चीन की छद्म मैत्री से सावधान-डा. रहीस सिंह
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चीन की छद्म मैत्री से सावधान-डा. रहीस सिंह

by
Dec 22, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Dec 2012 14:44:22

 

चीन भारत का एक ऐसा पड़ोसी देश है जो भारत के प्रति बेहद रणनीतिक है, लेकिन छद्म मैत्री आचरण प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहा है। हालांकि चीन अपनी इस 'ट्रैक-2' नीति में काफी हद तक सफल भी हुआ है, क्योंकि भारतीय राजनय को उसकी भारत विरोधी रणनीति के मुकाबले उसके साथ व्यापार के आंकड़े कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण लगते हैं। इसलिए भारतीय राजनय चीनी हरकतों की अक्सर अनदेखी कर जाता है। वह यह भूल जाता है कि हम केवल एक अर्थव्यवस्था या बाजार नहीं, एक सम्प्रभु राष्ट्र हैं। आखिर वह कौन सी वजह है जिसके कारण भारतीय राजनय की न केवल चीन बल्कि बेहद छोटे आकार के अपने पड़ोसी देशों के सामने भी घिग्घी बंधी रहती है? शायद यही वजह है कि चीनी विशेषज्ञ भारत को रक्षा पंक्ति मजबूत करने की बजाय उसे यह सलाह देने लगे हैं कि वह अपने लोगों की रोजी-रोटी की चिंता करे। लेकिन क्या अब भी भारत कोई उचित जवाब देने की कोशिश करेगा?

चीनी सत्ता प्रतिष्ठान की सोच जाहिर

'ग्लोबल टाइम्स' में शंघाई इस्टीट्यूट फॉर इण्टरनेशनल स्टडीज में दक्षिण एशियाई अध्ययन केंद्र के शोध विशेषज्ञ लियू झांगजी ने 1962 की जंग को दोनों देशों के लिए घातक बताते हुए कहा है कि अब दोनों देशों के बीच दोबारा लड़ाई नहीं होगी और भारतीय नेताओं को भारी भरकम रक्षा बजट पर ध्यान लगाने के बजाए अपने लोगों की रोजी-रोटी में सुधार पर जोर देना चाहिए। लिखा है कि इस लड़ाई की 50वीं सालगिरह को भारत में जिस तरह से मानाया गया उससे लगता है कि भारत के सैन्य नेतृत्व और सामरिक विशेषज्ञों का ध्यान अब भी अपने देश की सैन्य कमजोरियों, पुराने पड़ चुके उपकरणों और खराब साजो-सामान पर ही अटका हुआ है। इस सामरिक विशेषज्ञ ने इस बात को तो स्वीकार किया है कि वह लड़ाई भारत और चीन दोनों के लिए घातक साबित हुयी, लेकिन उसने इसके लिए भारत को ही कठघरे में खड़ा किया। चीन के दूसरे विशेषज्ञों की तरह लियू ने भी दावा किया है कि चीन को 1962 में जवाबी हमला करने पर मजबूर होना पड़ा था। लियू का कहना है कि सीमा क्षेत्र में भारत और चीन के बीच पहली मुठभेड़ 1959 में हुयी थी और इसके बाद चीनी सेना को 20 किलोमीटर पीछे हटने के आदेश दिए गये थे ताकि भविष्य में टकराव न हो। इसे देखते हुए भारत ने आक्रामक नीति अपना ली और अपने सैनिकों को विवादित क्षेत्र में गश्त पर भेजना शुरू कर दिया। ऐसे में भारत को बातचीत की मेज पर लाने के लिए 'लाइटनिंग स्ट्राइक' करना ही एकमात्र विकल्प बचा था।

यह धूर्तता नहीं तो क्या है?

इसे क्या कहा जाए, 'पीस ऑफ रासकैलिटी' या फिर इस चीनी विशेषज्ञ की विद्वता? इसमें कोई संशय नहीं कि इस प्रकार का आरोप धूर्तता से कम कुछ भी नहीं हो सकता, लेकिन सवाल यह उठता है कि भारत की तरफ से ऐसे निष्कर्षों के खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया क्यों नहीं व्यक्त की जाती? ऐसी सलाहों और आरोपों पर चुप रहना तो दब्बूपन का परिचयायक है। अगर लियू की बातों पर ध्यान दें तो पता चलता है कि चीन ने वास्तव में भारत को दलाई लामा को शरण देने के बदले में 'दण्ड' दिया था। क्या लियू के कथन की गम्भीरता को देखते हुए भारत को चीन की नीतियों और उसके साथ अपने सम्बंधों की समीक्षा नहीं करनी चाहिए?

