें कुछ सुकून मिले। सुजेन ने बहरीन जाने का मन बनाया। बहरीन और सऊदी अरब को बीच में जोड़ता हुआ बहरीन ब्रिज है, जो कि अरब महासागर पर बना है। उसके शहर से केवल तीन घंटे का रास्ता है बहरीन का। परन्तु उसे वहां जाने की अनुमति नहीं मिली।
कार्यक्षेत्र में भी उस पर दबाव अधिक रखा जाता था, क्योंकि वह ईसाई है और मतान्तरण के लिए तैयार नहीं थी। वरिष्ठ सहयोगियों ने बार-बार उसके दस्तावेजों की जांच शुरू कर दी, कभी ये प्रमाणपत्र लाओ तो कभी दूसरा। जानबूझ कर उसे मानसिक प्रताड़ना दी जाने लगी। सुजेन को भौतिक दु:खों के साथ-साथ ये कट्टरवादी आघात अंदर तक बींध गए। दोनों पति-पत्नी ने निश्चय किया कि वे स्वदेश वापस जाएंगे। पर वहां का प्रशासन उसे वापस आने की आज्ञा नहीं दे रहा था। तब सुजेन ने अपने पति की बीमारी और बच्चे की देखरेख न हो पाने का कारण प्रस्तुत किया और इस्तीफा दे दिया। अब वह भारत आ गई है। परन्तु अभी भी सऊदी अरब की घुटन-भरी जिन्दगी की यादें उसे अन्दर तक हिला देती हैं।
सऊदी अरब में गैर-मुस्लिम महिलाओं की क्या स्थिति है, यह सुजेन के साथ घटी घटनाओं से साफ पता चलती है। जो बहनें पैसा कमाने के लिए सऊदी अरब जाना चाहती हैं, उनसे मैं जरूर कहना चाहूंगी कि अपना देश बहुत ही उदार है। भले ही दो पैसा कम कमाते हैं, पर सुकून की जिन्दगी तो काटते हैं। पैसे के लालच में एक कट्टरवादी देश में जाकर अपने आपको 'गुलाम' बना देना कतई उचित नहीं है। ईश्वर की कृपा रही कि सुजेन वहां से लौट आई। (यह आलेख सुजेन द्वारा बताए गए कटु अनुभवों पर आधारित है)
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