अभी कुछ समय पहले ही अमरीका के राष्ट्रीय खुफिया निदेशक जेम्स आर. क्लैपर ने भी अपने एक बयान में कहा था कि भारत चीन के साथ सीमित संघर्ष की तैयारी कर रहा है। इस बयान में नेविले मैक्सिवेल जैसे लेखक की बात की प्रतिध्वनि दिखी थी जिसने भारत पर चीनी हमले के बाद लिखी गयी अपनी पुस्तक 'इंडियाज चाइना वार' में लिखा था कि नेहरू की अग्रगामी नीति उसके लिए जिम्मेदार थी। यही बात आज लियू दोहरा रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद हम यदि उचित जवाब नहीं दे पाये तो फिर इसके लिए हमारा नेतृत्व पूरी तरह से दोषी है। चीन आएदिन भारत को किसी न किसी प्रकार की धमकी देता ही रहता है और भारत या तो दबे स्वर में उस पर ऐतराज जताता है या फिर 'मीडिया की हरकत' बताकर पर्दा डाल देता है। आखिर ऐसा क्यों होता है? क्या हम चीन के प्रति उदारता के नेहरू युग से अभी तक उबर नहीं पाए हैं या फिर कोई अन्य कारण इसके लिए जिम्मेदार है?

चीन की कुटिलता

तिब्बत को चीन ने जबरन हथिया लिया और तब से लेकर आज तक तिब्बतियों का उत्पीड़न जारी है। अभी भी तिब्बती जिस तरह से चीन के विरोध में आत्मदाह कर रहे हैं उससे चीन का अमानुषिक चरित्र उजागर हो रहा है। लेकिन भारत सहित अधिकांश दुनिया इस पर मौन है। इसका मतलब यह हुआ कि चीन की हरकतों को जायज ठहराया जा रहा है। चीन कश्मीर और अरुणाचल मामले में जिस तरह का नजरिया अपनाए हुए है उससे कोई भी चीनी चरित्र का आकलन कर सकता है, लेकिन भारतीय नेतृत्व ऐसा करने में अक्षम है। एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि चीन लगातार भारत को ही सीमा विवाद को न सुलझाने के लिए दोषी मानता है।

खतरनाक सैन्य तैनातियां

कुछ समय पहले सेंटर फॉर स्ट्रेटेजिक एंड बजेटरी एसेसमंेट ने अपने एक पत्र में कहा था कि, ऐसा लगता है कि चीन किसी उद्देश्य से अपनी सैन्य क्षमता का विकास और उनकी तैनाती कर रहा है जो अंतरिक्ष, साइबरस्पेस, समुद्र और आसमान से लेकर हर क्षेत्र में अमरीकी आजादी के लिए चुनौती है। खबरें ये भी थीं कि चीन अपने नए सुपर वेपन 'कैरियर किलर' को प्रशांत महासागर में तैनात करने की तैयारी कर चुका है। कैरियर किलर एक 'एंटीशिप बैलिस्टिक मिसाइल' है जिसकी क्षमता करीब 20 हजार किलोमीटर दूर तक मार करने की है। इस मिसाइल के अलावा बैलिस्टिक, क्रूज मिसाइल, पनडुब्बियांं, टारपीडो और समुद्र में मौजूद बारूदी सुरंगों के जरिए चीन पश्चिमी प्रशांत महासागर और फारस की खाड़ी के साथ-साथ भारत की सीमा से सटे अरब सागर और हिंद महासागर में अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश करेगा। यही नहीं, चीन ने दक्षिण चीन सागर के हैनान द्वीप समूह में अपनी नौसैनिक क्षमता काफी बढ़ा ली है। उसने यहां पर परमाणु शक्ति वाली बैलेस्टिक मिसाइल पनडुब्बी (एसएसबीएन) का बेड़ा तैनात किया है। चीन पहले ही (094 टाइप) एसएसबीएन पनडुब्बी हैनान द्वीप समूह के दक्षिणी तट पर सान्या में तैनात कर चुका है। पनडुब्बी से छोड़ी जाने वाली चूलांग-2 मिसाइल तुंगफंग-31 की संशोधित किस्म है। इसे भारत को निशाना बनाने के इरादे से तिब्बत के छिंगह्वा इलाके में तलिंगहा सैनिक अड्डे पर तैनात किया गया है। यहीं पर करीब 20 तुंगफंग-31 भी तैनात हैं जो 7200 किमी की दूरी तक मार कर सकती हैं। इसके साथ ही है चीन की 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स' की नीति, जिसके तहत पाकिस्तान का ग्वादर, मालदीव का मारओ, श्रीलंका का हम्बनटोटा, बंगलादेश का चटगांव, म्यांमार का सित्तवै, थाइलैण्ड की क्रॉ नहर, कम्बोडिया का रेयम एवं सिंहनाक्विलै चीनी सैनिक अड्डों के रूप में विकसित हो रहे हैं। चीन की ये टेढ़ी चालें भारत को लगातार चेतावनी दे रही हैं, लेकिन भारत का शीर्ष नेतृत्व हिन्दी चीनी भाई-भाई या 'चिंडिया' के छद्मवाद में खोया हुआ है।

बहरहाल चीन की गतिविधियां भारत के लिए ही नहीं दुनिया के लिए भी खतरनाक हैं, इसलिए उसके हर एक कदम को उसकी रणनीतिक तैयारियों के रूप में देखा जाना चाहिए।

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